परिष्कृत−उदात्त मनःस्थिति ही बनाएगी श्रेष्ठ परिस्थिति

May 2003

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मनःस्थिति ही परिस्थिति की जन्मदात्री है। सनातन संस्कृति के इस मूल मंत्र में आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान का गहरा रहस्य छुपा-छिपा है। इसी में नूतन-चिरन्तन सत्य की झलक-झाँकी मिलती है। मानव और समाज के सारे रहस्य इसी में आवृत्त है। जीवन में इस महासत्य का अभाव ही समस्त समस्याओं और कठिनाइयों को जन्म देता है। भले ही आज की भोगवादी सभ्यता का मत इस पर अडिग रहे कि परिस्थितियाँ यदि ठीक कर ली जायँ तो मनःस्थिति बदली जा सकती है। परन्तु यह उक्ति और उद्घोषणा नितान्त एकाँगी और अपूर्ण है। हाँ यह आवश्यक एवं उपर्युक्त है कि मनःस्थिति और परिस्थिति में उचित सामंजस्य और समुचित समन्वय होना चाहिए। अन्यथा इसके द्वन्द्व में मनुष्य की अमूल्य जीवनीशक्ति का ह्रास होता है और सृजन-वरदान के बदले विनाश व अभिशाप ही हाथ लगता है।

वर्तमान युग की समस्त शारीरिक कष्ट-कठिनाइयों और मानसिक रोगों के मूल में यही द्वन्द्व एवं संघर्ष का जोर दिखायी पड़ता है। इसमें से एक की मान्यता है कि अपेक्षित साधनों की प्रचुरता से प्रसन्नता एवं प्रगति पायी जा सकती है। इसके ठीक विपरीत दूसरी विचारधारा है। जिसका आग्नेय मंत्र है -’मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है।’ इस सिद्धान्त के अनुसार साधनों की आवश्यकता, उपार्जन और सत्प्रयोजनों के लिए सदुपयोग इसी के आधार पर ही सम्भव है। इसके अभाव में समस्त साधनों की विपुलता के बावजूद सर्वत्र असंतोष एवं अशान्ति ही परिलक्षित होती है।

मनःस्थिति पर आधारित विचारधारा कहती है कि यदि मन को समझा लिया जाये तो विपन्न परिस्थिति में भी सुख और संतोषपूर्वक निर्वाह किया जा सकता है। आवश्यक साधनों में कमी रहने पर भी उसकी पूर्ति कर ली जाती है। और फिर भी अत्यन्त उपयोगी साधन का अभाव पड़े भी तो उसे संयम, सहानुभूति, संतोष जैसे दिव्य गुणों-सद्गुणों के द्वारा भली प्रकार काम चला लिया जाता है। अभावबोध अखरता नहीं है। साधन का मोह सताता नहीं। दूसरों की सम्पन्न परिस्थितियों को देखकर भी मन में लोभ व मोह व्यापता नहीं। अपने सीमित साधनों-संसाधनों में भी स्वर्गीय सुख की अनुभूति होती है। कहीं भी न कुछ अभाव सालता है और न कुछ न होने की पीड़ा रुलाती है। क्योंकि यहाँ पर मनःस्थिति की परिष्कृति है। मन स्वयं अपने में संतुष्ट एवं प्रसन्न है अतः वह परिस्थितियों की भयावहता एवं विपन्नता में भी मस्त रहता है।

मनःस्थिति पर परिस्थिति को प्रबल मानने वालों की मान्यता है कि जितने अधिक साधन, उतना अधिक सुख। साधन की विपुलता, उसकी मोहकता एवं वैभव से मन को प्रसन्न रखने का प्रयास किया जाता है। माना जाता है कि ऐश्वर्य के चकाचौंध में ही मन मुग्ध हो सकता है। रहने के लिए भव्य आवास, स्वादिष्ट व्यञ्जन, मनोरञ्जन के अत्याधुनिक सुविधायें ही एकमात्र ऐसी परिस्थिति है जिससे मनःस्थिति को खुश व निहाल किया जा सकता है। इस विचारधारा के अनुसार मन को खुश रखने के लिए समर्थता और सम्पन्नता का होना अनिवार्य है, अपरिहार्य है। और ऐसी परिस्थिति जुटाने के लिए दूसरे दुर्बलों के उपार्जन अधिकार को भी हड़पकर मनचाही मौज-मस्ती करने में भी कोई अपराध नहीं है।

इन मतों-सिद्धान्तों के अपने-अपने तर्क, तथ्य और आधार हैं। और प्रतिपादन एवं विश्लेषण भी इन्हीं को आधार मानकर किया जाता है। प्रयोग भी दोनों का अनन्तकाल से होता चला आया है। यहाँ पर प्रयोगधर्मिता का प्रयोग नहीं हुआ। यहाँ यह नहीं देखा जाता है कि यदि प्रयोग असफल हुआ तो क्यों हुआ और उसकी सफलता के लिए किसी और उपादेय सिद्धान्त को क्यों न अपना लिया जाये। परन्तु ऐसा सुयोग और सौभाग्य नहीं आया कि दोनों मतों में कोई सर्वसम्मत मान्यता निकल सके। अपना ही पक्ष श्रेष्ठ, अपना मत सही, दूसरा ठीक नहीं का दुराग्रह अपनाने के कारण उनके बीच विग्रह भी खड़े होते रहे हैं।

