ममता का दिव्य बंधन है, मातृ−शिशु संबंध

May 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

‘बचपन’ यह शब्द हमारे सामने नन्हें-मुन्नों की एक ऐसी तस्वीर खींचता है जिनके हृदय में निर्मलता, आँखों में कुछ भी कर गुजरने का विश्वास और क्रिया-कलापों में कुछ शरारत, तो कुछ बड़ों के लिए भी अनुकरणीय करतब। इस बचपन का अधिकाँश समय माता के इर्द-गिर्द ही घूमता है। निःसन्देह बच्चों पर माता के विचारों, भावनाओं, संस्कारों एवं क्रिया-कलापों का जितना प्रभाव पड़ता है, उतना अन्य किसी का भी नहीं।

माता और बच्चे के मध्य ममता का दैवी बन्धन ही बच्चे के जीवन की आधारशिला रखता है। माता की ममता एक सांचे की तरह है जिसमें वह अपने मन के अनुरूप अपनी संतान का निर्माण करती है, पर आज की कई माताएँ अपने संतान को अन्य बच्चों से बड़ा बनाने के जुनून में जाने-अनजाने ममता का खतरनाक खेल-खेलने में जुटी हुई हैं। अगर इस प्रवृत्ति को न रोका गया तो समाज में जल्दी ही ऐसे बच्चों की फौज खड़ी हो सकती है, जो खुशी के साथ जीने की अपनी क्षमता खो सकते हैं।

यह सत्य है कि संतान के प्रति माता के प्यार में कोई कमी नहीं आयी है। वे आज भी अपने बच्चों के भविष्य के बारे में उतनी ही चिन्तित हैं जितनी पहले की माताएँ होती थीं। परन्तु आज की त्रासदी यह है कि वे अपने ही संतान के लिए एक आतंक साबित हो रही हैं। आखिर क्यों?

आज बच्चों का लालन-पालन पत्र-पत्रिकाओं में छपी नसीहतों एवं हिदायतों के आधार पर किया जाता है। बच्चों की दिनचर्या सम्बन्धी उनके अपने विचार हैं, भले ही बच्चा उस विचार के बोझ को उठा पाने में असमर्थ हो। बच्चे को कब, क्या, कितना खिलाना है, कि भोजन तालिका के साथ दवा और टॉनिक की सूची भी उतनी ही जरूरी हो गयी है। भले ही उसकी आवश्यकता न हो। उनकी अपनी शिक्षा का स्तर चाहे जैसा भी रहा हो, दूध पीते बच्चे से भी अंग्रेजी बोलना, उनकी अनुशासन पुस्तिका का एक अनिवार्य पाठ है।

बच्चे को हर वक्त भूखा समझना और जबरदस्ती खिलाना आज एक फैशन बन चुका है। खाना न खाने पर डराने, धमकाने, मारने के कारण बच्चा खाने के नाम से ही चिढ़ने लगता है। खाने की थाली लेकर आती हुई माता को देखकर बच्चा प्रसन्न होने के बजाय दहशत से भर उठता है। अपनी बात को समझा न पाने के कारण मासूम बचपन सहता, घुटता एवं टूटता रहता है। इस सब का असर उसके स्वास्थ्य पर भी पड़ता है, पर इसके बाद भी माता के व्यवहार में कोई खास फर्क नहीं आता।

बच्चा चाहे शहर में जन्म ले या गाँव में, निश्चित रूप से जिस परिवेश में वह जीता है वह मूलतः भारतीय है, कुछ विदेशी चीजों और रहन-सहन के विदेशी तौर-तरीकों के कारण वह किसी भी तरह पाश्चात्य संस्कृति का नहीं हो सकता। फिर भी आधुनिक मातायें उसे पाश्चात्य संस्कृति के रहन-सहन एवं सोच-विचार में डालना चाहती हैं। उनके विचार से यही प्रगति का असली रास्ता है। बच्चों को इस बनावटी ढांचे में गढ़ने से पैदा होने वाली कुँठाओं की पूरी जिम्मेदारी उन माताओं की है जिनका एकमात्र लक्ष्य उन्हें अधिक से अधिक भौतिकवादी बनाना है।

