भीषण प्राकृतिक प्रकोप से जन-जीवन तबाह। बाढ़ का ऐसा सर्वनाशी दृश्य पहले कभी नहीं देखा गया। ऐसे अगणित समाचारों की गूँज अपने देश के कोने-कोने से ही नहीं, विश्व के अन्यान्य भूभागों से भी सुनायी पड़ती रहती है। अजा समूची धरती ही प्राकृतिक आपदाओं एवं विपदाओं से त्रस्त है। प्रदूषित वातावरण, अनियंत्रित जलवायु, विषम मौसम के परिणामस्वरूप कहीं सूखा, अकाल पड़ रहा है, तो कहीं वर्षा, बाढ़-भूस्खलन की मार झेलनी पड़ रही है। इस प्राकृतिक तबाही एवं बर्बादी की व्याख्या इन दिनों वैज्ञानिकों अलनीनो के रूप में कर रहे है। उनके असर इससे समस्त भूमण्डल में मौसम की विषमता का खतरा उत्पन्न हो गया है। मौसमविद् एवं विज्ञानवेत्ता इससे बहुत आतंकित एवं आशंकित है। निकटतम भविष्य में यह और भी भयावह सिद्ध हो सकता है।
‘अलनीनो’ स्पेनिश शब्द है, जिसका अर्थ है-शिशु 25 दिसम्बर क्रिसमस दिवस के आस-पास इसका पता लगने से पेरुवियन मछुआरों ने इसका नामकरण अलनीनो किया। यह खतरनाक शिशु दुनिया समय चक्र के अनुसार तबाही का भीषण दृश्य उपस्थित करता रहा है। इस दौरान अलनीनो समुद्र में गर्मी पैदा करता है, जिससे पेरुवियन सागर का तापमान 3.5 डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ जाता है। अलनीनों के गमग् जल अवस्था के विपरीत लानिनो के ठण्डे जल वाली अवस्था के रूप में जाना जाता है। इस लानिनो को लाविजों यानि कि बूढ़ा आदमी भी कहते है। ये अलनीनो एवं लानिनो सामान्य ऋतु चक्र परिवर्तन के विपरीत अपना तबाही चक्र फैलाते रहते है। अलनीनो के जन्म के बारे में वैज्ञानिकों में मतान्तर है। इसका गहन अनुसंधान करने वाले कोलम्बिया विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञानी रिचर्ड फेयर बँक्स ने स्पष्ट किया है कि यह मात्र एक दशक पुराना शिशु नहीं है, बल्कि हजारों वर्षों से अवतरित है। फेयर बैक्स ने अलनीनो का गहन अध्ययन एवं प्रयोग करने के लिए किरिब्राटी गणतन्त्र के क्रिसमस द्वीप में महीनों गुजारे। इसी स्थान को अलनीनो का केन्द्र माना जाता है। इन्होंने वहाँ पर मूंगों द्वारा इसकी प्राचीनता का पता लगाया। मूँगा एक अच्छा तापमापक और वर्षामापक यंत्र है। जब पानी के तापमान में बढ़ोत्तरी होती है, तो मूँगे स्ट्राँशियम को अपने कंकाल में समाहित कर लेते है। इसे देखकर हजारों साल के तापमान के उतार-चढ़ाव को रिकार्ड किया जा सकता है। वर्षा के दौरान आक्सीजन की अधिकता से ये लवण की मात्रा इकट्ठा करते है। इन मूँगों के माध्यम से फेयर बैक्स ने अपना शोध-निष्कर्ष निकाला कि अलनीनो बहुत प्राचीन समय से इस प्रकृति में है। भले ही उसका स्वरूप इतना भयावह न रहा हो।
उसी खोज में अमेरिका के वण्डर-विल्ड विश्वविद्यालय के भू-आकृति-विज्ञानी जे. वोलर ने पंरु के उत्तरी रेगिस्तान की प्राचीन परतों का अध्ययन किया। अलनीनो काल के अलावा यह स्थान शेष समय में पृथ्वी का सर्वाधिक शुष्क क्षेत्र माना जाता है। अलनीनो के समय तूफानों के पश्चात् होने वाली भारी वर्षा के कारण यहाँ की मिट्टी सघन होकर लाल पर्त में परिवर्तित हो जाती है। इन परतों के आधार पर वोलर का कहना है कि अलनीनो चक्र बीस लाख वर्ष पुराना हो सकता है। ‘यूनिवर्सिटी ऑफ अरकान्सास ट्रीरिग लैब’ के डेविड स्टाहले का मत इससे भिन्न है। इन्होंने जावा के सागौन एवं मैक्सिको के देवदार तथा उत्तर-पश्चिम के कुछ अन्य वृक्षों के आँकड़ों को प्रस्तुत किया है। ये सभी वृक्ष 1703 के आस-पास के है। इन वृक्षों की रिंग वर्षा की तीव्रता के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। स्टाहले का कहना है कि 1880 के बाद मौसम चक्र में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है। 1880 के बाद ये रिंग अलनीनो से काफी प्रभावित हुई। इनमें परिवर्तन 7.5 वर्ष के बजाय 4.2 वर्ष में दर्ज होने लगे। लानिनो के विशिष्ट नमूने 4.2 वर्षों में अपना चक्र पूरा करते है। अतः अलनीनो का जन्म 1880 के लगभग माना गया।
