मृत्यु अखण्ड सत्ता की एक अभिव्यक्ति मात्र है। मृत्यु केवल दशा परिवर्तन की द्योतक है। मृत्यु एक पहलू है और जीवन उसका दूसरा पहलू है। मृत्यु का और एक नाम है जीवन, और जीवन का दूसरा नाम है मृत्यु। अभिव्यक्ति के एक रूप विशेष को जीवन कहा जाता है और उसी के अन्य रूप को मृत्यु से अलंकृत किया जाता है। जीवन आत्मा के अर्थ में अनादि, अनन्त और अमर है और मृत्यु का अर्थ है एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र परिवर्तन। आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है परन्तु उसका केन्द्र शरीर में अवस्थित है और मृत्यु का अर्थ है इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना। यह स्थानांतरण अत्यन्त मंगलमय है, महोत्सव है।
मृत्यु शब्द ‘मृं’ धातु से बना है जिसका अर्थ है प्राण का त्यागना। आत्मदृष्टि से पोषित अपनी सनातन संस्कृति में मरण एक महोत्सव है। एक नूतन जीवन के लिए वर्तमान देह का सहर्ष त्याग है। गीता के अनुसार मृत्यु परवर्ती जीवन का निर्धारण है। महाकवि कालिदास ने उल्लेख किया है कि ‘मरणं प्रकृति शरीरिणाँ’ अर्थात् शरीरधारी साँसारिक प्राणियों का प्राकृतिक स्वभाव है मृत्यु। नूतन देह धारण करने के लिए पुराने का त्याग किया जाता है। यह त्याग ही मृत्यु है और धारण जन्म। अतः जन्म और मृत्यु आत्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं। यदि जन्म हर्ष का प्रतीक है तो मृत्यु शोक, दुःख एवं भय का नहीं महोत्सव का महा प्रतीक है।
अतः भारतीय संस्कृति में मृत्यु या मरण के लिए जितने शब्दों का प्रयोग किया जाता है उन सभी के मूल में यही दिव्यार्थ झलकता-जगमगाता है। देहावसान अर्थात् देह का अवसान, शरीर की समाप्ति आत्मा का नहीं। दिवंगत याने स्वर्ग की ओर आरोहण। दिवं का अर्थ ही स्वर्ग होता है। शरीर का स्वर्ग में जाना सम्भव नहीं है, केवल आत्मा ही वहाँ एवं उससे पार पहुँच सकती है। इसी प्रकार ‘वयकुण्ठ’ जिसका अपभ्रंश है ‘वैकुण्ठ’। वय याने आयु और कुण्ठित अर्थात् क्षीण-नष्ट हो जाना। इस तथ्य को और भी स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘समयसार’ में उद्धृत किया है- ‘आऽक्खपेण मरणं’। इसका तात्पर्य है आयुकर्म के क्षय से मरण होता है। अतः मृत्यु को स्थान−विशेष का वाचक मान लिया जाता है जबकि यह मरण का सूचक शब्दान्तर है। यही नहीं, मृत शरीर के लिए एक विशिष्ट शब्द का प्रयोग किया जाता है-’अरथी’। इस शब्द के गूढ़ार्थ में झाँकने पर प्रतीत होता है शरीर रूपी रथ को आत्मा रूपी रथी संचालित-परिचालित करता है। जिस रथ का रथी चला गया उसे मात्र रथ न कहकर ‘अ-रथी’ कहना हमारी सम्यक् एवं आत्मदृष्टि का सूचक है। इसलिए मृत्यु को उतरा हुआ परिधान माना जाता है और आत्मा को सनातन व शाश्वत माना जाता है।