बड़े होने पर ऐसे बच्चों का जीवन दर्शन ही नहीं मकसद भी गलत हो जाता है। इतना ही नहीं जीवन मूल्यों की काट-छाँट में अपनी आधी शक्ति नये सिरे से उन्हें समझने और उनके अनुसार अपने को फिर से ढालने में लगानी पड़ती है। अपने बच्चे की प्रकृति एवं स्वभाव को समझने में भूल करने वाली मातायें ही निश्चित रूप से बच्चों की इस नाकामयाबी के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं।

माता से संतान को जितना उपकार और अपकार पहुँचता है उतना किसी भी अन्य से नहीं। जितना वह अपने संतान से प्रेम करती है, उसका हित करना चाहती है उतना कोई और नहीं कर सकता। इसीलिए कहा गया है-

“प्रशस्ता धार्मिकी विदूषी माता विद्यते यस्य स मातृमान”

अर्थात्- धन्य है वह माता जो गर्भाधान से लेकर जब तक विद्या पूरी न हो, तब तक संतान को सुशीलता का उपदेश करती है।

होना यह चाहिए कि संतान को माता सदा उत्तम शिक्षा प्रदान करे। उसे यह तथ्य समझना चाहिए कि बच्चा कभी भूखा नहीं रहता है। वह भूख लगते ही जता देता है कि उसे भूख लगी है। चिड़िया भी अपने बच्चों के मुख में जबरदस्ती दाना नहीं डालती, क्योंकि वह उन विकारों से मुक्त है, जो आदमी के हिस्से में पड़े हैं। विकास की प्रक्रिया में पशु-पक्षी भी जंगल-पहाड़, पानी और आकाश में जीना तथा दुश्मनों से लड़ना सीख जाते हैं।

जब बालक बोलना प्रारम्भ करे तो माता को ऐसे उपाय करने चाहिए, जिससे बालक की जिह्वा कोमल होकर स्पष्ट उच्चारण कर सके। जब बालक कुछ-कुछ बोलने और समझने लगे तो उसे सुन्दर वाणी द्वारा बड़ों के साथ बोलने का शिष्टाचार समझाना चाहिए। ऐसा करने पर वह सबके बीच प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा। बालक में सत्संग एवं विद्या के प्रति सहज अभिरुचि उत्पन्न करने का प्रयास करना चाहिए। व्यर्थ रोदन, क्रीड़ा, हास्य, लड़ाई-झगड़ा, किसी भी पदार्थ के प्रति लोलुपता, ईर्ष्या-द्वेष आदि से उसे दूर रहने की शिक्षा देनी चाहिए। सदा सत्य भाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नवदन आदि गुणों की प्राप्ति का प्रयास कराया जाना चाहिए। बालकों द्वारा किये गये अच्छे कार्यों की प्रशंसा जहाँ उसका उत्साह बढ़ाता है, वहीं गलत कार्यों के लिए किया गया ताड़न उसे पुनः गलती न करने की याद दिलाता है। प्रत्यक्ष का यह ताड़न स्वयं की महत्त्वाकाँक्षा, संकुचित स्वार्थ, ईर्ष्या-द्वेष आदि से प्रेरित न होकर आँतरिक प्रेम एवं सही मार्गदर्शन पर आधारित होना चाहिए।

शास्त्र कहते हैं-

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालोन पाठितः। न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा॥

अर्थात्- वे माता और पिता अपने संतानों के पूर्ण बैरी हैं, जिन्होंने उनको विद्या की प्राप्ति न करायी। वे विद्वानों की सभा में वैसे ही तिरस्कृत और कुशोभित होते हैं जैसे हंसों के बीच में बगुला।

सब कुछ वही है सिर्फ दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता है। माता व संतान के बीच निर्मल ममता की जो धारा सतत प्रवाहित होती रहती है, उसे निर्मल ही रहने दिया जाय। परमात्मा ने माता को जिस अनमोल ममत्व का खजाना दिया है, उसका उपयोग संकुचित स्वार्थों के लिए किसी भी हालत में नहीं किया जाना चाहिए। तन-मन-धन से संतान को धर्म, संस्कृति, विद्या एवं आध्यात्मिकता से युक्त करने वाली माता ही सच्चे अर्थों में ममतामयी कही जा सकती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118