आत्मा की अक्षय अभिव्यक्ति —प्रेम

May 2003

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प्रेम आत्मा का प्रस्फुटन है, परम सौंदर्य है। प्रेम परमात्मा का अनन्त अनुदान है। यह दिव्य वरदान सभी को समान रूप से मिला हुआ है। प्रेम रूपी अमृत कण से सभी आप्लावित हैं। अपवाद रूप में भी कोई इससे वंचित नहीं हैं। हाँ यह हो सकता है कि प्रेम की यह शीतल ज्योति किसी में कम किसी में अधिक ज्योतित हो रही है। जिसने अपनी अन्तर चेतना को जितना अधिक विकसित किया है उसमें यह उतने ही रूप में अभिव्यक्त होती है। प्रेम चैतन्य विकास की चरम-परम परिणति है, जो लहरों सी उठती-गिरती भावुकता से प्रारम्भ होकर संवेदना, भावना और करुणा के राह से बढ़ती-चलती है। हर कोई चैतन्य विकास के इस रथ पर आरुढ़ होकर प्रेम के पावन पुलकन को स्पर्श कर सकता है, डुबकी लगा सकता है।

प्रेम एक महाभाव है, दिव्य भाव है। प्रेम आत्मा की अक्षय अभिव्यक्ति है। प्रेम आत्मा के धरातल पर ही सम्भव है। जहाँ प्रेम है वहाँ स्वयं परमात्मा का आवास होता है। प्रेम देहातीत होता है, मनोतीत होता है। देह से प्रेम नहीं होता है। देह से वासना हो सकती है, जबकि प्रेम महावासना है, परम वासना है। मन से भी प्रेम सम्भव नहीं है। मन की पृष्ठभूमि में वैचारिक मिलन होता है। प्रेम इससे भी परे एवं पार होता है। बुद्धि के लिए भी यह अगम्य और अगोचर है। प्रेम हृदय से होता है। यह हृदय की गहराई में बसता है। यह हृदय की रागनी है। यह सजल संवेदनाओं में गूँजता है। श्रद्धासिक्त भावनाओं में निखरता है और अविराम करुणा में पल्लवित-पुष्पित होता है।

प्रेम की वाणी संगीतमय है। इसमें सदैव दिव्यनाद निनादित होता रहता है। इसकी बोली सम्मोहनकारी है। इसे बोला नहीं जा सकता। बोल में यह समा नहीं सकता। क्योंकि यह बैखरी वाणी से परे होता है। यह परा और पश्यन्ति की वाणी है, इसे बोला नहीं जा सकता, हृदय की सघन-शान्ति में अविराम मौन में ही अनुभव किया जा सकता है। यह केवल अनुभवगम्य है। अनुभवी ही अनुभव करता है कि इसका स्वाद कितना मीठा, कितना मधुर, कितना दिव्य एवं दिव्यता से भी परे हैं। प्रेम के पुजारी रामकृष्ण परमहंस प्रेम के सागर में आकण्ठ डूबे रहते थे। वे प्रेम के परम आयामों में ही विचरते रहते थे जिसे योगी समाधि सुख का नाम देते हैं। उनके अनुसार इस धरती में केवल तीन प्रेमावतरित मानव ही प्रेम की परम पराकाष्ठा तक पहुँच पाये हैं। ये हैं- राधा, चैतन्य और स्वयं रामकृष्ण परमहंस।

इन्हीं तीन प्रेमावतरित अवतारों के कारण ही यह धरती प्रेम की पुलकन को पा सकी, प्रेम के पावन आस्वाद को चख सकी। और इसी प्रेम के स्पर्श से मन एवं बुद्धि की रेगिस्तानी बंजर भूमि उपजाऊ हो सकी, भावना की हरियाली चादर ओढ़ सकी। प्रेम की कुँआरी छुअन से ही मानव के अन्दर संवेदना की सुन्दर कोपलें-कलियाँ, फूटी-करुणा के सुरभित सुमन खिले। वातावरण का कण-कण इसकी दिव्य गन्ध से महक उठा, इसके सुवास से सुवासित हो उठा। मानव जीवन प्रेम का पर्याय बन गया जहाँ ज्ञान भी प्रेमालोक में सजल एवं सचल हो गया। इसी आधारभूमि में ही भगवान् शंकराचार्य और स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव हुआ जिनमें ज्ञान और प्रेम का समान रूप से मिलन हुआ था। यही इस दिव्य मिलन का सुदृढ़ आधार व आश्रय बना। इसका एक रहस्य है प्रेम, एक ही मर्म है प्रेम।

प्रेम से रीता और रिक्त यहाँ कोई नहीं है। मानव की कोरी भावुकता में भी प्रेम के कण झिलमिलाते हैं। भले ही यह ओस की बूँदों के समान क्यों न हों। लेकिन जब यह होता है तो अप्रतिम सौंदर्य के साथ जिसे देख मोती भी सकुचा जाये। भावुकता की दशा में प्रेम की कसक भरी पुकार उभरती और विलीन होती रहती है। यह स्थायी नहीं होती। यह मोम के समान होती है जो ऊष्मा पाकर पिघलने लगती है तथा इससे दूर होते ही जमने लगती है। परन्तु जब यह स्थायित्व का आकार धारण करती है तो संवेदना बनकर सजती-सँवरती है। फिर अन्तःकरण संवेदनशील हो उठता है। उसे सम वेदना अर्थात् हर किसी की पीर व पीड़ा का अनुभव होने लगता है। और प्रतिपल-प्रतिक्षण उसे दूर करने के लिए बेचैन-व्याकुल रहता है।