आत्मा ही सत्य एवं चिरन्तन है, देह तो मात्र इसे व्यक्त करने का विनाशशील एवं क्षणभंगुर आवरण है। देह का नाश-विनाश सुनिश्चित है। इसी विनाश को मृत्यु कहा जाता है जो केवल शरीर का होता है। इसी कारण ‘जातस्य मरणं ध्रुवं’ कहा जाता है। जो जन्मा है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। मर्त्य संसार में जिसने देह धारण किया है उसका देह वियोग सुनिश्चित है। परन्तु शाश्वत और सनातन वही हो सकता है जिसका न तो जन्म होता है और न ही मृत्यु। जो इन दोनों से परे एवं पार है, और वह आत्मा है। अतः जो मानव स्वयं को मरणधर्मा शरीर न मानकर चिर शाश्वत आत्मा मानता है वही इस जीवन का सच्चा उपयोग एवं उपभोग कर सकता है। जीवन को सुरुचिपूर्ण एवं कलात्मक बनाने का सूत्र उसी को हस्तगत हो सकता है। ऐसी धन्य आत्मा अपने जीवन को गरिमापूर्ण ढंग से जीकर श्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट रीति-नीति से नश्वर शरीर को त्याग करने की कला जानती हैं। ऐसा सुयोग और सौभाग्य प्रत्येक मनुष्य को नैसर्गिक रूप से प्राप्त है परन्तु बिरले ही हैं जिसका समुचित रूप से उपयोग कर पाते हैं।
मृत्यु एक महोत्सव है। इस तथ्य को वही समझ पाता है जिसने अपने सम्पूर्ण जीवन में त्याग, सेवा, आदर्श, सच्चाई और सद्चिंतन को अपनाया-आत्मसात् किया। जिसने जीवन पर्यन्त सत्य का साथ दिया। जीवन में उसी को उतारा तथा ईश्वर रूपी महा सत् का चिंतन-मनन एवं व्यवहार में रमाया हो, वही ऐसे आदर्श मृत्यु महोत्सव को प्राप्त कर सकता है। इस आदर्श देह-त्याग विधि को मनीषियों ने ‘सल्लेखना’ कहा है। जीवन रूपी इस प्रवाह में आये राग-द्वेष, लोभ-मोह, काम-क्रोध के प्रसंग कितने ही बने पर विवेकीजन प्राण-प्रयाण बेला में मात्र सत्य का ही चिंतन-मनन करते हैं, अपने आँखों के आगे उन्हीं उत्कृष्ट आदर्शों को उमड़ते-घुमड़ते देखते हैं। वे शरीर की अन्तिम विदाई में इस महानद का श्रवण करते हैं, महा सत्य का साक्षात्कार करते हैं। उनके मृत्यु काल में जैन दर्शन का ‘सल्लेखना’ शब्द घटित होता है, प्रकट होता है।
सत् और लेखना से बने-बुने सल्लेखना का अर्थ ही है- अच्छाई का लेखा-जोखा करना। और अच्छा कर गुजरने का उद्दाम विश्वास एवं संकल्प करना। अन्तिम बेला में जब यह महासंकल्प घनीभूत हो जाता है तो उस व्यक्ति के लिए मृत्यु महापर्व बन जाती है और वह ‘वासाँसि जीर्णानी यथाविहाय’ के आत्मविश्वास से लवरेज होकर जीर्ण शरीर को छोड़ने-त्यागने का मोह-शोक नहीं करना और निर्द्वन्द्व भाव से नूतन तापसी जीवन की तैयारी करने लगता है। इस प्रक्रिया को निष्प्रतीकार मरण कहा जाता है। जब शरीर आत्मा के अनुकूल नहीं रह जाता, उसके महत् कार्यों को सम्पन्न करने हेतु अयोग्य एवं असमर्थ हो जाता है तो उसे प्रसन्न-प्रशान्त भाव से मृत्यु देवता को सुपुर्द कर नये परिवेश में नये सिरे से जीवन की सम्भावना तलाशी जाती है। यही महामृत्यु और नवजन्म का मर्म है।
ऐसा आदर्श देहत्याग सुगति-श्रेष्ठगति का प्रतीक है जिससे भावी जीवन में निश्चय ही सत्य और पवित्रता का समन्वय होता है। अतः जैन आम्नाय में प्रतिदिन भावपूर्ण भावना की जाती है कि हे भगवान्! मुझे बोधि की प्राप्ति हो। यहाँ बोधि का तात्पर्य सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र से है। हे भगवान्! मेरा सुगति में गमन हो, ताकि वीतरागी परम गुरु का एवं आत्मतत्त्व का समागम नित-निरन्तर बना रहे। हे भगवान्! मेरा समाधिपूर्वक मरण हो। मरण क्षण में मेरे चित्त में किसी व्यक्ति का मोह, पदार्थ का लोभ एवं वासना का आकर्षण न हो। मैं मरण भय से निर्भय रहूँ, आदर्शों पर अटल रहूँ, मन एकमेव तुम्हारे चिंतन में डूबा रहे, हृदय का प्रत्येक स्पंदन एक तुम्हारे लिये ही स्पंदित होता रहे। ‘तत्त्वमसि’ अर्थात् मैं तुम्हारा ही अविनाशी अंश हूँ और तुम्हीं में समाकर, विसर्जित-विलय होकर पूर्णता की प्राप्ति करने के महाभाव में स्थिर रह सकूँ।