ओहियो स्टेट विश्वविद्यालय के पुराभूतेत्ता लोनी थाम्पसन ने बर्फ का अध्ययन करके मौसम के इतिहास एवं भविष्य की जानकारी करने का प्रयास किया है। ये अपने शोध दल को लेकर पेरु के एण्डीज नामक स्थान पर पहुँचे। उन्होंने वहाँ क्वेलक्काया बर्फ की टोपी में छेद करके अलनीनो वं लानिनो के अल्पकालिक किन्तु विशिष्ट उतार-चढ़ावों को दर्ज किया। इनका भी यही निष्कर्ष रहा है कि अलनीनो काफी पुराना है। प्रिंसटन विश्वविद्यालय के समुद्र-विज्ञानी जार्ज फिलण्डर के मतानुसार अलनीनो मात्र उष्ण कटिबंधीय तथा 1700 किलोमीटर भूमध्य सागरीय समस्या ही नहीं है। वह समस्त संसार के लिए घातक एवं खतरनाक हो सकता है। यह पृथ्वी के दोनों उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्धों को प्रभावित कर सकता है।
18 अगस्त, 1997 की टाइम पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार सामान्य क्रम में अलनीनो दो से सात साल के चक्र में आता है। परन्तु 1990 से प्रत्येक साल इसकी उपस्थित देखी जा रही है। हालाँकि अभी तक इसकी स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। वैज्ञानिक इसके भीषणतम रहस्य के बारे में मौन, आशंकित एवं आतंकित है। क्योंकि उनकी कोई भी भविष्यवाणी कारगर नहीं हो पाती है। अलनीनो क्या ग्लोबल तापमान बढ़ा देने का संकेत दे रहा है अथवा यह प्रकृति के मौसम को बदल देने का उपक्रम है? इस विषय में माइकल ग्लैन्प्ज की चेतावनी है कि अलनीनो के रूप में प्रकृति अपना रौद्र धारण कर चुकी है। अब तक का सबसे बड़ा अलनीनो 1982-83 में आया था। इसमें 2000 व्यक्ति मारे गए तथा 13 अरब डॉलर की सम्पत्ति नष्ट हो गयी थी। संभावना है कि 1999 में पृथ्वी को अब तक के सबसे बड़े?अलनीनो का सामना करना पड़ेगा। वैज्ञानिकों ने समुद्री सतह का तापमान, हवा का दब, गति एवं दिशा तथा समुद्री-जल धाराओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने के पश्चात् यह आशंका व्यक्त की है।
मौसम, गर्मी, बरसात, हवा की दिशा और सूर्य के ताप पर निर्भर करता है। संसार के समस्त भागों में उष्णता एकरूप नहीं रहती। अपने देश के केरल, तमिलनाडु आदि दक्षिण प्रदेशों में औसतन तापमान समान रहता है, तो उत्तर भारत में सर्दी-गर्मी का स्पष्ट विभाजन अनुभव किया जा सकता है। हवा को ताप मिलने पर यह हल्की होकर ऊपर उठती है ओर फिर जहाँ से चली थी वहाँ से दूर वापस नीचे बैठ जाती है। इसके बीच में कम तापमान वाला क्षेत्र बन जाता है। इसी बीच गर्म क्षेत्र से हवा के इस स्थानान्तरण की भरपाई करने हेतु उत्तर क्षेत्र से ठण्डी हवा गर्मी वाले क्षेत्र की ओर प्रवाहित होती है। इसी प्रक्रिया में हवा पवन में परिवर्तित होकर गर्मी को ढोने का काम करती है।
अलनीनो दक्षिण प्रशान्त में समुद्री धाराओं और हवाओं के पथ में भारी व्यतिक्रम ला खड़ा कर देता है। अलनीनो के प्रभाव से दक्षिण अमेरिका के पश्चिम तट के किनारे ठण्डा पानी नहीं बहता। इसके स्थान पर गर्म पानी दक्षिण की ओर स्ित पूर्वी एवं मध्य पैसिफिक समुद्र की ओर प्रवाहित होने लगता है। इससे दक्षिण अमेरिका का यह क्षेत्र असामान्य रूप से गर्म हो उठता है। परिणामस्वरूप बारिश के लिए उपयुक्त हवाएँ इण्डोनेशिया और आस्ट्रेलिया में पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुँच पातीं और ये क्षेत्र सामान्य मानसूनी वर्षा से वंचित हो जाते है। फलतः आस्ट्रेलिया, इण्डोनेशिया, उत्तर पूर्वी ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका में सूखा पड़ता है।
