प्रार्थना की शक्ति है अमोघ

May 2003

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प्रार्थना सृष्टि की सबसे विलक्षण प्रक्रिया है एवं अपने प्रभाव में इसकी शक्ति अमोघ है। अस्तित्व के गहनतम तल से, हृदय के गुह्यतम क्षेत्र से उभरने वाली आत्मा की पुकार ही प्रार्थना के रूप में प्रकट होती है और अपनी इष्ट की परमचेतना से अपना अनन्य एकात्म सम्बन्ध स्थापित करती हुई अभीष्ट प्रयोजन को सिद्ध करती है; जिसमें सर्वोपरि है- आत्मशुद्धि, आत्मशक्ति का जागरण और अपने इष्ट की अलौकिक सत्ता से अपने घनिष्ठ सम्बन्ध की आनन्द एवं शान्तिदायक अनुभूति।

प्रार्थना में हृदय बोलता है, इसमें शब्दों की महत्ता गौण है। इसी कारण लूथर ने कहा था - ‘जिस प्रार्थना में बहुत अल्प शब्द हों, वही सर्वोत्तम प्रार्थना है।’ सच्चे हृदय से उठी प्रार्थना सीधे ईश्वर तक पहुँचती है और फलित होती है। इसीलिए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने प्रार्थना को आत्मा की आवाज, परमात्मा तक पहुँचाने वाला संदेशवाहक कहा है। किन्तु यह पुकार शुद्ध एवं पवित्र अन्तःकरण से उभरनी चाहिए। अतः प्रार्थना मात्र सदाचारी एवं कर्त्तव्यपरायण की ही फलित होती है, क्योंकि होमर के शब्दों में - जो ईश्वर की बात मानता है, ईश्वर भी उनकी ही सुनता है। इसी कारण संत मैकेरियस ने ठीक ही कहा है कि जिसकी आत्मा शुद्ध व पवित्र होती है, वही प्रार्थना कर सकता है। क्योंकि अशुद्ध हृदय से वह पुकार ही नहीं उठेगी जो परमात्मा तक पहुँच सके, क्योंकि ऐसे में खाली जिह्वा बोलती है और हृदय कुछ कह ही नहीं पाता तथा ब्रुक्स के शब्दों में यदि हृदय मूक है तो ईश्वर भी बहरा ही होगा।

अहंकार और संकीर्ण स्वार्थ में लिप्त भावहीन हृदय से उठने वाली पुकार प्रायः याचना एवं सौदागिरी के स्तर की होती है जबकि प्रार्थना याचना नहीं, बल्कि सच्चे हृदय की पुकार होती है। पवित्र अन्तःकरण के अतिरिक्त निःसहाय अवस्था में उठने वाली पुकार भी आत्मा की गहराइयों से उठती है व अपना प्रभाव दिखाती है, किन्तु प्रार्थना का यथार्थ लाभ इसे सदैव एक सचेतन प्रक्रिया के रूप में जीवन का अभिन्न अंग बनाने में है। ऐसा प्रार्थनामय जीवन ही इस सृष्टि की सबसे सार्थक एवं उत्कृष्ट घटना सिद्ध हो सकती है।

सच्ची प्रार्थना का स्वरूप क्या होना चाहिए, आध्यात्मिक ग्रन्थों एवं महापुरुषों के उद्गार इस विषय में महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। महात्मा गाँधी के ये वचन विचारणीय है-’प्रार्थना अथवा भजन मुँह से नहीं हृदय से होती है। स्वयं की अयोग्यता, कुपात्रता या कमजोरी स्वीकार कर लेना ही प्रार्थना होती है। प्रार्थना पश्चाताप का चिह्न व प्रतीक है। यह हमें अच्छा और पवित्र बनने की प्रेरणा देती है। प्रार्थना धर्म का सार है।’ वे आगे लिखते हैं ‘प्रार्थना हमारी दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति ही नहीं, हमारे हृदय में सतत् चलने वाला अनुसंधान भी है। यह नम्रता की पुकार है। आत्मशुद्धि एवं आत्मनिरीक्षण का आह्वान है। प्रार्थना आत्मा की खुराक भी है। अपनी गन्दगी या बुराई जब तक बाहर न निकले, तब तक प्रार्थना करते रहना चाहिए।’ सच्ची प्रार्थना के मर्म का स्पर्श करते हुए हितोपदेश के वचन -’स्वयं के दुर्गुणों का चिंतन व परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही सच्ची प्रार्थना है। सत्य, क्षमा, संतोष, ज्ञानधारण, शुद्ध मन और मधुर वचन श्रेष्ठ प्रार्थना हैं।’

