टीवी आज शहरी ही नहीं ग्रामीण बच्चों के भी जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है। बच्चों की टीवी के प्रति बढ़ती दीवानगी आज प्रायः हर घर की कहानी है। दिन भर टीवी पर आँखें गड़ाये रहना और टीवी से चिपके रहना उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग बनती जा रही है। आज के बच्चों के इस टीवी प्रेम के दुष्परिणाम भी प्रत्यक्ष हैं। बच्चों के स्वास्थ्य एवं कोमल मानस पटल पर पड़ रहे इसके गम्भीर दुष्परिणाम विश्व भर के विज्ञजनों के लिए भारी चिन्ता का विषय बने हुए हैं।
प्रसिद्ध विशेषज्ञों एवं मनोचिकित्सकों के अनुसार, ‘बहुत नजदीक से या देर तक टीवी देखने से बच्चों में मिरगी, चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, तनाव तथा मोटापा जैसी विकृतियाँ पैदा हो जाती हैं। टीवी का नशा उनके सारे जीवन पर छा जाता है और गम्भीर दुष्प्रभाव डालता है। टीवी से उत्सर्जित होने वाली विशेष घातक किरणें बच्चों के मस्तिष्क की कोमल प्रकाश संवेदी कोशिकाओं पर गहरा असर डालती हैं और कई तरह की जैविकीय विकृतियों को जन्म देती हैं। अतः इन खतरों से बचने के लिए बच्चों को चाहिए कि टीवी देखते समय विशेष सावधानी बरतें और कम से कम समय टीवी के साथ बितायें।’
विशेषज्ञों का यह चेतावनी एवं सुझाव भरा परामर्श ठोस तथ्यों पर आधारित है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में तीन लाख लोग लगातार टीवी देखने से मिरगी के शिकार हुए हैं। जबकि पश्चिमी देशों में टीवी देखने से मिरगी रोग होने के आँकड़े तो और भी गम्भीर हैं। भारत में ऐसे मामले उपग्रह चैनलों के उभर आने के बाद से प्रकाश में आने लगे हैं। इससे पहले बच्चों की पसन्द के कार्यक्रम कम ही होते थे, साथ ही दूरदर्शन में देर रात के कार्यक्रम रात ग्यारह बजे तक ही होते थे। अतः बच्चे हर वक्त टीवी के साथ चिपके नहीं रहते थे। उपग्रह चैनलों के उभरने से टेलीविजन पर रात-रात भर कार्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं, जिससे बच्चे चैनल बदल-बदलकर देर रात तक मनपसन्द कार्यक्रम देखते रहते हैं। परिणाम स्वरूप वे अनजाने में ही घण्टों टीवी देखने से मिरगी रोग के शिकार हो रहे हैं।
विशेषज्ञों के मत में टीवी देखना स्वयं में एक नशा होता है। जिन बच्चों को इसकी लत लग जाती है, वे घण्टों टीवी देखते रहते हैं, भले ही कार्यक्रम कैसे ही क्यों न दिखाये जा रहे हों। वैज्ञानिक इसे ‘टीवी सम्मोहन’ की संज्ञा देते हैं। इस दौरान टीवी से विकरित होने वाली घातक किरणें मस्तिष्क की कार्य-प्रणाली को ठप्प कर देती है। बच्चों का दिमाग इन विकिरणों को सहन नहीं कर पाता और एक बार मस्तिष्क सुन्न हो जाता है तो आँखें टीवी के पर्दे पर टिक जाती हैं। इस तरह टीवी बच्चे को अपने सम्मोहन में ले लेता है। इसके बाद बच्चा टीवी देखता रहता है, भले ही कितना ही उबाऊ प्रोग्राम क्यों न आ रहा हो। इस स्थिति में बच्चों के कोमल मस्तिष्क की प्रकाश संवेदी कोशिकायें बहुत तीव्रता से प्रतिक्रियायें करती हैं। वीडियो गेम खेलते समय या तेजी से बदलते कार्टून फिल्मों को देखते समय यह प्रक्रिया और तीव्र होती है क्योंकि इस समय बच्चे अधिक ध्यान से देखते हैं। ऐसी स्थिति में मस्तिष्क पर पड़ने वाला अतिरिक्त दबाव मस्तिष्क के संतुलन को बिगाड़ देता है। मस्तिष्क की ऊर्जा अव्यवस्थित हो जाती है और इससे असामान्य तरल पदार्थ बहने लगता है, जो मिरगी रोग का कारण बन सकता है। ऐसी मिरगी को साइकोमोटिव अर्थात् मनोप्रेरित मिरगी के नाम से जाना जाता है। ऐसी मिरगी का पता आसानी से नहीं चलता, क्योंकि इसमें मुँह से झाग नहीं निकलता। किन्तु यदि इस बीमारी को समय रहते पकड़ लिया जाये तो इसका उपचार सम्भव है, अन्यथा बाद में यह गम्भीर रूप धारण कर लेता है।
