जीवन के उत्तरार्द्ध को मंगलमय बनाएँ

May 2003

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महिलाओं में रजोनिवृत्ति की क्रिया उनकी जिंदगी का एक अविच्छिन्न अंग है। जो स्त्रियाँ जीवन के पूर्वार्द्ध में मासिकचक्र से होकर गुजरती हैं, उन सबको उत्तरार्द्ध भाग में उपर्युक्त शरीर-क्रिया से निबटना पड़ता है। इसमें नारियों को विभिन्न प्रकार की शारीरिक-मानसिक परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं, कारण कि महिलाओं के लिए यह एक संक्राँतिकाल होता है, जिसमें वे एक दौर से निकलकर दूसरे दौर में प्रवेश करती हैं। अनेक वर्षों के अध्ययनों के पश्चात अब ज्ञात हुआ है कि यह केवल स्त्री शरीर की विशिष्टता नहीं है, वरन् पुरुषों में भी समान रूप से घटित होती है। मेल मेनोपॉज (नर रजोनिवृत्ति) के दौरान नरों में कितनी ही प्रकार की उलझनों का जन्म होता है, जिनका यदि सतर्कता एवं दृढ़तापूर्वक सामना नहीं किया गया तो समस्याएँ और जटिल बनती हैं एवं जीवन दुःखद।

नर रजोनिवृत्ति वास्तव में कोई व्याधि नहीं, एक लक्षण है, जो यह बतलाता है कि व्यक्ति अब उस पड़ाव पर पहुँच गया है, जहाँ सावधानी एवं साहस की जरूरत है। यह उम्र पुरुषों में प्रायः 35 ये 75 वर्ष के बीच आती है और स्त्रियों में 45 से 55 के मध्य। आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व एक जर्मन प्रोफेसर निचेल बर्थोल्ड ने इस दिशा में काफी उल्लेखनीय कार्य किया था और इस दौरान पैदा होने वाली समस्याओं को हार्मोन रिप्लेसमेंट विधि द्वारा करने का प्रशंसनीय प्रयास किया था, पर तब उनके इस अनुसंधान की ओर ध्यान नहीं दिया गया और समस्या ज्यों-की-त्यों पूर्ववत बनी रही। सन् 1944 में दो अमेरिकी चिकित्सक कार्ल हेलर और गार्डन मायर्स ने हिम्मत जुटा कर फीमेल मेनोपॉज से पुरुष लक्षणों की तुलना शुरू की तो जो कार्य निचेल बर्थोल्ड ने वर्षों पूर्व आरंभ किया था, वह मील का पत्थर साबित हुआ। उनने पाया कि नर-नारी में रजोनिवृत्ति के दौरान लगभग एक ही प्रकार के लक्षण उभरते हैं। ये लक्षण हैं—चिड़चिड़ापन, थकान, अवसाद, जोड़ों का दर्द, कामेच्छा में कमी, रात में पसीना आना, उत्साहहीनता, उत्तेजना और एकाग्रता में कमी, निराशा एवं स्मृतिभ्रंश आदि। दो वर्ष पूर्व गोल्डक्रम मेडिकल सर्विसेज, लंदन के मूर्द्धन्य वैज्ञानिक मैल्कम कारथर्स ने इस विषय पर गहन अध्ययन किया और पाया कि जो निष्कर्ष विगत के दो अध्ययनों के थे, वे एकदम सही थे। उनका कहना था कि उपर्युक्त लक्षण हार्मोन स्तर में कमी के कारण उत्पन्न होते हैं, अतएव यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि ऐसा किसमें हो रहा है? महिलाओं में या पुरुषों में? महिलाओं में जब यह अवस्था पैदा होती है तो ‘मेनोपॉज’ कहलाती है और पुरुषों में इसी को ‘एंड्रोपॉज’ (मेल मेनोपॉल) कहा गया है।

मैल्कम कारथर्स इस विषय पर इस प्रकार के विस्तृत और सूक्ष्म अध्ययन के प्रथम अध्येता कहे जा सकते हैं। इसके पूर्व तक ‘एंड्रोपॉज’ के संबंध में चिकित्सा जगत में विवाद बना हुआ था, किंतु कारथर्स की इस शोध के बाद विवाद का अंत हो गया। उनने लंदन के एक क्लीनिक में अपने इस अनुसंधान का शुभारंभ किया। उस क्लीनिक के एक हजार मरीजों में से उनने चार सौ ऐसे रोगियों का चयन किया, जिनने महसूस होने वाले लक्षणों के आधार पर स्वयं को मेल मेनोपॉज का शिकार होने की शिकायत की थी। उनमें से 70 प्रतिशत अवसाद के, 62 प्रतिशत चिड़चिड़ेपन के, 80 प्रतिशत मानसिक थकान, 81 प्रतिशत कामेच्छा में कमी, 55 प्रतिशत रात के समय आवश्यकता से अधिक पसीना आना, 60 प्रतिशत हाथ-पैरों के जोड़ों में दर्द और 45 प्रतिशत समय से पूर्व बुढ़ापे के शिकार थे।

अध्ययन से यह भी विदित हुआ कि एंड्रोपॉज के लक्षण स्वतः नहीं उभरते, उसके पीछे कोई-न-कोई तत्त्व और कारक जिम्मेदार होते हैं, जो नर रजोनिवृत्ति के लक्षणों को उभारते हैं। उनका जल्दी या विलंब से प्रकट होना इस बात पर भी निर्भर करता है कि उस तत्त्व की व्यक्ति में तीव्रता कितनी है अर्थात् यदि ऐसा व्यक्ति चिंता से ग्रस्त है तो उसकी चिंता किस स्तर की और कितनी है एवं क्या वह हर समय उसमें डूबा रहता है? यदि ऐसी बात है तो चिंता की यह तीव्रता उसे जल्द ही एंड्रोपॉज से आक्राँत कर देगी। उक्त मरीजों की जब गहन पड़ताल और पूछताछ की गई तो पता चला कि एक-एक रोगी में एंड्रोपॉज के कई-कई तत्त्व जिम्मेदार थे। यदि अलग-अलग तत्त्वों के प्रतिशत को देखा जाए तो 60 प्रतिशत में मनोवैज्ञानिक, 38 प्रतिशत शराब, 30 प्रतिशत धूम्रपान, 30 प्रतिशत चोट के कारण चिंता, 20 प्रतिशत मोटापा और 11 प्रतिशत संक्रमण के कारण रजोनिवृत्ति के लक्षणों से पीड़ित थे।

उपर्युक्त सभी लक्षणों की शिकायत करने वालों में जब टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन की जाँच की गई तब उनमें इनका स्तर मात्र 10-14 प्रतिशत पाया गया और अधिक सूक्ष्म रक्त परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि फ्री एक्टिव टेस्टोस्टेरॉन (एफ.ए. टी.) में लगभग 75 प्रतिशत की कमी आ जाती है। यही कमी नर रजोनिवृत्ति के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है। यहाँ यह बता देना अप्रासंगिक न होगा कि नर और नारी की रजोनिवृत्ति-शैली में थोड़ा फर्क है। नारी में रजोनिवृत्ति अचानक आ जाती है, जबकि पुरुषों में एंड्रोपॉज उम्र के साथ धीरे-धीरे आता है। इसके पीछे प्रधान भूमिका हार्मोन स्तर की है। स्त्रियों में एस्ट्रोजेन हार्मोन के स्तर में 40-45 वर्ष की उम्र में तेजी से गिरावट आती है, जबकि पुरुषों में यह गिरावट धीरे-धीरे आती है और कभी-कभी तो इसकी अंतिम सीमा 75-80 वर्ष के बीच पाई गई है, किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि पुरुषों में अधेड़ावस्था में रजोनिवृत्ति के लक्षण प्रकट नहीं होते। खान-पान से लेकर रहन-सहन तक में ऐसे अनेक कारण ढूँढ़ निकाले गए हैं, जो उन्हें उद्दीप्त करते हैं। इसका प्रमुख कारण यही है कि खान-पान, रहन-सहन और चिंतनशैली पुरुषों में टेस्टोस्टेरॉन के स्तर को काफी प्रभावित करती है और यदा-कदा तो अधेड़ावस्था तक में उसमें भारी गिरावट ले आती है। जब यह गिरावट 50 प्रतिशत के करीब आ जाती है तो रजोनिवृत्ति के लक्षण मरदों में उभरने लगते हैं। फ्री एक्टिव टेस्टोस्टेरॉन में इस स्तर की गिरावट अनेक प्रकार की पुरुषोचित क्रियाओं को अवरुद्ध करती है, जिससे कितने ही तरह के रोगजन्य लक्षण प्रकट हो जाते हैं, जबकि वे रोग होते नहीं और उन्हें नियंत्रित किया जा सकना संभव हैं।

