जिज्ञासा से होगी सत्य की प्राप्ति

May 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारतीय पद्धति के प्रणेता ऋषियों ने मानव जीवन में जिज्ञासा के अन्यतम महत्त्व को जाना−पहचाना तथा प्रत्येक श्रेयार्थी को जिज्ञासु का सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त करने की प्रेरणा दी। नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् (कठ 1/22) अर्थात् सत्य की प्राप्ति में जिज्ञासा से श्रेष्ठ अन्य कोई सहायक नहीं।

मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? मैं भविष्य में भी रहूँगा या नहीं? प्राणी दुखी क्यों होता है? सच्चा सुख क्या है? इंद्रियों से प्राप्त होने वाला ज्ञान विश्वसनीय है या नहीं? कर्मों को फल मिलता है या नहीं? या नहीं? इस जन्म से पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं? आदि असंख्य प्रश्नों की जिज्ञासा न केवल संसार से दुखों से पीड़ित प्राणी को ही झकझोरती है, अपितु कई बार सब प्रकार से सुखी मनुष्यों के मन में भी उथल−पुथल मचा देती है। यह जिज्ञासा दिव्य अग्नि के समान है, जिसमें तपने पर मनुष्य का हृदय सत्य के अवतरण का पुण्य तीर्थ बन जाता है।

जिस समय मनुष्य के मन से इन विचारों का झंझावात चलता है, उस समय उसे समस्त साँसारिक सुख विषतुल्य प्रतीत होने लगते हैं। राजमहलों के वैभव−विलास में पले राजकुमार सिद्धार्थ, राजा भर्तृहरि और महावीर जैसे असंख्यों की जीवनगाथाएँ इतिहास के पृष्ठों में बिखरी पड़ी है। विचारों का यह तूफान ही वह सच्ची जिज्ञासा है, जिससे दर्शन का जन्म होता है।

जिज्ञासु के लिए दर्शन का अर्थ मात्र बौद्धिक कलाबाजियाँ खाना नहीं है। वह एकाँत में बैठकर चिंतन करता हुआ अपने कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं समझता। आँग्ल भाषा में दर्शन के लिए प्रयुक्त होने वाला ‘फिलॉसफी’ शब्द यूनानी भाषा के ‘फिलो’ और ‘सोफिया’ के मिलने से बना है, जिसका अर्थ होता है, ज्ञान के प्रति प्रेम। यहाँ ज्ञान का तात्पर्य बुद्धिकृत मीमाँसा से है और तत्संबंधी रुचि ही ‘फिलॉसफी’ है। इसके विपरीत भारतीय शब्द ‘दर्शन’ का तात्पर्य ‘देखने’ से है जिसका अर्थ है, तत्त्व का साक्षात्कार करना। ज्ञान के जिस विवेचन में सत्य या तत्त्व को स्वयं न देखा जाए, उसे ‘दर्शन’ कहना युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता। अतः वही तत्त्व सत्य है, जिसके संबंध में हम यह कह सकें कि हमने उसका साक्षात्कार किया है। यह हमारे अनुभव का विषय है अर्थात् यह हमारा ‘तत्त्वदर्शन’ है।

बिना सच्ची जिज्ञासा के तत्त्वज्ञान की उधेड़बुन बुद्धि का कुतूहल मात्र बनकर रह जाती है। आर्ष साहित्य में जिज्ञासा वृत्ति का सर्वोत्तम उदाहरण नचिकेता है। नचिकेता शब्द यथार्थ जिज्ञासु वृत्ति का सूचक है। यह जिज्ञासावृत्ति मनुष्य में प्रायः (यम) के सन्निकट होने अर्थात् मृत्यु का भय उपस्थित होने पर जाग उठती है।

मृत्यु के नाटक को निकट से देखते हैं, तब ‘कस्त्वं कोऽहम्’ से प्रश्न हमें सच्चे और आवश्यक जान पड़ते हैं। नचिकेता की जिज्ञासा का उदय भी यम के सान्निध्य में ही होता है। नचिकेता (न+चिकेतस्) शब्द को अर्थ ही है कि जिसके अंदर जानने की इच्छा हो, परंतु वह जानता न हो।

