परोपकाररत रहना ही सर्वश्रेष्ठ (kahani)

May 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक राजा के चार मंत्री थे। उनमें से तीन तो थे चापलूस, चौथा था दूरदर्शी और स्पष्ट वक्त ।

राजा का निधन हुआ तो पहले मंत्री ने बहुमूल्य पत्थरों का स्मारक बनवाया। दूसरे ने उसमें मणि-मुक्त जड़वाए। तीसरे ने सोने के दीपक जलवाए। सभी ने उनकी स्वामिभक्ति को सराहा।

चौथे मंत्री ने उस स्मारक के आस-पास घना बगीचा लगवा दिया।

तीनों की राशि बेकार चली गई। चोर चुरा ले गए, पर चौथे का बगीचा फल देता रहा, मालियों के कुटुँब पलते रहे और राहगीरों को विश्राम करने तथा बनाने वाले का इतिहास पूछने का अवसर मिलता रहा।

सत्प्रवृत्तियों का अभ्यास कहीं भी करते हुए, व्यक्ति अपना व दूसरों का हितसाधन कैसे कर सकता है?

इसका बड़ा सुँदर उदाहरण स्कंद पुराण की एक कथा में मिलता है।

एक बार कात्यायन ने देवर्षि नारद से पूछा, “भगवन्, आत्मकल्याण के लिए विभिन्न शास्त्रों में विभिन्न उपाय-उपचार बताए हैं। गुरुजन भी अपनी-अपनी मति के अनुसार कितने ही साधन-विधानों के माहात्म्य बतलाते हैं। जप, तप, त्याग, वैराग्य, योग, ज्ञान, स्वाध्याय, तीर्थ, व्रत, ध्यान-धारण, समाधि आदि के अनेक उपायों में से सभी का कर सकना, एक के लिए संभव नहीं। फिर सामान्यजन यह भी निर्णय नहीं कर सकते, इनमें से किसे चुना जाए? कृपया आप ही मेरा समाधान करें कि सर्वसुलभ और सुनिश्चित मार्ग क्या है? अनेक मार्गों के भटकाव से निकालकर मुझे सरल अवलंबन का निर्देश दीजिए।”

उत्तर देते हुए नारद ने कात्यायन से कहा, “हे मुनिश्रेष्ठ, सद्ज्ञान और भक्ति का एक ही लक्ष्य है कि मनुष्य सत्कर्मों में प्रवृत्त हो। स्वयं संयमी रहे और अपनी सामर्थ्य को, इन गिरों को उठाने और उठों को उछालने में नियोजित करे। सत्प्रवृत्तियाँ ही सच्ची देवियाँ हैं, जिन्हें, जो, जितनी श्रद्धा के साथ सींचता है, वह उतनी ही विभूतियाँ अर्जित करता है। आत्मकल्याण और विश्वकल्याण की समन्वित साधना करने के लिए परोपकाररत रहना ही सर्वश्रेष्ठ है, चाहे व्यक्ति किसी भी आश्रम में हो।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles