एक बूढ़ा घास खोदने में सबेरे से लगा हुआ था। दिन ढलने तक वह इतनी खोद सका था, जिसे सिर पर लादकर घोड़े वालों की हाट में बेचने ले जा सके।
एक सुशिक्षित देर से उस बुड्ढे के प्रयास को देख रहा था। सो उसने पूछा, क्यों जी, दिनभर परिश्रम से जो कमा सकोगे, उससे किस प्रकार तुम्हारा खरच चलेगा? घर में अकेले ही हो क्या?
बूढ़े ने मुस्कराते हुए कहा, कई व्यक्ति यों का मेरा परिवार है। जितने की घास बिकती है, उतने से ही हम लोग व्यवस्था बनाते और काम चला लेते हैं।
युवक को आश्चर्यचकित देखकर बूढ़े ने पूछा, मालूम पड़ता है, तुमने अपनी कमाई से बढ़-चढ़कर महत्त्वाकाँक्षाएँ सँजो रखी हैं, इसी से तुम्हें गरीबी में गुजारे पर आश्चर्य होता है।
युवक से और तो कुछ कहते न बन पड़ा, पर अपनी झेंप मिटाने के लिए कहने लगा। गुजारा ही तो सब कुछ नहीं हैं, दान-पुण्य के लिए भी तो पैसा चाहिए।
बुड्ढा हँस पड़ा। उसने कहा, मेरी घास में तो बच्चों का पेट ही भर पाता है, पर मैंने पड़ोसियों से माँग-माँगकर एक कुआँ बनवा दिया है, जिससे सारा गाँव लाभ उठाता है। क्या दान-पुण्य के लिए अपने पास कुछ न होने पर दूसरे समर्थों से सहयोग माँगकर कुछ भलाई का काम कर सकना बुरा है।
युवक चला गया। रातभर सोचता रहा कि महत्त्वाकाँक्षाएँ सँजोने और उन्हीं की पूर्ति में जीवन लगा देना ही क्या एकमात्र तरीका जीवन जीने का है।