भगवान बुद्ध अपने उपदेशों में बहुत जोर देकर कहते थे,”मैं जिस मार्ग का पथिक हूँ, मैंने उसे स्वयं देख लिया है।” जब तक किसी उपदेष्टा या ज्ञानी की ऐसी विश्वस्त स्थिति न हो, तब तक वह मानव जीवन के लिए असंदिग्ध या महत्त्वपूर्ण तत्त्व का व्याख्यान नहीं कर सकता ।

यास्काचार्य ने लिखा है, ‘ऋषिदर्शनात्’ (निरुक्त 2/11) अर्थात् ऋषि शब्द का अर्थ है, द्रष्टा या देखने वाला। शुष्क ऊहापोह करने वाला तार्किक भारतीय अर्थ में ‘दार्शनिक’ की पदवी का अधिकारी नहीं बनता। दार्शनिक बनने के लिए ‘दर्शन’ होना चाहिए। दूसरे शब्दों में दार्शनिक में ऋषित्व का होना आवश्यक है। जो व्यक्ति अपने आपको ज्ञान का अधिकारी कहता है, उससे पूर्व उसमें यह कहने की हिम्मत होनी चाहिए कि मैंने ऐसा देखा है। यजुर्वेद की परिभाषा के अनुसार सच्चा दार्शनिक वह है, जो ‘एव मया श्रुतम्’ (ऐसा मैंने सुना) यह नहीं , वरन् आत्मविश्वास के साथ यह कहे।

वेदाहमेंत पुरुषं महान्तमदित्यवर्ण तमसः परस्तात्।

मैं उस परमसत्ता को जानता हूँ, जो आदित्य के सदृश्य भास्वर और तम से परे है।

दर्शन का अर्थ है, ‘आत्मानुभव।’ दूसरों के दर्शन के आधार पर सच्ची तृप्ति संभव नहीं। तार्किक प्रश्नात्मक जिज्ञासा का अर्थ श्रद्धा का अभाव नहीं है। इसके विपरीत जिज्ञासा का अभाव अश्रद्धा है। जिज्ञासा विषय को अपने अध्यवसाय की क्षमता से अनुभव का विषय बना लेना श्रद्धा का लक्षण है।

दार्शनिक काँट ने कहा है, “ नीतिमय जीवन का प्रारंभ होने के लिए विचारक्रम में परिवर्तन तथा आचार का ग्रहण आवश्यक है।” जिज्ञासा उत्पन्न हो जाने पर यदि जीवनक्रम में परिवर्तन नहीं होता है तो इसका अर्थ है कि व्यक्ति वास्तविकता के साथ अपना सीधा संबंध जोड़ना नहीं चाहता है।

व्यक्ति में यदि सही−सही जिज्ञासा का उदय हो जाए तो वह सकाम कर्मों के फल का भी उल्लंघन कर जाता है अर्थात् वह उससे भी आगे बढ़ जाता है, ऐसा गीता का कथन है, जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते। (6/44)

संदेह या प्रश्नों को परास्त करने की शक्ति ही जिज्ञासु की श्रद्धा है। सत्य को जानने के लिए मात्र प्रश्नों या तर्कों का उदय ही पर्याप्त नहीं है। गीता के अनुसार इसके लिए योगयुक्त एकनिष्ठ अभ्यास की भी आवश्यकता है, ‘अभ्यासयोगयुक्तेल चेतसा नान्यगामिना।’