दूसरी ओर दक्षिण अमेरिका के तट पर ऊँचे तापमान के कारण सूखे रेगिस्तानों को भयंकर वर्षा से सराबोर होना पड़ता है। अन्य क्षेत्र जैसे कैलीफोर्निया से क्यूबा तक बारिश की तबाही से घिर जाते है। दक्षिण अटलांटिक में अलनीनो की वजह से हवा के मार्गों में आने वाले बदलाव ने दक्षिण अमेरिका के पूर्वी तट के किनारों के रेत के टीलों की दिशा में परिवर्तन कर दिया है। इसी अलनीनो के प्रभाव से इण्डोनेशिया के जंगलों में लगी आग ने सैकड़ों की जाने ले ली और हजारों-लाखों व्यक्तियों को साँस के रोग से पीड़ित होना पड़ा। आग की धुँध ने एक अरब डॉलर का नुकसान किया। इस्नि जाया प्रान्त में पमरी तरह फसल नष्ट हो गयी। कैलिमिण्टन में साठ हजार से ज्यादा लोग भुखमरी के शिकार हो गए।
मौसम विज्ञानियों के अध्ययन के अनुसार वर्ष 1999 अलनीनो का वर्ष होगा। समूचा एशिया इसके प्रभाव से प्रभावित हो सकता है। इण्डोनेशिया में भयंकर बारिश होगी, इससे प्रबल बाढ़ आएगी। मिट्टी का कटाव होगा। जहरीली राख बहकर नदियों, झीलों तथा प्रवाल भित्तियों पर जम जाएगी, जिससे मछलियों का भण्डार समाप्त हो जाएगा। इण्डोनेशिया के पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधन सचिव विक्टर रामोस का कहना है कि यहाँ अलनीनो की तुलना में लालीनो से गम्भीर खतरा हो सकता है। अलनिनो का यह प्रभाव पेरु एवं इण्डोनेशिया तक ही सीमित नहीं रहेगा। यहाँ की भारी वर्षा से चीन ओर ताईवान के समुद्री किनारे बर्बाद हो गए है। इन दोनों देशों में पिछली गर्मियों की तुलना में इस दशक के सर्वाधिक प्रचण्ड तूफान उठ रहे है।
नासा के समुद्र विज्ञानी एन्थनी वुसालाषी के अनुसार अलनीनो की वजह से दक्षिण में चिली तथा उत्तर में अलास्का भारी मात्रा में प्रभावित हुए है। गर्मी की वजह से ठण्ड के मौसम में भी सेनडियागो गर्मी से त्रस्त हो उठा है। यही नहीं, इससे उत्तरी पूर्वी ब्राजील को चावल, मक्का की फसलों को भारी हानि पहुँची है। वायुमण्डलीय विशेषज्ञ एडवार्ड साराविक ने स्पष्ट किया है कि इससे न केवल किसान और मछुआरे प्रभावित होते है, बल्कि व्यापारियों तथा जल संसाधनों को भी भारी क्षति उठानी पड़ सकती है।
भारतीय तथा विश्व के अनेक मौसम विज्ञानियों ने अपने यहाँ होने वाले मौसम के व्यतिक्रमों एवं प्राकृतिक प्रकोपों के लिए इसे ही जिम्मेदार माना है। उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र की भीषण बाढ़, बिहार एवं आसाम का जल प्रकोप, एवं उत्तरी क्षेत्र में नए भूस्खलन वैज्ञानिकों की दृष्टि में इसी अलनीनो की देन है। हालाँकि इस विषय में मतान्तर है। फिर भी भारतीय क्षेत्र में प्राकृतिक प्रकोपों के पीछे इसी के प्रभाव को आँका जा रहा है। सर्दियों में अलनीनो का होना आगामी ग्रीष्मकालीन मानसून के कमजोर व दुर्बल होने का संकेत है। ऐसा सन् 1972 में पाया गया था। मौसम विशेषज्ञों के अनुसार 1975 से 1982 के बीच भारत में 43 बार कमजोर मानसून आया है। इन 43 विफल मानसून में से 19 अलनीनो वर्ष के दौरान रहे। अतः मानसून की असफलता के पीछे अलनीनो कारक को जिम्मेदार समझा जा रहा है।
प्राकृतिक आपदाओं एवं विपदाओं के कारणों का चाहे जो भी नाम दिया जाए, इस विभीषिका का दंश सारे मानव समाज को झेलना पड़ रहा है। प्रकृति के अपार दोहन और शोषण के कारण ही आज यह स्थिति है। प्रकृति माता के चीरहरण को यदि समय रहते रोका नहीं गया, तो अलनीनो जैसे कई और प्राकृतिक संकट खड़े हो जाएँगे, जिससे मानव समाज को भयावह संकटों का सामान करना पड़ सकता है।