कोई चारा न था (kahani)

May 2003

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मंगोलियावासी चाँगशेन नामक न्यायाधीश अफसर के पास उनका एक मित्र पहुँचा और अशर्फियों की थैली भेंट करते हुए बोला, आप मेरा काम कर दें। इस लेन−देन की बात आपके और मेरे अतिरिक्त कोई नहीं जानेगा।

चाँगशेन कभी किसी से रिश्वत नहीं लेते थे। भले ही अपनी इस आदर्शवादिता के कारण उन्हें अभावग्रस्त जीवन जीना पड़ता था। उन्होंने अपने धनी मित्र को इस बात का उत्तर दिया, मित्र, ऐसा न कहो कि कोई नहीं देखता। कोई मनुष्य नहीं देखता तो क्या? सर्वव्यापी परमेश्वर तो सब कुछ देखता है, उसकी नजरों से मेरा यह अनैतिक कर्म कहाँ छिपा रहेगा। अनीति का उपार्जन महामानव को कभी स्वीकार्य नहीं होता।

धन लक्ष्मी वहीं विराजती हैं, जहाँ दुरुपयोग न होता हो, जहाँ सदैव पुरुषार्थ में निरत रहने वाले व्यक्ति बसते हों।

बलि अपने समय के धर्मात्मा राजा थे। उनके राज्य में सतयुग विराजता था।

सौभाग्य लक्ष्मी बहुत समय तो उस क्षेत्र में रहीं, पर पीछे अनमनी होकर किसी अन्य लोक को चली गइ। इंद्र को असमंजस हुआ और इस स्थान−परिवर्तन का कारण पूछ ही बैठे।

सौभाग्य लक्ष्मी ने कहा, मैं उद्योगलक्ष्मी से भिन्न हूँ। मात्र पराक्रमियों के यहाँ ही उसकी तरह नहीं रहती। मेरे निवास में चार आधार अपेक्षित होते हैं−(1) परिश्रम में रस, (2) दूरदर्शी निर्धारण, (3) धैर्य और साहस तथा (4) उदार सहकार।

बलि के राज्य में राज्य में जब तक ये चारों आधार बने रहे, तब तक वहाँ रहने में मुझे प्रसन्नता थी। पर अब, जब सुसंपन्नों द्वारा उन गुणों की उपेक्षा होने लगी तो मेरे लिए अन्यत्र चले जाने के अतिरिक्त और कोई चारा न था।

कर्म संन्यास योग नामक गीता के पाँचवें अध्याय की डडडड

गच्छन्ति अपुनरावृत्तिम्ः

भगवान श्रीकृष्ण का स्पष्ट कथन है कि ऐसे व्यक्ति जो भक्ति भाव से तद्रूप परमात्मामय हो जाते हैं, वे फिर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते, सीधे मोक्षत्व धारण करते हैं। परमात्मामय होने की भी चार अवस्थाएँ बताई गई हैं− तद्बुद्धयः, तदात्मानः, तन्निष्ठ, तत्परायण। उसी परमात्मसत्ता में बुद्धि, आत्मा, निष्ठा लगा, उसको जीवन का सर्वस्व बना लेना। ऐसे साधक आत्मज्ञान के द्वारा पापरहित (ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः) बन जाते हैं एवं इस संसार में पुनः बार−बार आगमन नहीं करते। यदि हम अपने अंदर इस प्रकार चार प्रकार के परिवर्तन ला सकें तो हम भी अपने आपको महान साधकों की कड़ी में खड़ा पा सकते हैं। ‘गच्छन्ति अपुनरावृत्तिम्’ वापस न लौटने की स्थिति, पुनर्जन्म न होना। परमात्मा में ही विलीन हो जाना, ध्रुव की तरह, मीरा एवं प्रह्लाद की तरह हर साधक का जीवनलक्ष्य होना चाहिए, किंतु उसके लिए स्वयं को परमात्मा में लीन करना होगा। समस्त वासनाओं को ज्ञानाग्नि से दग्ध कर वासनातीत अवस्था में जाना होगा। इस तरह का आत्मानुभव जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण अनुभूति है। यह रूपांतर प्रकृति का चरम विकास और दिव्य जन्म की परम सिद्धि है। भगवद् इच्छा की ही एक इच्छा बनकर वैसा जीवन जीकर ऐसा साधक प्रकृति की क्रियाओं को दिव्यकर्म में रूपांतरित कर पाने में समर्थ हो जाता है।