‘ज्ञान’ का सामान्य अर्थ जानकारी है। भौतिक पदार्थों एवं परिस्थितियों की तथा प्रयोग विधियों जानकारी को ही लोकव्यवहार में ‘ज्ञान’ कहा जाता है, किंतु आत्मविज्ञान में इसे आत्मसत्ता की स्थिति एवं परिणीत के संबंध में आवश्यक अनुभव कराने वाली अनुभूति को ही ‘ज्ञान’ कहा गया है। इसी की उपलब्धी मानव जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। अपने संबंध में भ्राँतियाँ बनी रहने पर लोक−व्यवहार एवं पदार्थों का उपार्जन−उपयोग सभी गलता हो जाता है और सुख−संवर्द्धन के लिए किया गया पुरुषार्थ उलटा संकट भरे जाल−जंजालों में फँसाता जाता है। शाँति एवं प्रगति का सही मार्ग उसी को मिल सकता है, जो आत्मचेतना और लोक−व्यवस्था के मध्यवर्ती अंतर को जोड़ने वाली सूत्र− शृंखला को भली प्रकार समझ लेता है। उसी जानकारी को शास्त्र में ‘ आत्मज्ञान’ कहा गया है। यह आत्मज्ञान ही वह अमृत है, जिसे पाने के उपराँत और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता ।

छाँदोग्य उपनिषद् में एक कथा आती है। प्राचीनकाल में दो पुरुष थे। एक का नाम विरोचन था, दूसरे का इंद्र। दोनों के मन में यह प्रश्न उठा कि ‘ मैं कौन हूँ?’ शिष्य भाव से जिज्ञासु की भाँति दोनों हाथ में समिधाएँ लिए प्रजापति के पास पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने प्रश्न किया, आचार्यश्रेष्ठ, हमें बताइए कि हम कौन हैं?

प्रजापति ने उत्तर देने के पूर्व उनकी योग्यता की परीक्षा लेना उचित समझा। उन्होंने कहा, “थाली में पानी भर लो और उसमें अपना मुख देखो, अपने आपका साक्षात्कार कर लोगे।” उत्तम वस्त्र धारण करके दोनों ने जल में अपनी आकृति देखी। विरोचन अपना सौंदर्य देखकर प्रसन्न हो उठा और कहने लगा, “ मैं कितना सुँदर हूँ।” वह अपने सभी साथियों से कहने लगा, “ मैंने ‘मैं’ को पता लगा लिया है।” अपने शरीर को ही ‘मैं’ समझकर वह उसे ही पुष्ट करने एवं सँवारने में लग गया।

इंद्र दूरदर्शी थे। उनने सोचा कि यदि वस्त्र, आभूषण एवं शरीर ही मेरा स्वरूप है तो इसका अर्थ यह है कि उनके मैले होने, जरा−जीर्ण पड़ने पर मेरी भी वैसी ही स्थिति हो जाएगी। निश्चय ही यह मेरा स्वरूप नहीं हो सकता। वह कहने लगे, “ नाहमाम् भोग्य पश्यामि” अर्थात् मैं तो उसमें कुछ भी कल्याण नहीं देखता।

इंद्र की आशंका उचित थी। जिन आकर्षक वस्त्रों द्वारा हम शरीर को सजाते−सँवारते हैं, वह मैला होता है। और फटता भी है, किंतु ‘मैं’ का भाव तो सदा एक जैसा बना रहता है। संबोधन किए जाने वाले स्थल अवयव का स्वरूप बदल जाता है।

बचपन में भी ‘मैं’ का संबोधन किया जाता था, युवावस्था एवं वृद्धावस्था में भी। शरीर तो परिवर्तित होता जाता है, किंतु ‘मैं’ सदा एक जैसा बना रहता है। स्पष्ट है नित्य परिवर्तनशील यह शरीर ‘मैं’ नहीं हो सकता है। ‘मैं’ का भाव शाश्वत, अपरिवर्तनशील होना इस बात को प्रमाण है कि यह कोई शाश्वत, अविनाशी एवं परिवर्तनशील सत्ता होनी चाहिए।

