डॉ. कौस्तुभ चिकित्सा-परीक्षा पास करने के उपराँत सरकारी क्षय चिकित्सालय में नियुक्त हुए। उनने जार्ज बर्नार्ड शॉ की वह उक्ति अपने कमरे में टाँग रखी थी कि रोगी को दवा की अपेक्षा डॉक्टर की सहानुभूति की जरूर होती है। उनने रोगियों से ममता भरा व्यवहार किया और इतने अनुपात में रोगी अच्छे किए, जितने पहले कभी भी न हुए थे।
उनने अपने अस्पताल की एक नर्स से इस शर्त पर विवाह किया कि वे संतानोत्पादन के फेर में न पड़ेंगी और रोगियों को ही अपना बालक मानेंगी। सेवाधर्म में संलग्न रहकर वे पति-पत्नी अत्यंत सुखी-संतुष्ट रहे।
उनने अपने अस्पताल की एक नर्स से इस शर्त पर विवाह किया कि वे संतानोत्पादन के फेर में न पड़ेंगी और रोगियों को ही अपना बालक मानेंगी। सेवाधर्म में संलग्न रहकर वे पति-पत्नी अत्यंत सुखी-संतुष्ट रहे।
वृद्धावस्था में वे मसूरी आए। वहाँ के अस्पताल में चार घंटा निःशुल्क सेवा करते रहे। असहायों की वे आर्थिक सहायता भी करते रहते थे। एक पगली उन्हें अपना बेटा कहती थी। वे भी उसे माता जी कहने लगे और वह रोगमुक्त हो गई।
डॉ. कौस्तुभ दंपती का शरीर अब नहीं है, पर उनका आदर्श डॉक्टरों को कुछ नए ढंग से सोचने कि लिए अभी भी जीवित है। चिकित्सा व्यवसाय तो कई लोग अपनाते हैं, पर सेवाधर्म के रूप में अपनाकर समाज देवता की आराधना गिने-चुने ही करते हैं। ऐसे प्रकाशस्तंभ युग-युगों तक प्रेरणापुँज बने रहते हैं।