यही देवासुर संग्राम है। पदार्थ से विनिर्मित परिस्थितियों के पक्षधर को दैत्य पक्ष कहा जा सकता है। यह भावनाओं को भ्रान्ति, मन को साधनों का दास तथा शरीर को भोग्य वस्तु मानता है। यह प्रत्यक्ष को ही एकमात्र प्रमाण सिद्ध करता है। परन्तु भावनाओं को सर्वोत्तम स्थान पर आसीन-आरुढ़ करने वाले एवं पदार्थ को गौण एवं नगण्य मानने वालों को देव पक्ष कहा जा सकता है। इनकी नजरों में अदृष्ट भावना ही सर्वोपरि है। दर्शन के आधारभूमि में प्रतिपादन करने पर इसी को भौतिकता और आध्यात्मिकता से नामाँकित किया जाता है। हठवादिता के दुष्चक्र में दोनों ने एक-दूसरे को धुर विरोधी पाया है और ये अपनी ही बातों पर अड़े रहने के लिए अवश-विवश हैं।

अंतर्मन में झाँकने पर हम भी स्वयं को परिस्थिति और मनःस्थिति के इस गहरे द्वन्द्व और दलदल में फँसे हुए पाते हैं। हमें जो परिस्थिति मिली है उससे हम संतुष्ट नहीं और हमारी मनःस्थिति भी इतनी मजबूत नहीं हैं कि मिले हुए परिवेश-वातावरण को सहर्ष अपना सकें। हम प्रायः साधन के अभाव का आँसू बहाते हैं, अपने भाग्य और भविष्य को कोसते नजर आते हैं और दूसरों पर दोषारोपण कर अपनी कमजोर-दुर्बल मनःस्थिति को ढँकने-ढांकने का व्यर्थ प्रयास करते हैं। अगर परिस्थिति अनुकूल मिल भी गयी तो अपनी हेय मानसिकता एवं रुग्ण विचारों से उसे भी प्रतिकूलता तक पहुँचाये बगैर चैन से नहीं बैठते। अंततः परिणाम होता है कि सृजन की ओर बढ़ते कदम अपने को ही विनाश की लपटों में झुलसा देते हैं।

परिस्थिति और मनःस्थिति का यह गहरा द्वन्द्व मनुष्य को दुर्बल एवं अशक्त बनाता है। यह उसे मानवीय गरिमा बोध से वंचित कर देता है। उसके अन्दर दबी-पड़ी अनन्त सम्भावनाओं को रौंद डालता है। सृजन का बीज अंकुरित-विकसित होने से पहले ही भूमिसात् हो जाता है, मिट्टी में मिल जाता है। कुछ भी हाथ नहीं लगता और इस सर्वनाशी दलदल से उपजी असफलता, निराशा एवं हताशा से मनःस्थिति की स्थिति और भी असह्य-दुर्वद्ध हो उठती है। चारों ओर घोर कुहासा-अंधकार फैला पड़ा दिखता है जिसकी सीमा आकाश के समान सीमातीत होती है। ऐसे में उमंगों के दीप, जले तो कैसे जले? आशाओं की सिंदूरी उषा उभरे तो कैसे उभरे? जब मन ही कमजोर एवं परेशान हो तो शरीर से क्या उम्मीद की जा सकती है। बल्कि ऐसा व्यथित मन ही अदृश्य और असाध्य आधि-व्याधियों का कारण बनता है।

इस द्वन्द्व और निराशा के घटाटोप से निकलने से ही आशाओं का सूर्य प्रदीप्त एवं ज्योतिर्मय हो सकता है। मनःस्थिति से कुहासे का यह आवरण हटते-मिटते ही प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आरामयी किरणें जगमगा उठती हैं॥ घनघोर असफलताओं से घिरा वातायन पल भर में नूतन उत्साह से आलोकित हो उठता है। हर परिस्थिति प्रगति एवं विकास का अवरुद्ध मार्ग खोल देती है। यदि अनुकूलता हो तो विकास की यात्रा तीव्रगामी होगी और यदि प्रतिकूल हुई तो उससे निपटने से प्राप्त अनुभव सफलता के लिए धरोहर सिंह होगा। एकमात्र इस बिन्दु पर ही मनःस्थिति और परिस्थिति का सर्वनाशी संघर्ष थमेगा, पूर्वाग्रह-दुराग्रह का आवेश रुकेगा तथा इन दोनों के सामंजस्य-समन्वय से असम्भव कार्य भी सम्भव हो सकेगा।

जड़ और चेतन, भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों की अपनी-अपनी उपयोगिता एवं उपादेयता है। दोनों के मिलन में ही पूर्णता है, सर्वांगीणता है। ठीक इसी प्रकार मानव जीवन की सम्पूर्ण एवं समग्र प्रगति में मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों की आवश्यकता है। यह ठीक है कि मनःस्थिति भी श्रेष्ठ व उत्कृष्ट हो और परिस्थिति भी समुन्नत हो। परन्तु यदि मनःस्थिति हेय स्तर का होगा तो किसी भी प्रकार की अनुकूलता काम नहीं आयेगी। इसलिए सर्वोपरि आवश्यकता इस बात की है कि हमारा मन परिष्कृत हो, इसके चिंतन उच्चस्तरीय हों तथा यह उच्च आदर्शों के प्रति कटिबद्ध हो। ऐसी उदात्त मनःस्थिति ही वैभवमयी स्वर्ग का परिचायक-पर्याय है। यही मनवाँछित परिस्थिति की जननी-जन्मदात्री है। अतः उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं को साकार करने के लिए ऐसे ही दुर्धर्ष-प्रचण्ड मनस्वी मन की आवश्यकता है।


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