युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष 10 - महापुरश्चरण का स्वरूप और विस्तार

October 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पिछली दो शताब्दियों को विज्ञान के उदय अभिवर्द्धन और चमत्कार प्रस्तुत करने का अवसर कहा जा सकता है। प्रत्यक्षवाद द्वारा तत्त्वदर्शन को पीछे धकेले जाने का अवसर भी यही रहा। पचाने की क्षमता से अधिक साधन प्राप्त होने पर उत्पन्न उन्माद ऐसा ही कुछ करा डालता है जो विवेकशीलता की दृष्टि से नहीं किया जाना चाहिये। इधर प्रकृति के दरबार में किसी के साथ लिहाज नहीं करनी का फल भुगतना एक अनिवार्यता है जो होकर ही रहता है। यही क्रम चल भी रहा है।

विज्ञान ने औद्योगीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया। विशालकाय कल कारखाने लगे। उत्पादन की मात्रा इतनी बढ़ी की उसे खपाने के लिये मंडियों की आवश्यकता पड़ी। इसका एक प्रभाव यह हुआ कि अविकसित देशों पर आधिपत्य जमाकर उन्हें कच्चा माल देने ओर बना माल खरीदने के लिये विवश किया गया। भारत पर अंग्रेजी शासन का यही प्रधान कारण था। औद्योगीकरण से सम्पन्न अन्य देशों ने जहाँ वश चला वहाँ पंजे गड़ाये। दूसरे समर्थ राष्ट्रों से यह आशातीत लाभ देखा न गया और वे आपस में लड़ पड़े।इन दो सौ वर्ष में छुटपुट युद्ध तो हजारों हुये, पर दो विश्वयुद्ध ऐसे हुये, जिन्हें अभूतपूर्व कहा जा सकता हैं इनमें जन धन की अपार क्षति हुई।

पिछले छोटे बड़े युद्धों के परिणाम देखकर भी तीसरे विश्वयुद्ध की हवस शान्त नहीं हुई है। युद्धोन्माद अणु आयुधों के अम्बार लगाने पर उतारू है। यदि युद्ध हुआ तो धरती तल पर शायद एक भी जीवधारी न बचेगा। यदि न हुआ तो भी आणुविक कचरे और विकिरण से ही जनसमाज के अर्द्धमृतक बनने जैसी स्थिति पैदा हो रही है। कि यह कथित प्रगति वर्तमान समुदाय और भावी पीढ़ी के निबटने लिये ऐसे संकट खड़े कर रही है जिनसे निबटना कठिन है और अगले दिनों तो पूरी तरह गतिरोध ही हो जायेगा।

प्रत्यक्षवाद ने तत्त्वदर्शन को झुठलाने में बड़ी हद तक सफलता पायी है। फलतः अनाचार अपराध इस तेजी से बढ़े है कि जनसाधारण अपने आपको असुरक्षित आशंकित आतंकित अनुभव कर रहा है। शोषण और छल की तेजी से बढ़ती हुई प्रवृत्ति कहीं एक दूसरे की चीरकर खा जाने की स्थिति तक न पहुँचा दे? स्नेह सौजन्य सहकार घटने तथा लिप्सा लालसाओं के अनियंत्रित होने पर इसके अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है कि दैत्यों दानवों का युग फिर लौट आये?

संयम गया कामुकता को छूट मिली तो बहुप्रजनन स्वाभाविक है चक्रवृद्धि क्रम से बढ़ रही जनसंख्या की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये साधन उस गति से बढ़ नहीं सकते। न तो पृथ्वी को रबड़ की तरह खींचकर बढ़ाया जा सकता है ओर न उत्पादन दिन दूना रात चौगुना हो सकता हैं। औद्योगीकरण के बढ़ते प्रदूषण ने हरीतिमा पर और भी गहरी चोट की है। हरीतिमा घटने से भूमिक्षरण रेगिस्तानों के विस्तार जैसी समस्याएँ विकराल हो रही है। पर्यावरण का असन्तुलन ऋतुचक्र को ही अस्त−व्यस्त किये दे रहा हैं जनसंख्या की बाढ़ न रुकने से विकास के लिये किये गये प्रयास विफल होते जा रहे है। इन सब का परिणाम क्या होगा? इसका अनुमान लगाते ही हर विचारशील का मन घबराने लगाते है।

किसी भी शक्ति अथवा साधन का दुरुपयोग बुरा होता है। मर्यादाएँ टूटी और वर्जनाओं का उल्लंघन द्रुत गति से हुआ तो उसके परिणाम भयावह ही हो सकते है। समस्याओं विभीषिकाओं विपत्तियों के घटाटोप बढ़ रहे है। पतन ओर पराभव का क्रम जिस तेजी से गति पकड़ रहा है उसे देखते हुये अगले दिनों की भयंकरता में कोई संदेह नहीं रह जाता है।

