गुरुकथामृत—43 - लोकशिक्षण करने वाली आत्मीयता से भरी कार्यशैली

May 2003

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महापुरुषों के जीवन की कार्यशैली बड़ी विलक्षण होती है। वे अपने आचरण से शिक्षण भी देते हैं एवं स्वयं भी वातावरण से शिक्षण पाते रहते हैं। सद्गुरु तो शिक्षण लेने का नाटक भी कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें लोकशिक्षण करने क लिए उनके धरातल पर आकर कार्य करना होता है, परंतु इनकी यह कार्यशैली जन−जन के लिए एक किताब बन जाती है। हमारे सद्गुरु परमपूज्य पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का जीवन भी इसी प्रकार का रहा है। उनके हाथ के लिखे पत्र हम पाठकों−परिजनों के लिए इसीलिए प्रस्तुत करते रहे हैं कि वे इनसे कुछ सीख ले सकें। गुरु को इस रूप में जानने पर उनके बहुआयामी व्यक्ति त्व का परिचय हमें मिलता है। यहाँ इसी के प्रमाण रूप में कुछ पत्र प्रस्तुत हैं। पहला पत्र शिवसागर (आसाम) से 27−12−1961 को लिखा गया प्रस्तुत है, जो वहाँ की स्थिति का परिचायक है। गुरुदेव की लेखनी से यह जानने के बाद लगता है कि कितना सही उनका तब का मूल्याँकन रहा होगा। पत्र इस प्रकार है—

चि. रमन, आशीर्वाद, स्नेह

हमारे पत्र पहंचते रहे होंगे। हमारे तूफानी दौरे में इस बार भाग−दौड़ बहुत है। यज्ञ और सम्मेलन तो तिनसुकिया, दुमदुमा, सफराई, शिवसागर चार ही थे, पर दौरे बहुत थे। नेफा, नागालैंड प्रदेशों में इन दिनों बहुत घूमें हैं। यहाँ की परिस्थितियाँ ऐसी हैं जो अपने यहाँ से बिल्कुल भिन्न हैं। लगता है किसी और देश में रह रहे हैं। गधों की तरह भार ढोने वाले गाँव−गाँव में हाथियों के टोले, सघन वन, गैंडे, हाथी, रीछ, लंगूर और हिरन को दौड़कर पकड़ लेने और जिंदा निगल जाने वाले अजगर यहाँ पग−पग पर भरे पड़े हैं। इन्हें देखकर अचरज और भय होता है। तेल से मिला पानी मुँह में नहीं घुसता। योरोप में जैसे बीयर पीते रहते हैं वैसे ही हम लोग किसी प्रकार चाय से प्यास बुझाते हैं। अन्य प्राँतों के लोग भी बहुत हैं, ये हिंदी जानते हैं। आसाम निवासियों को केवल अपनी ही भाषा आती है। उनके साथ संपर्क में दुभाषियों से ही काम चलता है। गरीबी है, पर साहसी, संतोषी और स्वस्थ मनुष्य हैं।

यह समस्याओं से भरा प्राँत है−

सौ वर्षों से ईसाई मिशनों ने 70 फीसदी आदिवासियों को अपने धर्म में दीक्षित कर लिया है। वे अपने को हिंदुस्तानी भी नहीं मानते। (2) मुसलमानों की आबादी 46 फीसदी पहुँच चुकी है। ईसाई और मुसलमान संयुक्त मोरचा बना लें तो मुश्किल खड़ी हो जाए। (3) तेल और चाय की विपुल संपदा पर विदेशियों का दाँत। (4) शत्रु पाकिस्तान और चीन के नितनए षड्यंत्र। (5) गरम सीमाएँ। (6) भारत सरकार की ढिल−मिल नीति। (7) व्यापार के लिए यहाँ आए संपन्न अन्य प्राँतवासियों की इस प्राँत की प्रगति में सहयोग देने की उपेक्षा। (8) गरीबी, अशिक्षा और बेकारी से पीड़ित जनता आदि−आदि अनेक समस्याओं से भरा यह प्राँत है। हिंदू धर्म का ढोल पीटने वालों में से एक भी आदमी इस वन्यप्रदेश में काम करने के लिए जीवन खपा देने वाला इधर नहीं है। हाथ में लेख भाषण और प्रपंच−प्रचार को ही शूरता मान बैठे हैं। त्याग और बलिदान के लिए कौन आगे बढ़े?

