गीत तो बहुत गा लिए-अब गीता गाएँ

October 1998

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गीत हमें अच्छे लगते है। अपनी मनःस्थिति के अनुकूल गीत गाते रहते हैं। कहते हैं गीता गाने से मन हल्का होता है। चित्त शान्त होता है, उत्साह बढ़ता है। लेकिन गीत तो बहुत गा लिए। गीतों के साथ संगति देने वाले, स्वर में स्वर मिलाने वाले भी मिल गए, पर कुछ हुआ नहीं। मन भारी का भारी, चित्त चंचल-अशान्त उत्साह शिथिल और इन सबके कारण वही दुर्गति न ऊपर उठे, न आगे बढ़े। संतुलन की स्थिति चित्त को न मिली, उत्साह न आ सका। किसी ने कहा, प्रभु को पुकारों, विश्वास हिल उठा, गला बैठने लगा, लेकिन स्थिति बदली नहीं। आखिर क्यों? क्या वह सुनता नहीं?

अरे नहीं, वह सुनता है और देखता भी है। हम ही हैं अभागे, जो देखते भी नहीं और सुनते भी नहीं। अपने गीत गाने में इतने खो गए है कि उसकी गीता के स्वर सुनाई ही नहीं देते। कानों पर से हाथ हटाएँ, कोलाहल के बीच उभरती हुई उसकी वाणी सुनें। वह तो उद्बोधन के लिए सदा तैयार है हम ही “षाधि माँ त्वाँ प्रपन्न्म्” के लिए तैयार नहीं। वह तो योगक्षेमं वहाम्यहम् अभी भी कह रहा है, हमारे ही अन्तः करण में “ करिष्ये वचनं तवं” का भाव नहीं उभरता।

अब अपनी अलापना बन्द करें, उसकी सुनें। गाना है तो हम भी गीता ही गाएँ। लेकिन गीता भला कैसे गाएँ, वह तो भगवान गाते है। हम तो उसकी सुनें। गीता के स्वर वही जानता है, पर स्वर-में-स्वर हम भी मिला सकते है। गीता वह अपने लिए थोड़े ही गाता है? हम सबमें प्राण संचार के लिए गाता है, गति देने के लिए गाता है। उन स्वरों का सुनें, अंतर में झंकृत होने दें। फिर अपने आप एक सिहरन उठेगी, होंठ फड़केंगे, पाँव थिरकेंगे। यह कोई सामान्य गीत नहीं, यह तो अभियान गीत है। उस पर तबले की नहीं, कदमों की ताल दी जाती है। संगति के लिए अलाप नहीं, क्रिया−कलाप सँभालने पड़ते है।

गीता वह अकेले नहीं गाता, बहुतों को साथ लेकर गाता है। उसका साथ देना, जो सीख ले, वही संगति दे पाता है। उसका ढंग ही कुछ निराला है। अर्जुन दी-तानपूरे का तार चढ़ाकर नहीं-गाण्डीव की प्रत्यंचा से, गुरुगोविन्द सिंह ने मंजीरे नहीं तलवारें खनखनायीं। उसकी संगति में विवेकानन्द ने स्वर अलापा और विनोबा के पग थिरके। हर युग में उसकी गति के अलग ढंग बनते है। "करिष्ये वचनं तव” का संकल्प जगते ही उसका ढंग अपने आप समझ में आ जाता है।

पर हम गीता गाना कहाँ चाहते है? वह गीता कहाँ सुनना चाहते है, जिससे जीवन फड़क उठे और धन्य हो जाए। लेकिन जिस आनन्द की लहरें उठाने के लिए हम गीत गाने का असफल प्रयोग करते रहे है, वह तो गीता गाने से मिलेगा। आओ इसी क्षण अपने गीत की सीमा से आगे बढ़ें, उसकी गीता गाएँ।


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