प्रत्यक्ष ही नहीं परोक्ष भी प्रदूषित

मनुष्य का चिन्तन चरित्र और व्यवहार व्यक्ति और समाज को तो प्रभावित करता ही है सूक्ष्म जगत भी उससे अछूता नहीं रह पाता। विकृत चिन्तन और भ्रष्ट चरित्र सूक्ष्म जगत के अदृश्य वातावरण को प्रदूषण से भर देते है। प्रकृति की सरल स्वाभाविकता बदल जाती है और वह रुष्ट होकर दैवी आपत्तियाँ बरसाने लगती है। इन दिनों अतिवृष्टि अनावृष्टि बाढ़ दुष्काल भूकम्प जैसी विपत्तियाँ बड़े क्षेत्रों को प्रभावित कर रही है। शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों में भी भारी बढ़ोत्तरी हो रही है। मानवी सद्भावना में, व्यक्तित्व के स्तरों में बुरी तरह गिरावट आ रही है। इन सब के कारण वर्तमान जटिल और भविष्य धूमिल बनता जा रहा है। अनेक विसंगतियाँ जड़ें जमाती रही हैं। जो लोग इन परिस्थितियों में सुधार करने की स्थिति में है। उनमें भी इन कर्तव्यों के प्रति आवश्यक उत्साह नहीं है। सदुपयोग से वही शक्तियाँ सुख सुविधा सम्पन्न स्वर्गीय वातावरण बना सकती है। दुरुपयोग तो नरक के अलावा और कुछ बना ही नहीं सकता। अंतरिक्ष का बढ़ता हुआ तापमान ध्रुव प्रदेशों की बर्फ गलाकर जलप्रलय जैसी स्थिति बना सकता है। असंतुलन के दूसरे पक्ष के कारण हिमप्रलय की संभावनाएँ विज्ञजनों द्वारा व्यक्त की जा रही है। धरती के अन्तरिक्ष कवच ओजोन की पर्त क्षीण होकर फट गयी तो ब्रह्माण्डीय किरणें धरती के जीवन को भूतकाल का विषय बना सकती है। यह सब और कुछ नहीं मनुष्य की उनकी करतूतों की प्रतिक्रिया है जो पिछली दो शताब्दियों में उन्मादी उपक्रम अपनाकर महाविनाश को आमन्त्रण दे रही है।

परन्तु स्रष्टा ऐसा होने नहीं देगा उसने इस धरती को उसकी प्रकृति सम्पदा को मानवीसत्ता का बड़े मनोयोगपूर्वक संजोया है। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अनेकों बार अनेकों प्रकार की विकट परिस्थितियाँ आयी है। उन्हें टालने वाले ने समय रहते टाला है और टालने दिशा में बहते प्रवाह को उलट कर सीधा किया है यदा यदा हि धर्मस्य.........वाला वचन समय समय पर पूरा होता रहा है। अब भी वह पूरा होकर रहेगा। इसलिये सतर्कता बरतते हुये भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है। विनाश की विभीषिकाओं में सन्देह नहीं पर यह भी निश्चित है कि समय चक्र पूर्व स्थिति की और घूम गया है। पुरातन सतयुगी वातावरण का पुनर्निर्माण होकर रहेगा।

रात्रि जब समाप्त होती है, तो एक बार सघन अँधियारा छा जाता है। बुझते दीपक की लौ तेज हो जाती है। संव्याप्त असुरता भी याद अपने विनाश की वेला देखकर पूरी शक्ति के साथ आक्रमण करे तो आश्चर्य नहीं। प्राचीनकाल में असुरों को जब अपनी दुष्टता का समापन होता दिखा तो उन्होंने देवत्व पर सारी शक्ति झोंककर आक्रमण किया। हारा जुआरी एक बार साहस बटोरकर सब कुछ दाँव पर लगा देता है भले ही उसे वह सब गंवाना पड़े। युगसंधि में ऐसा ही हो तो आश्चर्य नहीं।