इस तरह नित्य प्रति की गई प्रार्थना एवं श्रेष्ठ आचार पद्धति में ही जीवन जीने की कला का मर्म छिपा हुआ है। स्वामी रामतीर्थ के अनुसार, प्रतिदिन प्रार्थना करने से अन्तःकरण पवित्र बनता है। स्वभाव में परिवर्तन आता है। हताशा व निराशा समाप्त हो उत्साह से भर जाता है और जीवन को जीने की प्रेरणा मिलती है। प्रार्थना आत्मशक्ति एवं आत्मविश्वास को जगाने का भी अचूक उपाय है। महाभारत के अनुसार ‘परमात्मा की प्रार्थना में आत्मा में निहित अन्तःशक्ति को जगा देने का दैविक बल है।’ जयशंकर के शब्दों में ‘निस्सहाय स्थिति में प्रार्थना के सिवाय कोई उपाय नहीं होता। प्रार्थना प्रातःकाल की चाबी और सायंकाल की साँकल है।’ पैगम्बर हजरत मुहम्मद के अनुसार- प्रार्थना (नमाज) धर्म का आधार व जन्नत की चाबी है।

वास्तव में प्रार्थना पारलौकिक जीवन की सिद्धि का ही नहीं इस जीवन की उत्कृष्टता एवं गुणवत्ता का भी आधार है। क्योंकि श्री अरविन्द के शब्दों में ‘यह एक ऐसी महान् क्रिया है जो मनुष्य का सम्बन्ध शक्ति के स्रोत पराचेतना से जोड़ती है। और इस आधार पर चालित जीवन की समस्वरता, सफलता एवं उत्कृष्टता वर्णनातीत होती है, जिसे अलौकिक एवं दिव्य ही कहा जा सकता है।’ इसीलिए बाइबिल में कहा गया है कि ‘हमें सदैव प्रार्थना करते रहना चाहिए और कभी भी इससे विमुख नहीं होना चाहिए।’ रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में ‘परमात्मा से किसी भी रूप में प्रार्थना करो वह निश्चित रूप से आपकी सुनेगा। वह तो एक चींटी की पग ध्वनि तक सुन सकता है। मन और वाणी एक बनकर जब ईश्वर से कुछ माँगा जाता है तो प्रार्थना तुरन्त फलती है। प्रार्थना एक प्रकार का भावनात्मक ध्यान होता है।’

इस उच्चस्तरीय आध्यात्मिक क्रिया की अपनी भावनात्मक पृष्ठभूमि है, जिसकी सही-सही समझ एवं अभ्यास प्रार्थना में निहित अद्भुत शक्ति के जागरण एवं सदुपयोग का ठोस आधार बनती है। इसे इन पाँच चरणों में समझा जा सकता है। प्रार्थना की शुरुआत अपनी अकिंचन सी, नगण्य एवं क्षुद्र स्थिति की विनम्र स्वीकृति है। साथ ही इसमें सृष्टि एवं अस्तित्व की विराट् सत्ता के प्रति एक विस्मय एवं भयमिश्रित समर्पण का भाव भी है। किन्तु साथ ही एक सुनिश्चितता का भाव भी है कि जीवन एवं सृष्टि का समूचा जटिल तंत्र उसकी नैतिक व्यवस्था के तहत गतिशील है। समूचे प्राणी व जड़ प्रकृति सभी इस सर्वव्यापी सत्ता के दिव्य अनुशासन में बँधे हुए हैं हम भी इस विराट् व्यवस्था के एक नन्हें से अंश हैं। ऐसे विनम्र भाव से की गई प्रार्थना ही ईश्वर को स्वीकार होती है। इसी संदर्भ में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्द-

हृदय नम्र होता नहीं जिस नमाज के साथ। ग्रहण नहीं करता कभी उसको त्रिभुवन नाथ।

प्रार्थना में विनम्रता के साथ दूसरा भाव आत्म सजगता का है। ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ के रूप में हम उस दिव्य सत्ता से अखण्ड रूप से जुड़े हुए हैं। इस रूप में अपने यथार्थ स्व के प्रति सजगता प्रार्थना का दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण है। यह हमें जकड़ने वाले तमाम तरह के वैचारिक एवं क्रियागत अनुबन्धों से मुक्त करता है। हम देह के धरातल से नहीं, आत्मा के धरातल से प्रार्थना करते हैं। दिव्यसत्ता के पवित्रतम एवं अजर-अमर अंश के आधार से उठे प्रार्थना के भाव हमें भय, अनिश्चितता और विषाद के नकारात्मक भावों से मुक्त करते हैं। नित्यप्रति प्रार्थना की यह भावभूमि हमें दैनन्दिन जीवन के उद्वेग एवं चिंता जन्य तनाव से बहुत कुछ राहत दिलाती है।