उपनिषद् के इस कथानक का निष्कर्ष यह है कि आत्मसत्ता को शरीर से पृथक और स्वतंत्र मानकर चला जाए। अपना हितसाधन, आत्मकल्याण एवं आत्मोत्कर्ष की समस्याओं एवं उपलब्धियों के साथ जोड़ा जाए। इस स्तर को दृष्टिकोण न अपनाया जाए जैसा कि कि पेट और और प्रजनन तक अपनी आकाँक्षा तथा चेष्टा को सीमाबद्ध रखने वाले नरपशु अपनाते देखे जाते हैं। वासना और तृष्णा, लोभ और मोह के भव−बंधन उन्हीं को बाँधते हैं, जो अपने को शरीर मानकर चलते हैं, और उसी के साथ जुड़े हुए परिकर के साथ बालक्रीड़ा करते रहते हैं। इस स्तर से ऊँचे उठकर जीवन−संपदा को महत्त्व एवं सदुपयोग को समझते हुए चरम लक्ष्य की दिशा में चल पड़ने की प्रेरणा आत्मज्ञान पर अवलंबित है। इसी प्रेरणा को ऋतंभरा प्रज्ञा एवं ब्रह्मविद्या गायत्री कहते हैं।

व्यक्ति की तीन तस्वीरें हैं− (1) लोग उसे किस रूप में समझते हैं। (2) वह किस रूप में जीता है। (3) वह किस रूप में अपने आपको प्रस्तुत करता है। तीनों चित्रों में से पहला मान्यता का, दूसरा यथार्थ का और तीसरा अयथार्थ का है।

राजा भोज की राजसभा जुड़ी हुई थी। बड़े−बड़े विद्वान अपने−अपने आसनों पर विराजमान थे। उसी समय एक भद्र−सा पुरुष आभूषणों से विभूषित वहाँ आ उपस्थित हुआ। राजा भोज सिंहासन से उठे, अभिवादन किया और सम्मान दे ऊँचे आसन पर बिठाया। उसी समय एक दूसरा व्यक्ति फटे−पुराने वस्त्र पहने सभा में आया। राजा ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया और वह एक किनारे बैठ गया।

विद्वानों के वक्तव्य हुए, चर्चा−परिचर्चा चलने लगी। फटे कपड़े में उपस्थित व्यक्ति प्रभावशाली वक्ता एवं विद्वान था। सभा विसर्जित होने पर राजा स्वयं उसके साथ दरवाजे तक विदा करने के लिए गया और उसे विविध प्रकार के वस्त्राभूषणों से सम्मानित किया। जाते समय जो व्यक्ति वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर आया था, उसकी ओर राजा ने ध्यान तक नहीं दिया।

इतने में एक विदूषक घूँघट लगाए रूपसी जैसे आवरण पहनकर दरबार में दाखिल हुआ और फरियाद सुनने की प्रार्थना करने लगा। आरंभ में सभी का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ, पर पीछे जब वास्तविकता का पता चला तो सभी दरबारी उस छद्मवेशी पर ठहाका लगाकर हँस पड़े और उस बहरूपिये को कुछ दे−दिलाकर भगा दिया।

उपस्थित विद्वानों ने तीन प्रकार के लोगों के प्रति तीन तरह का व्यवहार करने और आरंभ में प्रदर्शित किए रुख को बदल देने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा, प्रथम व्यवहार में प्रारंभिक परिचय, दूसरे में यथार्थ निरूपण और तीसरे में भ्रम−निवारण के तथ्यों के काम किया और प्रारंभिक मान्यता को बदल दिया।

यथार्थ जिज्ञासु को भी ऐसे कितने ही चरणों से होकर गुजरना पड़ता है, तब जाकर परम तत्त्व की प्राप्ति होती है। कई बार भ्रम सत्य−सा प्रतीत होता है तो उसकी पड़ताल कर उक्त धारण को परिवर्तित भी करना पड़ता है। जिज्ञासा की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। बिना जिज्ञासा के व्यक्ति प्रगति नहीं कर सकता। चाहे विकास भौतिक हो या आत्मिक, दोनों के लिए यह समान रूप से आवश्यक है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles