युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष-8 - आ रहा है एकता और समता का नवयुग

October 1998

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ऋतुभाव की प्रजनन को ध्यान में रखते हुए पक्षी नया घोंसला बनाने में जुट जाते हैं। वर्षा से कुछ समय पूर्व ही चींटियाँ अपने बिलों की सुरक्षा तथा आहार की दृष्टि से निश्चित हो जाती हैं। बसंत के आते ही मधुमक्खियों सक्रियता अत्यधिक बढ़ जाती है, जिससे ग्रीष्म के सूखे माहौल में उन्हें शहद की दृष्टि से अभाव का अनुभव न होने लगे। गर्भिणी महिलाएँ प्रसूतिकाल में बच्चों के लिए कपड़े पूर्व से ही जमा कर लेती हैं। बच्चा उत्पन्न होने के उपरान्त अभिभावक, उसके लालन-पालन से लेकर शिक्षा, विवाह, व्यवसाय आदि के लिए साधन जुटाना शुरू कर देते हैं। बीमारियों के फैलने का माहौल बनने पर लोग सुरक्षा के टीके पहले ही लगवा लेते हैं। यह सहज-स्वाभाविक दूरदर्शिता का परिणाम है, जिसमें संभावनाओं को बदलने का काम, पत्थर से सिर टकराने की बात छोड़कर सभी अपनी सुरक्षा और सुविधा की बात सोचने लगते हैं। समझदारी भी इसी में है।

अगली शताब्दी की संभावनाएँ अद्भुत, अनुपम और अभूतपूर्व है। वैज्ञानिक, बौद्धिक और औद्योगिक प्रगति के साथ-साथ ही उदार चेतना का अवमूल्यन भी इन्हीं दिनों हुआ है, जिसके कारण प्रगति के नाम पर जो कुछ हस्तगत हुआ है, उसका दुरुपयोग होने पर परिणाम उलटे रूप में ही सामने आये हैं। सुविधा-साधन अवश्य बढ़े हैं, पर उलझे मानस ने न केवल व्यक्तित्व का स्तर गिराया है, वरन् साधनों को इस बुरी तरह प्रयुक्त प्रयुक्त किया है कि पिछले पूर्वजों की सामान्य स्थिति की तुलना में हम कहीं अधिक समस्याओं में उलझे और विपत्तियों के घटाटोप में घिर गये हैं। दलदल में फँस जाने जैसी स्थिति अवश्य है, पर ऐसा नहीं हो सकता कि देवत्व से एक सीढ़ी नीचे ही समझा जाने वाला मनुष्य असहाय बनकर अपना सर्वनाश ही देखता रहे, समय रहते न चेते।

नवयुग में एकता और समता के दोनों सिद्धान्त हर व्यक्ति को इच्छा या अनिच्छा से अंगीकार करने पड़ेंगे, ऐसा मनीषियों, भविष्यद्रष्टाओं का अभिमत है। शासन और समाज को भी अपनी मान्यताएँ, व्यवस्थाएँ इसी प्रकार की बनानी पड़ेगी। प्रवाह और प्रचलन के अनुरूप अपने प्रवाह में आवश्यक परिवर्तन करने होंगे। अड़ंगेबाज तो हर भली-बुरी व्यवस्था में अपनी उद्दण्डता का परिचय देने के लिए कहीं-न-कहीं से आ टपकती है। जलते दीपक की लौ बुझाने के लिए पतंगों के दल उस पर टूट पड़ने से बाज़ नहीं आते, भले ही इस दुरभिसंधि में उन्हें अपने पंख जलाने और प्राण गँवाने पड़े। महाकाल के निर्धारण एवं अनुशासन के सामने कोई उद्दण्डता अवरोध बनकर अड़ेगा और व्यवधान बनकर रोकथाम करेगी, इसकी आशंका न की जाय तो ही ठीक है।

अगले नवयुग की, इक्कीसवीं सदी की सम्पूर्ण व्यवस्था एकता और समता के सिद्धान्तों पर निर्धारित होगी। हर क्षेत्र में, हर प्रसंग में उन्हीं का बोलबाला दृष्टिगोचर होगा। इस भवितव्यता के अनुरूप हम अभी से धीमी-धीमी तैयारियाँ शुरू कर दें तो यह अपने हित में होगा। ब्रह्ममुहूर्त में जागकर नित्यकर्म से निबट लेने वाले व्यक्ति सूर्योदय होते ही अपने क्रिया-कलापों में जुट जाते हैं, जबकि दिन चढ़े तक सोते रहने वाले कितने ही कामों में पिछड़ जाते हैं।