इस तरह का आत्मानुभव एक बार कर लेने पर मनुष्य का संपूर्ण जीवन−दृष्टिकोण बदल जाता है। इसी आशय पर केंद्रित है अठारहवाँ श्लोक−

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥ −5/18

विद्या−विनय से युक्त सत्वगुण संपन्न ब्राह्मण में, गौ में, हाथी में तथा कुत्ते और चाँडाल में आत्मतत्त्वज्ञ व्यक्ति समदर्शी होते हैं।

ज्ञानीजनों की विद्या और विनयसंपन्न ब्राह्मण में, गाय, हाथी, कुत्ते और चाँडाल में समदृष्टि होती है। सबके भीतर एक ही आत्मा क्रीड़ा−कल्लोल कर रहा है, यह अनुभूति कितनी दिव्य−विलक्षण है, यह इस श्लोक से हमें ज्ञात होती है। ऐसी अनुभूति करने वाले ही आत्मज्ञानी, 52 ऋषि और संत सही अर्थों में पंडित होते हैं। यह मर्म है पूरे श्लोक का।

आद्य शंकराचार्य को मिली दृष्टि

आद्य शंकराचार्य काशी में गंगास्नान कर बाहर निकल रहे थे। देखा सामने चाँडाल खड़ा है। उनने कहा, ऐ चाँडाल, परे हट। मुझे निकल जाने दे। चाँडाल ने पूछा, यदि मैं छू लूँगा तो क्या हो जाएगा? उनने कहा कि फिर से नहाना पड़ेगा, क्योंकि तू चाँडाल (श्वपाक) है। चाँडाल बोला कि किसे छुएँगे? चमड़ी को, चमड़े से बने शरीर को या आत्मा को। इतना सुनते ही शंकराचार्य को ज्ञान हो गया, आत्मबोध हो गया। उनके सामने चाँडाल के स्थान पर स्वयं साक्षात काशी विश्वनाथ खड़े थे। वे बोले, तू ज्ञानी होकर भी शरीर को देखता है, जो चमड़े से बना है। आत्मा का स्पर्श तो आत्मा ही कर सकता है और वह तो सतत निष्पाप है। इस र्स्पशभेद के आधार पर स्वयं को संन्यासी कहता है। आद्य शंकराचार्य ने त्रुटि समझी। क्षमा माँगी और स्वयं में समदर्शी भाव पैदा किया। जिस दिन यह भाव पैदा हो जाता है, उस समय छोटे−बड़े में, जातिस्वरुप किसी भी रूप में ॐ चा नीचा होने पर भी हर व्यक्ति एकसमान दिखाई पड़ता है। सही अर्थों में समदर्शी ज्ञानी एक दिव्यकर्मी शंकराचार्य के अंदर इसके बाद जाग्रत हो गया, जब उनने इस भेद का मर्म जान लिया।

समदर्शी है नाम तिहारो

स्वामी विवेकानंद खेतड़ी के महाराजा अजीतासिंह के यहाँ सत्संग में भाग ले रहे थे। देखा, तुरंत नर्तकी वहाँ आ गई है। राजा बोले, अब आपके सामने भक्ति −संगीत ये प्रस्तुत करेंगी, तुरंत विवेकानंद बाहर निकलकर अपने कक्ष में चले गए। नर्तकी परेशान हो गई। मैंने ऐसा कौन−सा काम किया कि संन्यासी मुझे देख बाहर चले गए। उसने राजा से पूछा कि उससे क्या त्रुटि हो गई? महाराज बोले कि वे तुम्हें देखकर चले गए। तुम्हारा नृत्य समाप्त होने व तुम्हारे यहाँ से जाने के बाद वे पुनः आएँगे। तब उस नर्तकी ने दूसरा गीत गाया, “प्रभु, मोरे अवगुन चित न धरौ, समदर्शी है नाम तिहारौ।” हे प्रभु, मेरे अवगुणों को भुला दें, मन में न रखें। आप तो समदर्शी हैं, सब आपके लिए समान हैं तो फिर यह भेद क्यों? मुझे देखकर आप उठ क्यों गए? मेरी आत्मा को क्यों नहीं देखा? उस गीत को सुनते सुनते विवेकानंद लौटकर चले आए और प्रवेश करते ही बोले कि माँ, मैं तुझे प्रणाम करता हूँ। मुझसे दृष्टिभेद हो गया था, बहुत बड़ी गलती हो गई थी। मुझे क्षमा करें। आम लोगों की तरह मैं आपको भी वही वेश्या−नर्तकी−पददलित स्त्री मान बैठा, जबकि आपके अंदर एक दिव्य आत्मा है, उसे मैं न देख पाया। यह भेदबुद्धि मुझमें कहाँ से आ गई! इतना कहकर वे नर्तकी के चरणों में गिर पड़े।