तीसरा, प्रार्थना में कल्पना का उपयोग है। दिव्यता से स्वयं को जोड़ने में हम कल्पना का प्रभावी उपयोग कर सकते हैं। परम सत्ता के दिव्य तेज की दिव्य चिंगारी के रूप में हम अपना बोध, एक तेजस्वी, पापरहित, देवस्वरूप, आनन्दमयी एवं चैतन्य आत्मज्योति के रूप में कर सकते हैं। दैनन्दिन जीवन में इन भावों का संकल्पपूर्ण निर्वाह करने से हम इन्हें और दृढ़ एवं जीवन्त बना सकते हैं।

चौथा, प्रार्थना में उत्साह एवं आनन्द का भाव है। प्रार्थना कोई याँत्रिक क्रिया नहीं है। इसमें हमारा समूचा अस्तित्व अपने गहनतम स्तर से सक्रिय होता है। यह हमारी क्षुद्रता एवं अपूर्णता की तमाम सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए पूर्णता के असीम एवं अखण्ड साम्राज्य में एक दुस्साहसपूर्ण उड़ान है, । अपने क्षुद्र अस्तित्व की विराट् के प्रति समर्पण, विसर्जन एवं विलय की प्रक्रिया प्रार्थना के ही इन गहन क्षणों की एक घटना है, जिसमें अपने दिव्य स्रोत के सुमिरन, भजन व भाव लोक में उससे एकाकार होने की अनुभूति से हृदय में आनन्द के मेघ उमड़-घुमड़ उठते हैं। अपने प्रभु से जुड़ने वाले दिव्य सूत्रों के बोध से हृदय में ऊर्जा के स्रोत फूट पड़ते हैं। ये सब विनम्र, सजग एवं समर्पण भाव से की गई प्रार्थना की फलश्रुतियाँ हैं।

प्रार्थना का पाँचवा चरण, प्रार्थना में निहित परमार्थ भाव है। सच्ची प्रार्थना कभी अपने लिए भर नहीं होती, बल्कि समूची मानवता के लिए होती है। यह वह आध्यात्मिक शक्ति है जो हमें समस्त प्राणियों से शक्तिशाली और निर्बल, मासूम और दुष्ट, पुण्यात्मा और पापात्मा, सबसे जोड़ती है। यह प्रार्थना ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया....’ के भाव से ओतप्रोत रहती है। भगवद् गीता में इसी स्थिति में की गई प्रार्थना के विषय में कहा गया है -’मैं भगवान् के पास से अष्टसिद्धि या मोक्ष की कामना नहीं करता हूँ। मेरी तो एक ही प्रार्थना है कि सभी प्राणियों का हृदय स्थिर रहे और मैं सब दुःखों को सहन करूं।’ इसी तरह स्वामी विवेकानन्द का मत था कि ‘प्रार्थना से कुछ माँगना है तो यही माँगना चाहिए कि किसी का बुरा न हो। विध्वंसकारी फल मत माँगना। इसकी बजाय सभी के मंगल एवं कल्याण की भावना रखना।’

ऐसे ही भद्र भावों को व्यक्त करता यह प्रार्थना सूत्र मनन योग्य है-

‘शिवमस्तु सर्व जगतः, परहित निरता भवन्तु भूतगणाः। दोषाः प्रयान्तु नाशं, सवत्र सुखी भवतु लोकाः॥’

अर्थात् अखिल विश्व का कल्याण हो, प्राणी-समूह परोपकार में तत्पर बने, दोष, दुख व रोग आदि का नाश हो और सर्वत्र सभी सुखी हो।

यही भाव, उपरोक्त वर्णित प्रार्थना के विविध चरणों का चरमोत्कर्ष है। इन भावों के साथ की गई प्रार्थना निश्चित ही फलदायी होगी। यह जहाँ हृदय को पवित्र व निर्मल करने वाली है, वहीं दूसरों को भी सद्भाव एवं सद्प्रेरणा देने वाली है। इसमें जहाँ आत्मशक्ति के जागरण का मर्म छिपा है वहीं ईश्वर से एकाकार होने की क्षमता भी निहित है। ऐसी ही प्रार्थना में दूसरों के जख्मों को भरने व टूटे हृदयों को जोड़ने की क्षमता होती है और व्यक्तिगत संदर्भ में श्रीमाँ के अनुसार, -’ऐसी प्रार्थना से क्रमशः जीवन का क्षितिज सुस्पष्ट होने लगता है, जीवन का पथ आलोकित होने लगता है और हम अपनी असीम सम्भावनाओं एवं उज्ज्वल नियति के प्रति अधिकाधिक आश्वस्त होते जाते हैं।’ प्रार्थना से ओत−प्रोत ऐसे जीवन में ही यथार्थ सुख-शान्ति एवं आनन्द का रहस्य छिपा है।


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