लगता है हमें इस प्रदेश पर भी अधिक ध्यान देना पड़ेगा। इसी दृष्टि से आजकल यहाँ गहरा अध्ययन कर रहे हैं ........कुछ रचनात्मक काम करने की व्यवस्था बनाकर रहेंगे।

चि. रमन उपशीर्षक डडडड

हमारे पत्र पहुँचते रहे होंगे। हमारे तूफानी दौर में इस डडडडड वस्तु है। डडडड सम्मेलन तो डडडड हुआ, सफाई, डडडड चले ही थे। पर डडडड बहुत थे। नेफा, नागालैंड प्रदेशों डडडड बहुत दूरी है। यहाँ की डडडड होती है जो डडडड देश में रह रहे है। गधों से डडडड

59 डडडड−डडडड

पत्र अपने आप में पूर्वोत्तर की तत्कालीन स्थिति और गुरुसत्ता की एक राष्ट्रभक्त लोकसेवी होने के नाते अंतः से उपजी वेदनाका प्रतीक है। वे जब लिखते हैं तो वर्णन ऐसा लगता है मानो सामने घटित हो रहा हो। किसी एक कार्यकर्त्ता को वहाँ से यह पत्र लिखकर वे मानो उसका शिक्षण कर रहे हैं, उसका आह्वान कर रहे हैं एवं अपने मन को उसके समक्ष खोल रहे हैं। इस पत्र को लिखे 34 वर्ष बीत गए। घटनाएँ पूर्वोत्तर में बद से बदतर स्थिति ला चुकी हैं। कुछ नए प्राँत बन गए। राजनीति, दुर्व्यसन व बेकारी ने युवाशक्ति को कुँद कर दिया है, नास्तिक बना दिया है, उसी समय जो विचार गुरुवर ने लिखे थे, वे सभी के लिए गहन मंथन के योग्य थे। यदि समय पर कदम उठाए जाते तो आज जैसी विषम स्थिति आसाम सहित उसकी छह बहिन स्टेट्स की न होती। चाय के बागान उजड़ चुके हैं। उग्रवादियों के गुट राजतंत्र से पोषण पाकर राष्ट्र की संपत्ति का ही नुकसान कर रहे हैं। खैर, चिंतर रचनात्मक रहा पूज्यवर का। तिनसुकिया (आसाम), जीरो (अरुणाचल) में शक्ति पीठें बनीं। ढेरों संस्कार महोत्सव हुए। अलख जगा। सिलीगुड़ी को एक केंद्र बनाया गया, ताकि वहाँ से सभी भाषाओं में साहित्य प्रकाशित हो एवं कार्यकर्त्ताओं का प्रशिक्षण हो। अब कोलकाता में 25 एकड़ भूमि में गायत्री चेतना केंद्र खुलने जा रहा है, जहाँ पश्चिम बंगाल, सिक्किम, भूटान, नेपाल, असम सहित छहों प्राँतों की साँस्कृ तिक गतिविधियों को मूल में रखकर गायत्री महाशक्ति का प्रकाश जन−जन तक पहुँचने का कार्य होगा। एक विराट प्रशिक्षण केंद्र शाँतिकुँज के मार्गदर्शन में बनकर तैयार हो जाएगा।

देरी से हुआ, पर गिलहरी समान कुछ प्रयास तो हुआ। पूज्यवर की इच्छाओं को कितने नवयुवक, युवा दुपती पूरा कर पाएँगे, मालूम नहीं, पर एक आह्वान तो हम कर ही सकते हैं, ताकि जो भी कुछ शेष है, वह बिगड़े नहीं। वनवासी कल्याण परिषद् एवं विवेकानंद केंद्र ने कुछ कार्य तो किया, पर वह काफी नहीं। वहाँ काफी संख्या में जीवनदानी−जीवनव्रती कार्यकर्त्ताओं की जरूरत होगी।

आसाम के एक पत्र के बाद अब पूज्यवर द्वारा 15 12−66 को श्री रणसिंह (आँवलखेड़ा, आगरा) को लिखे गए पत्र की ओर चलते हैं, जो व्यवस्थाबुद्धि का प्रशिक्षण हमें देता है। श्री रणसिंह माता दानकुँवरि इंटर कॉलेज, आँवलखेड़ा के मुख्य प्रबंधक थे। अब तो वे रहे नहीं, पर समय−समय पर उन्हें पूज्यवर का मार्गदर्शन सतत मिलता रहा। पूज्यवर लिखते हैं—