महापुरुष ‘पंडिताः समदर्शिनः’ ऐसे ही बनते हैं। यों ही जमाना उन्हें नमन नहीं करता, सब उनकी समदृष्टि को सराहते हैं। सब उनके अंदर के उस ज्ञान को सर्वोपरि मानते हैं। जो उनका परमात्मा से एकत्व भाव स्थापित कर देता है। जिस दिन आदमी चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, अपने अंदर भेदबुद्धि पैदा कर लेता है—यह अछूत है, यह छोटी जाति का है, यह पापी है, यह जीव−जगत का एक प्राणिमात्र है, उस दिन उसके अंदर का ज्ञानी नष्ट हो जाता है। समदर्शिता के भाव को पैदा करना, सभी जीवों में उस परमचेतना को संव्याप्त मानना (सर्वभूतात्म भूतात्मा−श्लोक−7, अध्याय 5) सच्चे साधक का परम कर्त्तव्य है। स्वामी विवेकानंद ऐसा कर सके, क्योंकि वे संन्यासी के अतिरिक्त कर्म−संन्यास के सच्चे साधक थे। स्वयं का आत्मविश्लेषण साहसपूर्वक कर सकते थे। तभी तो एक नर्तकी से उनने पैर छूकर क्षमा माँग ली। हम भी इस श्लोक से एक शिक्षण लें, स्वयं को पूर्ण बनाने की प्रक्रिया सीखें।

दिव्यकर्मी बनने की अभीप्सा

भगवान इसी कारण अर्जुन के समक्ष ‘परफेक्शन’ (पूर्णत्व) का एक आदर्श रख रहे हैं। सारी परिस्थितियाँ हमारे सामने रख रहे हैं, हमारे अंदर प्रबल अभीप्सा एक दिव्यकर्मी बनने की पैदा कर रहे हैं। जिस प्रकार द्वितीय अध्याय में उनने अर्जुन को स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताए थे, उसी तरह यहाँ वे दिव्यकर्मी के लक्षण अर्जुनसहित हम सबको बता रहे हैं। दिव्यकर्मी बनने की अभीप्सा पैदा होगी तो विघ्न स्वतः हटते चले जाएँगे।

अठारहवें श्लोक में कही गई बात की ही पुष्टि अगले उन्नीसवें श्लोक में है−

इहैव तैर्जितः सर्गो येषाँ साम्ये स्थितं मनः। निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥−5/19

जिन लोगों का (येषाँ) मन (मनः) समब्रह्म में (साम्ये) निश्चल रूप से प्रतिष्ठित है (स्थितं), इस लोक में शरीर में रहते हुए ही (इह एव) उनके द्वारा (तैः) यह दृश्य संसार (सर्गः) विजित है (जितः), क्योंकि (हि) ब्रह्म सभी में समान रूप से (ब्रह्म समं) गुणदोषरहित (निर्दोषं) है। इसी कारण (तस्मात्) समदर्शी 53 लोग (ते) ब्रह्म में ही (ब्रह्मणि) ब्रह्मभाव से प्रतिष्ठित हैं (स्थितः)।

यह शब्दार्थ हुआ। यह एक प्रकार से ब्रह्मज्ञान की फलश्रुति बताई गई है। इस पूरे श्लोक का अब भाव समझें, जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इसी कारण वे परमात्मा में ही ब्रह्मभाव से स्थित हैं।

ब्रह्मज्ञान−प्राप्ति के बाद दिव्यकर्मी के लक्षण क्या होंगे, वे योगेश्वर बता रहे हैं। समभाव में स्थित होने के कारण दिव्यकर्मी यह सारा दृश्य संसार जीत लेते हैं। वे उसके राजा होते हैं। निर्दोष समरूप ब्रह्म में वे सदा प्रतिष्ठित रहते हैं। जो ब्रह्म की अपरोक्षानुभूतिरुपी ज्ञान में प्रतिष्ठित हुए हैं, वे जीवन−मुक्त बन जाते हैं। फिर उन्हें पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता।