मूर्धन्य मनीषियों का कहना कि अगले दिनों एकता, एक व्यवस्था होगी। सभी लोग मिल-जुलकर रहने के लिए विवश होंगी। डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाने, ढाई ईंट की मस्जिद खड़ी करने का कोई उपहासास्पद खिलवाड़ नहीं करेगा। सभ्यता के बढ़ते चरणों में एकता ही सबकी आराध्य होगी। विलगाव का प्रदर्शन करने वाली बाल -खिलवाड़ देर तक अपनी अलग पहचान बनाये न रह सकेगी। बिखराव सहन न होगा। विलगाव को कहीं से भी समर्थन नहीं मिलेगा। संकीर्ण स्वार्थपरता और आपने मतलब रखने वाली क्षुद्रता किसी भी क्षेत्र में व्यवहारिक न होगी। मिल−जुलकर रहने पर ही शाँति, सुविधा और सुरक्षा, प्रगति की दिशा में बढ़ा जा सकेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श अब समाजवाद, समूहवाद-संगठन-एकीकरण का विधान बनकर समय के अनुरूप कार्यान्वित होगा। उसे सभी विज्ञजनों का समान समर्थन भी मिलेगा।

अगली दुनिया एकता का लक्ष्य स्वीकारने के लिए निश्चय कर चुकी है। अड़ंगेबाजी से निबटना ही शेष है। वे प्रवाह में बहने वाले पत्तों की तरह लहरों पर उछलते-कूदते कही-से-कही जा पहुँचेंगे। चक्रवात से टकराने की मूर्खता करने वाले तिनकों के अस्तित्व उस वायु भ्रमर में फँसकर अपना अस्तित्व तक गंवा बैठते हैं। एकता अब अपरिहार्य होकर रहेगी। जाति-पाँति के नाम पर, रंग, वर्ण और लिंग के आधार पर अलग-अलग कबीले बसाकर रहना आदिम काल में ही संभव था। अब के औचित्य को समर्थन देने वाले युग में नहीं।

संसार भर में एक ही जाति का अस्तित्व रहेगा। सुसंस्कृत-सभ्य मनुष्य जाति का। काले, पीले, सफेद, गेहुँआ आदि रंगों की चमड़ी होने से किसी को भी अपनी अलग बिरादरी बनाए रह सकता अब संभव न होगा। समझदारी के माहौल में मात्र न्याय ही जीवित रहेगा और औचित्य ही सराहा, अपनाया जाएगा। तूती उसी की बोलेगी।

धर्म-सम्प्रदायों के नाम पर, भाषा, जाति, प्रथा, क्षेत्र आदि के नाम पर जो कृत्रिम विभेद दीवारें गिर गई हैं वे लहरों की तरह अपना-अपना अलग प्रदर्शन भले ही करती रहें, पर वे सभी एक ही जलाशय की सामयिक हलचल भर मानी जाएँगी। पानी में उठने वाले बबूले थोड़ी देर उछलने-मचलने का कुतूहल दिखाते हैं। इसके बाद त्वरित ही उनका अथाह जलराशि में विलय-समापन हो जाता है। मनुष्य को अलगाव और बिखराव में बाँधने वाले प्रचलन इन दिनों कितने ही पुरातन, शास्त्र सम्मत अथवा संकीर्णता पर आधारित होने के कारण कितने ही प्रबल प्रतीत क्यों न होते हों, पर अगले तूफान में इन बालुई घर-घरौंदों में से एक का भी पता न चलेगा। मनुष्य जाति अभी इन दिनों एक भले ही न हो, पर अगले ही दिनों तो वह सुनिश्चित रूप से एक बनकर रहेगी।

धरातल एक देश बनकर रहेगा। देशों की कृत्रिम दीवारें खींचकर उसके टुकड़े बने रहना न तो व्यावहारिक रहेगा, न सुविधाजनक। इनके रहते शोषण, आक्रामकता, आपाधापी का माहौल बना ही रहेगा। देशभक्ति के नाम पर युद्ध छिड़ते रहेंगे और समर्थ दुर्बलों को पीसते रहेंगे। ‘जंगल का कानून-मत्स्य न्याय’ इस अप्राकृतिक विभाजन की व्यवस्था ने ही उत्पन्न किया है। हर क्षेत्र का नागरिक अपनी ही छोटी कोठरियों में रहने के लिए बाधित है। वहाँ यह सुविधा नहीं कि अपनी अनुकूलता वाले किसी भी क्षेत्र में बस सके।