शोध अध्ययनों से यह भी पता चला है कि मिरगी के अतिरिक्त टीवी व्यसन चिड़चिड़ापन, तनाव, अनिद्रा एवं मोटापा जैसी शारीरिक एवं मानसिक विकृतियों को भी पैदा कर रहा है। टीवी के दीवाने बच्चों को टीवी देखने से मना करने पर वे चिड़चिड़े एवं हिंसक हो उठते हैं। अत्यधिक व देर रात तक टीवी देखने के कारण वे अनिद्रा एवं तनाव के शिकार हो जाते हैं। दिनचर्या के अस्त-व्यस्त होने के कारण न तो उनका खाना सही ढंग से पच पाता है और न सही ढंग से सो पाते हैं। परिणाम स्वरूप थकान, अनिद्रा, तनाव व अवसाद उनके जीवन साथी बन जाते हैं और स्वास्थ्य को चौपट कर देते हैं।
स्वास्थ्य समस्या में मोटापा आज बच्चों के बीच उभरती हुई एक नई बीमारी है, वैज्ञानिक इसका भी कारण टीवी बता रहे हैं। टीवी की लत के कारण वे खेलकूद व व्यायाम से दूर हो गये हैं। बैठे-बैठे उनके शरीर में चर्बी इकट्ठी होती रहती है। विशेषज्ञों के अनुसार ‘दो घंटे लगातार टीवी देखने से रक्त में कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है, जिससे मोटापे के साथ-साथ हृदय रोग एवं मधुमेह की सम्भावना बढ़ जाती है।’
शारीरिक रोगों से भी गम्भीर समस्या बच्चों के अवचेतन मन पर पड़ रहे टीवी के दुष्प्रभावों की है। बच्चों का कोमल मन बिना तर्क-वितर्क किये टीवी के संप्रेषित दृश्यों व संकेतों को सही मान लेता है और उनकी नकल करता है। शीतल पेय के विज्ञापन की नकल करते हुए लखनऊ के छः वर्षीय रिंकू की मौत तथा टीवी फिल्म में किसी अभिनेत्री की आत्म हत्या के दृश्य को देखकर नौ वर्षीय पूजा की खुदकुशी आदि घटनायें यही सिद्ध करती हैं कि टीवी के दृश्यों का बच्चों के कोमल मन पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है।
इसी तरह बढ़ते बाल अपराधों में टीवी को एक प्रमुख कारण माना जा रहा है। टीवी में बेरोक-टोक परोसी जा रही हिंसा, अपराध एवं यौन कुत्सा भड़काने वाली कुत्सित सामग्री बाल मन पर कितना घातक असर डाल रही है, यह शोध से निकलने वाले आँकड़ों की जुबानी से और स्पष्ट हो जाती है। पिछले दिनों, दिल्ली में 12 हत्याओं, 16 बलात्कार, 11 अपहरण, 85 डाके, 105 चोरी व 10 दंगों के अपराधी टीवी द्वारा प्रेरित बालक एवं किशोर अभियुक्त थे। विशेषज्ञों के अनुसार हिंसक दृश्यों का प्रभाव तो इतना गहरा होता है कि कभी-कभी इनका असर 10-15 वर्ष बाद भी उजागर होता है। पिछले दिनों स्कॉटलैंड में सिरफिरों द्वारा अनायास हुई सामूहिक हत्याओं ने यह प्रमाणित कर दिया है कि यह काफी समय पहले देखी गई हिंसक फिल्मों का प्रभाव था। गत वर्षों में यूनेस्को के तत्त्वावधान में, ‘वर्ल्ड आर्गनाइजेशन ऑफ द स्काउट मूवमेन्ट’ और हालैण्ड के उत्रेख्त विश्वविद्यालय के प्रो. डॉ. जो ग्रोएवल ने संयुक्त अभियान के अंतर्गत इस संदर्भ में एक व्यापक शोध किया था, जिसमें 23 देशों के पाँच हजार बच्चों को शामिल किया गया था और यह जानने का प्रयास किया गया कि मीडिया खासकर टीवी में प्रदर्शित की जाने वाली हिंसा का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता है।
इस अध्ययन से जो निष्कर्ष आये, वे चौंकाने वाले थे, व टीवी के बढ़ते दुष्प्रभावों के प्रति चिंता जताने वाले थे। अध्ययन में शामिल 93 प्रतिशत बच्चों के लिए टेलीविजन जानकारी एवं मनोरंजन देने वाला सबसे शक्तिशाली माध्यम बन चुका है। रेडियो और पुस्तकें अब इतनी प्रभावशाली नहीं रही हैं। इस अध्ययन से यह तथ्य भी उभर कर आया कि विश्व भर के बच्चे दिन में लगभग तीन घण्टे टीवी देखते हैं। अर्थात् स्कूल के बाहर उनका सबसे अधिक समय टीवी के साथ बीतता है। जबकि शेष कार्यों में -होमवर्क के लिए दो घण्टे, परिवार के काम के लिए सत्तर मिनट, खेलकूद के लिए डेढ़ घण्टा, दोस्तों के साथ सवा घण्टा, पढ़ाई के लिए एक घण्टा, रेडियो सुनने के लिए एक घण्टा खर्च होता है। इस तरह अध्ययन के निष्कर्ष से स्पष्ट है कि इन दिनों टीवी बच्चों के जीवन पर पूरी तरह हावी हो चुका है।