चि. रणसिंह, आशीर्वाद

पत्र मिला। स्थिति को जाना। हमारे सामने एकमात्र स्वार्थ विद्यालय का हित होना चाहिए। इसके लिए किसी भी व्यक्ति का ख्याल नहीं करना चाहिए। चाहे विरोध मोल लेना पड़े, चाहे प्रशंसा सुननी पड़े, इसका रत्तीभर भी ख्याल नहीं करना चाहिए। व्यक्ति गत मित्रता, शत्रुता को भी इसमें आड़े नहीं आने देना चाहिए। ऐसी रीति−नीति रखी जा सकी तो ही आप अपनी इस उपयोगी संस्था को जीवित रख सकेंगे।

आपके द्वारा विद्यालय के सुधार में जो दिलचस्पीर ली जा रही है, उससे हमें बड़ा संतोष, उत्साह और आनंद मिलता है। संस्थाओं का काम सात−पाँच का होने से बड़ा टेड़ा−मेड़ा होता है। इसमें युक्ति यों से ही काम लेना पड़ता है। आप लोगों की शिक्षा तथा सद्भावना का उपयोग यदि पूरी तरह होता रहा तो वर्तमान अड़चनें उत्पन्न कर देने वालों पर विजय प्राप्त कर लेना निश्चित

हिसाब हर महीने प्रबंधक तथा कोषाध्यक्ष के हाथों चला जाना चाहिए। अध्यापकों के हाथ में वह रहेगा तो कठिनाइयाँ ही उत्पन्न होंगी। अब ऐसी व्यवस्था बनाएँ कि हिसाब हर हालत में अधिकारी व्यक्ति के हाथ में ही पहुँचा करे।

डडडड−−−−डडडड

कितना स्पष्ट व सटीक मार्गदर्शन है। किसी संस्था का संचालन कैसे होना चाहिए, नीतिमत्ता, सूझ−बूझ का ध्यान रख कुशलतापूर्वक प्रबंधन किस प्रकार किया जाना है, इस पर स्पष्ट चिंतन है। परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी भूमिदान देकर यह इंटर कॉलेज बनवाया था एवं एक ही शर्त रखी थी, नाम उनकी माता का होगा। स्वयं को प्रबंधन मंडल में भी नहीं रखा, पर समय−समय पर व्यवस्था संबंधी मार्गदर्शन सतत देते रहे। कोई भी प्रबंधन कला के गुर−स्वस्थ सूत्र इस पत्र से सीख सकता है। विद्यालय का हित अपना एकमात्र स्वार्थ बने, यह कितना नीतिपूर्ण विचार है, देखा जा सकता है।

अगला पत्र सरगुजा बैकुँठपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़) के श्री बिजेंद्र लाल गुप्ता, एडवोकेट को 31−12−53 को लिखा गया है। यह भी अपने आप में निराला व हम सभी के लिए मार्गदर्शक है। देखें−

हमारे आत्मस्वरूप,

युग निर्माण योजना को व्यापक बनाने के लिए अखण्ड ज्योति का प्रसार आवश्यक है। इस दिशा में आप जो प्रयत्न कर रहें हैं, निश्चय ही उससे इस विचारधारा को सुनिश्चित बनाने में बहुत सफलता मिलेगी।

सुशिक्षित वर्ग इस ओर आकर्षित होगा तो उनके सत्प्रयत्नों से राष्ट्र का नवनिर्माण अधिक तीव्रगति से संभव होगा। आपने उच्चस्तर के लोगों तक इस विचारधारा को पहुँचाने का जो क्रम बनाया है, वह बहुत ही उपयुक्त है।

उस क्षेत्र में एक चुनाव जैसा दौरा करने का प्रयत्न सुविधानुसार समय निकालकर आरंभ कर दें। हम लोगों को आगे बहुत महत्वपूर्ण कार्य करने हैं। इसलिए अपना संपर्क और प्रभावक्षेत्र अखण्ड ज्योति के माध्यम से बढ़ाना ही पड़ेगा।

डडडड----डडडड

स्पष्ट निर्देश है कि प्रबुद्ध वर्ग में श्री बिजेंद्रलाल जी अखण्ड ज्योति को आधार बनाकर पैठ बनाएँ। चूँकि वे विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके थे। उनको लिखा भी इसी तरह गया है, चुनावों जैसा दौर सुशिक्षित वर्ग को प्रभावित करने के लिए वे करें। संभवतः गुरु सत्ता के उन्हीं स्वप्नों को साकार करने के लिए ‘प्रज्ञा परिषद्’ की अवधारणा हुई है तथा अब तेजी से प्रबुद्ध वर्ग का तबका देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के कार्य में एकजुट होता दिखाई देगा।


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