संवेदना कुछ नहीं भावुकता की ही परिष्कृत एवं विकसित अवस्था है। इसकी पहचान है संकीर्णता बिखरी। इसकी विशेषता है मैं-पन विलीन-विसर्जित हुआ। जब तक अन्धकार कोठरी का द्वार नहीं खुलेगा, वातायन नहीं टूटेगा, सूर्यालोक कैसे आलोकित हो सकेगा। इसी प्रकार अन्तःकरण की तंग संकीर्णता के बिखरते ही संवेदना नूतन आकार लेने लगती है। जिससे प्रसुप्ति का जागरण होता है, सुषुप्ति का अनावरण होता है, शक्तियों का उद्भव होता है। संवेदनशील हृदय में यह जागरण-अनावरण दो शक्तियों के रूप में होता है। पहली विभूति और शक्ति है सर्वस्व उत्सर्ग का साहस, सर्वस्व समर्पण की उदात्त जिजीविषा। यह सर्वमेध यज्ञ का प्रथम आहुति होना स्वीकारता है। यह दीपक की प्रज्वलित लौ में पतंगें के समान आत्माहुति देना पसन्द करना है। दूसरी शक्ति का अनावरण सहिष्णुता के रूप में होती है, जो हर उपद्रवों, व्यंग्य बाणों, कुटिल कटाक्षों को मुस्कराते हुए सुन-सह लेते हैं और अपने लक्ष्य में निरत रहने में अटल आस्था रखता है।

प्रेम की यह संवेदनशील धारा विकास के नूतन आयामों को पाकर भावना के रूप में प्रस्फुटित होती है। भावना संवेदनशीलता का विकसित स्वरूप है जिसमें एक गहरा स्थायित्व पनपने लगता है। अन्तर की कसक एवं तीव्रता के कारण यह बोध और भी गहरा एवं गम्भीर होने लगता है। इसमें एक नूतन भाव जन्म लेता है। यह नवीन भाव है-सम्बन्धों का शारीरिक धरातल से आरोहित होकर, ऊपर उठकर जीवात्मा के स्तर को स्पर्श करना। इस आयामों में आते ही सम्बन्धों का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है। समस्त शारीरिक सम्बन्ध व रिश्तों के मोहपाश तड़तड़ा कर गिरने-छूटने लगते हैं। आत्मिक भाव पनपने लगता है और आत्मिक उत्कर्ष के लिए अदम्य इच्छा, प्रबल प्रयास तथा प्रचण्ड पुरुषार्थ की त्रिवेणी बहने लगती है। ऐसी स्थिति में दिव्य माँ की ममता जन्म लेती है जिसकी शीतल छाँव तले, पुण्य आँचल में सभी को पनाह मिलती है। अतः भावना ममता बनकर पनपती है और कृतज्ञता बनकर उभरती-उफनती है।

ममता मातृत्व की धरोहर है जिसे पाकर जड़ भी चैतन्य हो उठता है तथा मानव भाव प्रवण बन जाता है। उसमें भावना की सघनता घनीभूत होने लगती है। यह सघन भाव जीवन को सदा सक्रिय, जीवन्त और जागृत बनाये रखता है। इसे भुलाया नहीं जा सकता है। यह तो रोम-रोम में, रग-रग में, कण-कण में कृतज्ञता बनकर उफनता-उबलता रहता है। भावना का यह उफान-उबाल जब असह्य हो जाता है तो बाहर फूटने लगता है, फैलने लगता है, भावना का यह विस्तार समष्टि में विस्तृत होकर अनन्त और असीम विस्तार को पाता है। भावना का भाव विकास जब व्यष्टि से समष्टि में, अणु से विभु में, जीव से जगत् में होने लगता है तब वह करुणा में परिवर्तित हो जाता है। तब वैयक्तिक भावना करुणा के रूप में चैतन्य सागर में विसर्जित-समर्पित हो जाती है।

करुणा की आभा जब अन्तःकरण में अपने स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त कर आभान्वित हो उठती है तो बुद्धत्व की उपलब्धि होती है। यह ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ भावना का पुण्य प्रकाश है। यह भाव सृष्टि के हर जड़-चैतन्य के घट में घटित होता है और सभी में अपने ही अनन्त-असीम आत्मा के प्रेमपूरित सौंदर्य को अनुभव करता है। फिर अपने से कोई पराया नहीं, कोई अलग नहीं, कोई विलग नहीं, सभी अपने होते हैं, नितान्त निजी होते हैं। इसी कारुण्य भावधारा में बहते करुणावतार तथागत बुद्ध एक क्षुद्र जीव को बचाने के लिए अपने प्राण त्यागने को तत्पर हो जाते हैं और एक नन्हीं चींटी के लिए भी करुणामूर्ति स्वामी विवेकानन्द प्राण होमने को हिचकते नहीं। करुणा की यह भावना सभी में अपने आत्म प्रेम की अभिव्यक्ति पाता है।

करुणा जब अपनी व्यापकता में सघन शान्ति, परम प्रसन्नता, गहरी एकात्मता को जन्म देती है तब उसे प्रेम कहते हैं। प्रेम चैतन्य भावधारा का प्रस्फुटित पूर्ण पुष्प है। यह कभी कुम्हलाता नहीं, अम्लान है इसकी मुस्कान। प्रेम का विकास भाव विकास का चरमोत्कर्ष-परमोत्कर्ष है। यही परम है, पूर्ण है, यही परमात्मा है। और यही हर आत्मा का एकमेव लक्ष्य है। इसी प्रेम की प्राप्ति उपलब्धि में ही जीवन की सार्थकता एवं पूर्णता है। अतः हमारे जीवन के समस्त प्रयास पुरुषार्थ इसी ओर उन्मुख होना चाहिए, प्रेम से परिप्लावित होना चाहिए, इसके चरम-परम सौंदर्य में मण्डित होना चाहिए।


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