एक सद्गृहस्थ लुहार था। श्रम और कुशलता से परिवार का पालन-पोषण भली प्रकार कर लेता था। उसके लड़के को अधिक खरच करने की आदत पड़ने लगी। पिता ने पुत्र पर प्रतिबंध लगाया, कहा, “तुम अपने श्रम से चार चवन्नियाँ भी कमाकर ले आओ तो तुम्हें खरच दूँगा अन्यथा नहीं।”
लड़के ने प्रयास किया, असफल रहा तो अपनी बचत की चार चवन्नियाँ लेकर पहुँचा। पिता भट्टी के पास बैठा था। उसने हाथ में लेकर चवन्नियाँ देखीं तथा कहा, यह तेरी कमाई हुई नहीं हैं। यह कहकर उन्हें भट्टी में फेंक दिया। लड़का शर्मिंदा होकर चला गया।
दूसरे दिन फिर कमाई की हिम्मत न पड़ी तो माँ से चुपके से माँगकर ले गया। उस दिन भी वही हुआ। तीसरे दिन कहीं से चुरा लाया, परंतु पिता को धोखा न दिया जा सका। वह हर बार मेहनत की कमाई नहीं कहकर उन्हें भट्टी में फेंकता रहा।
लड़के ने समझ लिया, बिना कमाए बात नहीं बनेगी। दो दिन मेहनत करके वह किसी प्रकार चार चवन्नियाँ कमा लाया। पिता ने उन्हें देखकर भी वही बात दोहराई तथा भट्टी में फेंकने लगा। लड़के ने चीखकर पिता का हाथ पकड़ लिया। बोला, “क्या करते हैं पिताजी, मेरी मेहनत की कमाई इस बेदर्दी से भट्टी में मत फेंकिए।”
पिता मुस्कराया, बोला, “बेटा, अब समझे मेहनत की कमाई का दरह। जब तुम निरर्थक कामों में मेरी कमाई देते हो, तब मुझे भी ऐसी ही छटपटाहट होती है।”
पुत्र की समझ में बात आ गई, उसने दुरुपयोग न करने की कसम खाई और पिता का सहयोग लगा।