कुछ देशों के पास अपार भूमि है, कुछ को बेतुकी घिचपिच में रहना पड़ता है। कुछ देशों ने अपने क्षेत्र की खनिज एवं प्राकृतिक सम्पदाओं पर अधिकार घोषित करके धन-कुबेर जैसी स्थित प्राप्त कर ली है और कुछ को असीम श्रम करने पर भी प्राकृतिक सम्पदा का लाभ न मिलने पर असहायों की तरह तरसते रहना पड़ता है। भगवान ने धरती को अपनी सभी पुत्रों के लिए समान सुविधा देने के लिए सृजा है। फिर कुछ देश अनुचित अधिकार को अपनी पिटारी में बंद कर देश को दाने-दाने के लिए तरसायें, यह विभाजन अन्यायपूर्ण होने के कारण देर तक टिकेगा नहीं। आज की दादागिरी आगे भी इसी प्रकार अपनी लाठी बजाती रहेगी, यह हो नहीं सकेगा। विश्व एक देश होगा और उस पर रहने वाले सभी मनुष्य ईश्वरप्रदत्त सभी साधनों को उपयोग एक पिता की संतान होने के नाते कर सकेंगे। परिश्रम और कौशल के आधार पर किसी को कुछ अधिक मिले वह दूसरी बात है। पर पैतृक सम्पदा पर तो सभी संतानों का समान अधिकार होना ही चाहिये। औचित्य होना चाहिए, ऐसा मनीषी ने घोषित किया है। न्याय युग में ऐसे ‘हो रहा है’ या ‘हो गया’ कहा जाएगा।

संसार की एक भाषा होनी चाहिये ताकि कहीं के निवासी अन्यत्र कही भी रहने वालों के साथ पड़ोसी की तरह बिना किसी कठिनाई के वार्तालाप कर सकें। आज तो समीपवर्ती क्षेत्रों के लोग भाषाई कठिनाई के कारण गूँगे-बहरों की तरह आपस में इशारे से बात करते हैं। कोई किस से अपने मन की बात कह सकने में असमर्थ है। पुस्तकों में छिपा अगाध ज्ञान इसी भाषाई क्षेत्रों में कैद होकर रह जाता है। अनुवाद और प्रकाशक की व्यवस्था अत्यन्त महँगी और अतीव कष्टसाध्य है। उसका लाभ सभी देश, भाषा के लोग समान रूप से नहीं उठा सकते। इस कारण किसी क्षेत्र में उभरा विश्व भर को प्रभावित करने वाला विचार भी उसी झलक-झाँकी प्राप्त कर सके, इन समस्त बाधाओं से निबटने के लिए हमें अपनी भाषा का व्यामोह छोड़ना होगा और हृदय की विशालता के साथ एक घटक के रूप में जुड़ जाने के लिए मानस और साहस जुटाना पड़ेगा। इस तथ्य को हमें समूची मानव जाति को एकता के केन्द्र पर केन्द्रित करने के लिए साहसिक तत्परता अपनाते हुए संभव कर दिखाना होगा।

धर्म-सम्प्रदायों की विभाजन रेखा भी ऐसी है, जो अपनी मान्यताओं को सच और दूसरों के प्रतिपादनों को झूठा सिद्ध करने में अपने बुद्धि-वैभव से शास्त्रार्थ, टकरावों के आ पड़ने पर

उतरती रही है। अस्त्र-शस्त्रों वाले युद्धों ने कितना विनाश किया है, उसका प्रत्यक्ष होने के नाते लेखा-जोखा लिया जा सकता है, अपनी धर्म मान्यता दूसरों पर थोपने के लिए कितना दबाव और कितना प्रलोभन, कितना पक्षपात और कितना अन्याय कामों में लगाया गया है, इसकी परोक्ष विवेचना किया जाना संभव हो तो प्रतीत होगा कि इस क्षेत्र के आक्रमण भी कम दुखदायी नहीं रहे है। आगे भी उसका इसी प्रकार परिपोषण और प्रचलन होता रहा तो विवाद, विनाश और विवाद घटेंगे नहीं बढ़ते ही रहेंगे। अनेकता में एकता खोज निकालने वाली दूरदर्शिता को सम्प्रदायवाद के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए।

आरंभिक दिनों में सर्व-धर्म-समभाव सहिष्णुता बिना टकराये अपनी-अपनी मर्जी पर चलने की स्वतंत्रता अपनाए रहना ठीक है और काम चलाऊ नीति भी। अन्ततः विश्वमानव का एक ही मानव-धर्म होगा। उसके सिद्धान्त, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के साथ जुड़ने वाली आदर्शवादिता पर अवलम्बित होंगे। मान्यताओं और परम्पराओं में से प्रत्येक को तर्क, तथ्य, प्रमाण परीक्षण एवं अनुभव की कसौटियों पर कसने के उपरान्त ही विश्व-धर्म की मान्यता मिलेगी। संक्षेप में उसे आदर्शवादी व्यक्तित्व और न्यायोचित निष्ठा पर अवलम्बित माना जाएगा। विश्वधर्म की बात आज भले ही सघन तमिस्रा में कठिन मालूम पड़ती हो, पर वह समय दूरी नहीं, जब एकता का सूर्य उगेगा और इस समय जो अदृश्य है, असंभव प्रतीत होता है, वह उस वेला में प्रत्यक्ष एवं प्रकाशवान होकर रहेगा। यही है आने वाली सतयुगी समाज व्यवस्था की कुछ झलकियाँ, जो हर आस्तिक को भविष्य के प्रति आशावान् बनाती है।


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