टीवी का बच्चों के मानस पर कितना सशक्त प्रभाव पड़ रहा है, यह उनसे पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों से स्पष्ट होता है। जीवन में वे किस तरह के व्यक्ति को अपना आदर्श मानते हैं, तो तीस प्रतिशत बच्चों ने ‘ऐक्शन हीरो’ को अपना आदर्श बताया। लड़कियों में 21 प्रतिशत ने इसे अपना आदर्श माना। इसके बाद उन्नीस प्रतिशत ने पॉप स्टार और संगीतज्ञों को अपना आदर्श माना। इसके बाद आठ प्रतिशत ने किसी धार्मिक नेता को, सात प्रतिशत ने सैनिक नेता को और तीन प्रतिशत ने राजनेता को अपना आदर्श माना।
शोध से यह भी निष्कर्ष निकले कि टीवी द्वारा हिंसा का प्रस्तुतीकरण हर देश में बढ़ा-चढ़ाकर महिमा मण्डित रूप से किया जाता है। अध्ययन के अनुसार अधिकतर देशों में एक घण्टे टीवी कार्यक्रम में औसतन पाँच से दस तक हिंसक दृश्य होते हैं, जिससे विश्व भर में एक आक्रामक संस्कृति विकसित हो रही है। हिंसा को स्वाभाविक चीज दिखाया जाता है और आक्रामक कार्यों को सुनियोजित ढंग से बढ़ावा दिया जाता है, लेकिन जीवन की समस्याओं के समाधान में गैर-आक्रामक तरीकों पर जोर नहीं दिया जाता है। इस तरह टीवी द्वारा हिंसा को प्रोत्साहित करने का खतरा बढ़ता जा रहा है, जिसके दुष्परिणाम प्रत्यक्ष है। शोध अध्ययन के अनुसार इनके दूरगामी परिणाम कुछ इस तरह की प्रवृत्तियों के रूप में प्रकट हो सकते हैं, जैसे- आक्रामक प्रवृत्तियों का जन्म लेना, हिंसा को उचित ठहराना, अपराधी के प्रति कोई उपेक्षा न दिखाना, बल्कि आपराधिक कार्यों एवं अपराधियों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन और शरण देना, हिंसात्मक घटनाओं को भड़काने में सहयोगी बनना आदि।
रिपोर्ट में विश्वभर के अभिभावकों और शिक्षाविदों का आह्वान किया गया है कि वे बच्चों का बचपन हजम कर जाने वाले टीवी पर अंकुश लगाने के लिए आगे आयें और सार्थक उपाय करें। इसके लिए शोधकर्त्ताओं के अनुसार टीवी जैसे संचार माध्यमों पर भी उतना ही ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है जितना कि शिक्षा और संस्कृति पर दिया जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि निर्माताओं, अभिभावकों, शिक्षाशास्त्रियों, राजनेताओं और सक्रिय उपभोक्ताओं के बीच सार्वजनिक बहस और संवाद हो। मीडिया के पेशेवर लोगों के लिए आचार संहिता बनाई जाये और वे इसकी सीमाओं में स्वस्थ एवं सुरुचिपूर्ण कार्यक्रम बनायें। लोगों को भी इस विषय में शिक्षित किया जाये, जिससे कि वे टीवी द्वारा परोसी जा रही अवाँछनीय एवं आपत्तिजनक सामग्री की आलोचना एवं विरोध कर सके और उत्कृष्ट कार्यक्रमों के लिए दबाव डाल सकें।
इसके साथ ही अभिभावकों का भी कर्त्तव्य बनता है कि वे विशेषज्ञों की राय को मानते हुए, अपने बच्चों को टीवी के सामने कम से कम समय तक ही टिकने दें व कुछ चुनिंदा कार्यक्रमों को ही देखने की छूट दें। बाल रोग विशेषज्ञों की भी यह सलाह है कि बच्चों के टीवी दर्शन का समय एक-दो घण्टे प्रतिदिन से अधिक न होने दें। एक बार में आधे घण्टे से अधिक टीवी न देखें। सम्भव हो तो बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए आँखें बन्दकर लिया करें। टीवी को छः फीट से कम दूरी से न देखें तथा कम से कम समय तक देखें। मेरुदण्ड सीधी रखें व लेटकर कभी भी टीवी न देखें। वीडियो गेम व तेजी से बदलने वाले दृश्यों से बचें। भोजन करते समय टीवी न देखें, क्योंकि इससे पाचन, सम्बन्धी विकारों, जैसे- कब्ज, अल्सर, मधुमेह आदि होने का डर रहता है। इस तरह टीवी से होने वाले खतरों के घातक परिणामों से बचने के लिए अभिभावकों का दायित्त्व अधिक गुरुत्तर है। यदि वे सजगता पूर्वक इसका निर्वाह कर सके, तो नौनिहालों को उनके स्वास्थ्य, संतुलन एवं चरित्र को लीलने वाले टीवी के घातक दुष्प्रभावों से एक सीमा तक सुरक्षित रखा जा सकता है।