समत्व का दिव्य संगीत

कितना विलक्षण−सुँदर विवेचन है—आत्मिक प्रगति की यात्रा का। साम्य बुद्धि वाले ब्रह्म में स्थित दिव्यकर्मी बनना हम सबका जीवनलक्ष्य होना चाहिए। साम्य बुद्धि वाला व्यक्ति ही समत्व का दिव्य संगीत सुन पाता है। चाहे मनुष्य रूप में श्रेष्ठ ब्राह्मण हो अथवा बुद्धिमान पशु (गौ एवं हाथी), जड़बुद्धि मनुष्य (श्वपाक, चाँडाल) अथवा कुत्ते जैसा पशु, ज्ञानी इस सबमें एक जैसे ब्रह्म की ही सतत अनुभूति करता है। समदर्शी बन पाना एक दैवी विभूति प्राप्त करने के समान है। देवसंस्कृति हमें यही तो सिखाती है। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के जीवनभर किए गए ज्ञान−पुरुषार्थ का निचोड़ यही है कि हम समत्व दृष्टि विकसित करें। स्वयं उनने अपने जीवन में मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत् (वासना एवं तृष्णा के समापन) के बाद आत्मवत् सर्वभूतेषु क ी साधना की थी। यह आत्मवत् सर्वभूतेषु ही समत्व दृष्टि है। इसके बिना तो सभ्य जीवन संभव नहीं है। सुसंस्कृत देवोपम जीवन जीनार हो तो यही समत्व का दृष्टिकोण जीवन में उतारना होगा, ऐसा परमपूज्य गुरुदेव का भी मत है।

आज सारे समाज में अहं की टकराहट है। साँप्रदायिक सद्भाव खतरे में है, पूरी राजनीति जातिवाद पर टिकी है, राष्ट्रीय स्तर पर व सीमा पर आतंकवाद तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर युद्धोन्माद फैला पड़ा है। यह समदृष्टि के अभाव की ही फलश्रुति है। जाति−वर्ण के नाम पर पारस्परिक विद्वेष एवं झगड़े, परिवार संस्था में टूटन, पति−पत्नी में, पिता−पुत्र में पारस्परिक भेद, मन−मुटाव व विक्षुब्धता चारों ओर संव्याप्त तनाव भी भेद−दर्शन का ही परिणाम है। यदि हम चारों ओर समत्व संव्याप्त देखें तो यह सारी समस्याएँ स्वतः ही मिटती चली जाएँ। अच्छा हो हम सामने वाले में अपने ही एक अथवा दूसरे पहलू का दर्शन करें, उसे मित्र मानें, उसकी कुटिलताओं के बावजूद उसकी आत्मा से प्रेम करें तो उसके वे भाव भी स्वतः सताप्त होते चले जाएँगे। इसीलिए भगवान कहते हैं कि सही अर्थों में पंडित वे ही होते हैं जो ज्ञान−पढ़ाई−शिक्षा की दृष्टि से नहीं, आध्यात्मिक दृष्टि से समदृष्टि संयुक्त हों, सर्वत्र एक ही आत्मा का अनुभव करते हों, आत्मज्ञानी हों, विराट जिनका हृदय हो।

धरती के सम्राट समदर्शी

ऐसे समदर्शी व्यक्ति इस धरती के सम्राट कहलाते हैं, वे ब्रह्मभाव से परमात्मा में स्थित होते हैं। इसी कारण वे भवबंधनों से मुक्त हो जाते हैं। अगला बीसवाँ श्लोक इस सत्य को आगे बढ़ाकर दिव्यकर्मी की विशेषताओं की परिधि और बड़ी कर देता है−

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्माणि स्थितः॥ 5/20

ब्रह्म में अवस्थित (ब्रह्माणि स्थितः), निश्चल स्थिर बुद्धि वाले (स्थिर बुद्धिः), संशयरहित दृष्टिकोण वाले (असम्मूढः), ब्रह्मज्ञ व्यक्ति (ब्रह्मविद), प्रिय वस्तु मिलने पर भी (प्रियं प्राप्य) हर्षित नहीं होते (न प्रहृष्येत्) और अप्रिय वस्तु मिलने पर (अप्रियं च प्राप्य) दुखी भी नहीं होते (न उदविजेत्)।

जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रिय को प्राप्त कर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित है।

समान पूर्व के श्लोक की ही तरह ‘ब्रह्मणि स्थितः’ में ही है। यह सारी विशेषताएँ दिव्यकर्मी की हैं, जो उसे देवमानवों की श्रेष्ठतम स्थिति में ला खड़ा करती हैं। इस श्लोक में ठीक स्थितप्रज्ञों की तरह दिव्यकर्मी का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण बताया गया है कि वह परमात्मा में स्थित होने के कारण तथा बिना किसी संशय की स्थिति में होने के कारण प्रिय वस्तु से न तो प्रसन्न ही होता है एवं न अप्रिय वस्तु या स्थिति को प्राप्त होकर दुखी होता है। एकीभाव से, समभाव से सभी परिस्थितियों में बना रहता है।