बिखर जाता है। अतः उन्हें इस मरणधर्मा देह के मरण पर तनिक भी शोक व दुःख नहीं होता है बल्कि अपार प्रसन्नता होती है कि देह के सीमित सीमाँकन से छुटकारा तो मिला। 206 हड्डियों, 72 हजार नाड़ियों एवं अरबों-खरबों कोशिकाओं के इस देह में आबद्ध चैतन्य मुक्त आत्मा को महामुक्ति का आस्वाद तो मिला। ये जीवन मुक्त आत्मायें होती हैं जो शरीर को तिनके के समान उतार फेंकती हैं। साक्षात् मौत इनके सामने करबद्ध निवेदित रहती है।
आत्मा के अनन्त सौंदर्य में जीने वाला, उसके अनगिन आयामों में रमण करने वाला महायोगी स्वयं को नरभक्षी शेर के चबाते, पैने दाढ़ों के बीच पाकर भी भयाक्रान्त नहीं होता है। वह कहता है-मैं तो अजेय-अमर आत्मा हूँ, शरीर का भक्षण हो सकता है, आत्मा का नहीं। मृत्यु दूत काल सर्प से वह डरता नहीं, वह उसे आमंत्रित करता है कि महाप्रभु ही उसे इस शरीर से मुक्ति एवं मोक्ष प्रदान करने आये हैं। इस देहातीत दिव्य भाव एवं महाभाव में जीना असम्भव नहीं है। दुर्धर्ष संकल्प बल से स्वयं को देही नहीं देहातीत आत्मा का स्वरूप मानने पर यह सम्भव एवं सरल हो सकता है। और जो आत्मा के धरातल पर जीता है उसके लिए जन्म कैसा? जीवन कैसा? और मृत्यु कैसी? समस्त समस्यायें तो इस देहाभाव में है,जो देह से परे है उसके लिए क्या जन्म और क्या मृत्यु ?
आत्मा का अमृतपान करने वाला भला इस कसैली देह से क्या स्वाद लेगा। कसैला स्वाद तो उसे अमृततुल्य लग सकता है जिसने अमृत चखा नहीं, उसका स्वाद जाना नहीं। इस नश्वर शरीर को अनश्वर-अमर मानने की महा भूल करने वाला ही इसे छोड़ने-त्यागने के लिए चीख पुकार करता है। मृत्यु उसे महादण्ड नारकीय पीड़ा के समान प्रतीत होती है। क्योंकि देह को सजाने, सँवारने, इन्द्रियों को तुष्ट-पुष्ट करने के लिए वह विषय-वासना के महागर्त में पड़ा कीड़ों सा कुलबुलाता रहता है। ऐसे नारकीय जीवन को गीता गायक भगवान् श्रीकृष्ण ने हेय एवं घृणित माना है। वह कहते हैं जिसका जीवन इसके ठीक विपरीत आत्मविश्वास और सदाचार से सुशोभित होता है, उन यशस्वीजनों को कभी मरण का भय या शोक नहीं सताता। वह उद्घोष करते हैं-’नास्ति येषाँ यशः काये जरा मरणजं मयम्’।
सुखपूर्वक एवं शोक रहित मृत्यु वरण करने के लिए महामंत्र है- ‘येनानृत्तानि नोक्तानि प्रीति भेदः कृतो न च। आस्तिकः श्रद्धानश्च स सुखंमृत्युमृच्छति’। अर्थात् जिसने कभी असत्य आचरण नहीं किया हो, जिसके अन्दर ईर्ष्या-द्वेष का भाव न हो, जो आत्मा में परम विश्वासी आस्तिक हो तथा जो अच्छाइयों पर अनन्य श्रद्धा-आस्था रखता हो, वही सुखपूर्वक-शान्तिपूर्वक ढंग से महामृत्यु को वरण कर सकता है। अतः हम भी सद्चिंतन सद्चिंतन, सदाचरण और सद्व्यवहार को उतारकर मृत्यु को माँगलिक महोत्सव के रूप में मना सकते है।