मैल्कम कारथर्स ने इसके बाद नए प्रकार का अध्ययन शुरू किया। उनने ऐसे दो सौ लोगों की पड़ताल की जो 50-70 वर्ष के आयु वर्ग के थे और जिनकी जीवनशैली कुछ विशिष्ट प्रकार की थी। वे हमेशा हँसते-मुस्कराते हरते थे और दूसरों को अपने विनोदी स्वभाव के कारण आनंदित करते थे। कारथर्स इस प्रयोग के द्वारा यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि आयु को यदि छोड़ दिया जाए तो क्या विनोदी व्यक्ति त्व टेस्टोस्टेरॉन स्तर को प्रभावित करता है? अनुसंधान में इसका उत्तर ‘हाँ’ पाया गया। उन्होंने देखा कि इन लोगों में फ्री एक्टिव टेस्टोस्टेरॉन का स्तर काफी ज्यादा है और वह करीब 70 प्रतिशत के आस-पास पाया गया। इससे यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि उन्मुक्त हँसी और तनावरहित जीवन अंतःस्रावी तंत्र को बहुत अधिक प्रभावित करता है और जिस प्रकार चिंता और हताशा हार्मोन स्तर को कम करती है, उसी प्रकार आनंद और उत्फुल्लता उसके स्तर को घटने से रोकती है। इससे एक बात स्पष्ट हो गई कि हमारा अपना आचार-विचार और व्यवहार ही अंतःस्रावी तंत्र को सबसे अधिक प्रभावित करता है। बढ़ती आयु की इसमें कम-से-कम भागीदारी है।

इस प्रकार यह बात साफ हो गई कि व्यक्ति को स्वयं को अधिक-से-अधिक स्वस्थ और सक्रिय रखने के लिए एवं एंड्रोपॉज और बुढ़ापे के लक्षणों को टालने के लिए अपनी अंतःस्रावी ग्रंथियों पर अनुकूल प्रभाव डालना होगा। इसका सबसे सरल उपाय तनावरहित जीवनशैली है। इसके अतिरिक्त संतुलित और शाकाहारी भोजन, जिसमें फलों और हरी सब्जियों की प्रचुरता हो, लेना चाहिए। नियमित रूप से सुबह-शाम टहलना भी उपयोगी है। अधेड़ावस्था में भारी-भरकम व्यायामों से बचना चाहिए और अंग-संचालन, तेज चाल जैसी हल्की-फुल्की कसरत से ही काम चलाना चाहिए। कारण कि इस आयु में ज्यादा-से-ज्यादा ऊर्जा संरक्षण आवश्यक होता है। ऊर्जा के अधिक ह्रास से थकान जल्दी और ज्यादा आएगी, जो कि एंड्रोपॉज का एक लक्षण है। इससे बचना चाहिए। अच्छा तो यह होगा कि इस आयु-वर्ग के लोगों को आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रा एवं ध्यान जैसे आध्यात्मिक उपचारों का सहारा लेना चाहिए। सेवा के विभिन्न कार्य रचनात्मक प्रोजेक्ट्स हाथ में लेना चाहिए। यह ऐसे साधन-अभ्यास हैं, जो सूक्ष्म अवयवों, शक्ति संस्थानों और तंत्रों को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। इनमें अंतःस्रावी ग्रंथियों पर भी वाँछित असर पड़ता है और एंड्रोपॉज स्वयमेव टलता रहता है।

यों चिकित्साशास्त्री एंड्रोपॉज या नर रजोनिवृत्ति के इलाज का एक उपाय हार्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी भी बताते हैं, जिसमें टेस्टोस्टेरॉन की नियमित खुराकें व्यक्ति को दी जाती हैं, पर इसमें एक खतरा सदा बना ही रहता है कि यदि किसी प्रकार टेस्टोस्टेरॉन की मात्रा शरीर में बढ़ गई हो तो इससे लाभ के स्थान पर नुकसान ही होगा। इससे आदमी के आक्रामक और अति कामुक हो जाने का डर है। दूसरे इस हार्मोन से लीवर, प्रोस्टेट एवं हृदय जैसे कई अवयवों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और उनके क्षतिग्रस्त हो जाने की संभावना बनी रहती है। अतएव हमें ‘प्रीवेन्सन इज बेटर दैन क्योर’ की अँगरेजी कहावत को अपनाते हुए एंड्रोपॉज की चिकित्सा की तुलना में उसकी रोकथाम पर अधिक ध्यान देना चाहिए, ताकि उस अप्रिय स्थिति से बचा जा सके।

नर रजोनिवृत्ति आयु की अपेक्षा हमारे चिंतन और रहन-सहन से अधिक जुड़ी हुई है। हम उसमें अपेक्षित सुधार कर उस अवाँछनीय दशा से बचे रह सकते हैं, जो हमारे जीवन के उत्तरार्द्ध को दुखी बनाती है।


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