सतंप्त अर्जुन को दिशा−निर्देश

यहाँ सीधी चोट अर्जुन के विक्षुब्ध मन पर की गई है, जो युद्ध में लड़ने के नाम पर संतप्त है, क्षुब्ध है। एक बीमार मनःस्थिति वाला अर्जुन (श्रीकृष्ण की दृष्टि में) मनःचिकित्सा के योग्य है। अतः गीता के रचयिता काव्य सृजेता महाकवि श्री व्यास इस श्लोक द्वारा श्रीकृष्ण के श्रीमुख से वह कहलवाते हैं, जो इस समय के लिए सटीक है। यहाँ आत्मज्ञानी का चित्रण चल रहा है, पर साथ−ही−साथ उसके समत्वभाव एवं कभी भी उद्विग्न न होने की विशेषताएँ भी बताई गई हैं। अर्जुन की दुर्बलता का श्रीकृष्ण को ज्ञान है। अतः यह चोट ठीक निशाने पर लगती है। वे उसे बताते हैं कि उनके इस प्रिय शिष्य को आत्मज्ञानी होना चाहिए। समत्व बुद्धि वाला तथा उसकी सबसे बड़ी विशेषता होनी चाहिए कि दुःख−सुख की पराकाष्ठा में भी वह तनिक भी विचलित न हो।

सामान्यतः होता यह है कि हम अपने आस−पास के अनुकूल और प्रतिफल घटनाओं के कारण जन्मी अपनी प्रतिक्रियाओं से दुखी व सुखी होते रहते हैं। जो हमें हमारे स्वभाव और रुचि के अनुकूल हो, वह बात या वस्तु या घटना हमें प्रसन्नता देती है, परंतु जब हम अपनी रुचियों के विरुद्ध परिस्थितियाँ घटती देखते हैं तो हमारे लिए वे दुःख का मूल बन जाती हैं। इसीलिए भगवान कहते हैं कि हमें आत्मज्ञानी ‘ब्रह्मणि स्थितः’ बनना चाहिए। ऐसा महापुरुष अपनी वासनाओं का क्षय कर चुका होता है। वह प्रतिकियारहित जीवन जीता है। उस पर घटनाक्रमों के उतार चढ़ाव का कोई प्रभाव नहीं होता।

प्रतिक्रियाओं में खपता है जीवन

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार सिद्धपुरुष, श्रेष्ठ दिव्यकर्मी ही मात्र कर्म करता है। शेष हम सभी साधारण मानव तो जीवनभर प्रतिक्रियाएँ करते हैं, इसी में सारा जीवन खपा देते हैं। कर्म करने का, श्रेष्ठ गुणों के संपादन का हमें अवसर ही कहाँ मिल पाता है! हमारा जीवन ज्ञानी के समान प्रतिक्रियारहित होना चाहिए। किसी को लग सकता है कि यह जीवन भी कोई जीवन है, जिसमें न दुःख है, न सुख है, न किसी भाव की अनुभूति है, कोई उतार−चढ़ाव नहीं। किसी को भी नीरसता से भरा जीवन लग सकता है। किसी को भी यह जीवित−मृत्यु की तरह जीवन लग सकता है। क्या प्रतिक्रियारहित जीवन ही है? कहीं यह पूर्ण जड़ता को जन्म तो नहीं देगा। ऐसा दिव्यकर्मी बनने से क्या लाभ, जहाँ सुख की अनुभूति भी न हो। इन सब शंकाओं का, जो अर्जुन के मन में उठ सकती हैं, श्रीकृष्ण अगले श्लोक में उत्तर देते हैं, जब वे उसे अक्षय आनंद की प्राप्ति, जो बहिरंग सुख से, परिस्थितिजन्य सुखों से भी बढ़कर बताते हैं। इसीलिए वह इक्कीसवें श्लोक में कह उठते हैं कि जिसका मन बाह्य विषयों में अनासक्त है, वह आत्मस्थित आनंद को प्राप्त करता है तथा जिसका मन ब्रह्म के साथ पूरी तरह तद्रूप हो गया है, वह अक्षय आनंद की प्राप्ति करता है, सदैव उसी में मग्न−प्रसन्न रहता है। इस श्लोक व इसके विस्तार की चर्चा अगले अंक में। (क्रमशः)


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