परिवर्तन की वेला युगसंधि युगसंधि प्रसव पीड़ा जैसा समय है। शिशु जन्म के समय जननी पर क्या बीतती है इसे सभी जानते है पर पुत्र रत्न को पाकर उसकी खुशी का ठिकाना भी नहीं रहता। फसल जिन दिनों पकने को होती है उन्हीं दिनों खेतों पर पक्षियों के झुण्ड टूटते है, युगसंधि की इस वेला में जहाँ पके फोड़े को फूटने और दुर्गन्ध भरा मवाद निकलने की संभावना है वहाँ यह भी निश्चित है कि आपरेशन के बाद दर्द घटेगा घाव भरेगा और संचित विकारों से छुटकारा मिलेगा। देवताओं की संयुक्त शक्ति से असुर निकंदिनी दुर्गा का अवतरण हुआ था। उन्हें संघशक्ति भी कहा जाता है। ऋषियों का रक्त संचय करके घड़ा भरा गया उससे सीता उत्पन्न हुई जिनने लंका की असुरता को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। समुद्र सेतु बनना दुदन्ति दानवों को निरस्त करना रामराज्य का सतयुगी माहौल बनाना रीछ वानरों की सेना द्वारा ही संभव हुआ। उस पुण्य प्रयोजन में गीध गिलहरी तक ने योगदान दिया। बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन ने संसार को हिलाया,यह पुरुषार्थ भिक्षु और भिक्षुणियों के समुदाय का ही था। गाँधी के सत्याग्रही ही खोयी हुई आजादी वापस लाने में समर्थ हुये। तिनके मिलकर रस्सी और धागों के मिलने से कपड़ा बनने की बात सभी का विदित है। युगसंधि के दुहरे मोर्चे पर लड़ना वरिष्ठ प्राणवानों के लिये ही संभव होगा। अनिष्टों को निरस्त करना और उज्ज्वल भविष्य को धरती पर स्वर्ग उतारने जैसा उदाहरण प्रस्तुत करना देवमानवों की संयुक्त शक्ति से ही संभव है। इसी उमंग को उमगाना अदृश्य भगवान का साकार रूप में अवतरण कहा जा सकता है।

युगसंधि बारह वर्ष की है। अब से लेकर सन् 2000 तक इक्कीसवीं सदी से नवयुग सतयुग आरम्भ होने की भविष्यवाणी अनेक अध्यात्मवादी एवं परिस्थितियों का आकलन करने वाले विज्ञानी एक स्वर में प्रतिपादित करते रहे है। इस कथन में भविष्यवक्ताओं ओर ज्योतिषविदों का भी प्रतिपादन सम्मिलित है। इक्कीसवीं सदी निश्चय ही उज्ज्वल भविष्य का संदेश लेकर आ रही है। पर हम सबको गुजरना पड़ेगा। इस बारह वर्ष की अवधि में जहाँ तक सृजन का शिलान्यास होगा वहाँ संचित अवांछनीयताओं के दुष्परिणामों से भी निबटना होगा। इसलिये इस अवधि को दुहरे उत्तरदायित्वों से लदा हुआ कहा गया है। इसमें वरिष्ठजनों को सहभागी बनाकर हनुमान और अर्जुन जैसी भूमिका निभानी होगी। परोक्ष प्रक्रिया भगवान की होगी, पर उसका श्रेय तो प्रबल पुरुषार्थ करने वालों को ही मिलेगा।

प्रियजनों की भूमिका

प्रयासों की तीन दिशाधाराएँ है- 1 लोकमंगल के लिये जो प्रत्यक्ष उपाय अपनाए जा रहे है उनसे सहयोग करना 2 विचारक्रान्ति को व्यापक बनाने की विशिष्ट भूमिका सम्पन्न करना। 3 सामूहिक अध्यात्म साधना से सूक्ष्म वातावरण संव्याप्त प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलना। प्रथम सोपान को राजतंत्र अर्थतन्त्र एवं स्वयं सेवी संस्थान पूरा कर रहे है तो भी उसमें यथाशक्ति सहयोग प्रज्ञापरिजनों को भी देना चाहिये।

शेष दो उपेक्षित कार्य ऐसे है जो युगशिल्पियों को विशेष रूप से अपने कंधे पर उठाने हैं। जनमानस का परिष्कार सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन एक ऐसा महत्वपूर्ण कार्य है जिसके सहारे उस दुर्बुद्धि से लोहा लिया जाना है, जो क्षमताओं का दुरुपयोग करने नारकीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के ले लेखनी वाणी और सद्भाव सम्पन्नों के संगठनों को सक्रिय किया जा रहा है अब उसमें ओर भी अधिक गति देने की आवश्यकता पड़ेगी। शाँतिकुँज में युग सृजेताओं की एक बहुत बड़ी संख्या इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति के लिए संगठित की जा रही है एक एक महीने के और नौ नौ दिन के प्रशिक्षण सत्र इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किये जा रहे है। युगसाहित्य का सृजन और युग चेतना का आयोग वितरण करने वाले सत्संग आयोजनों का उद्देश्य यही है। दीप यज्ञों की श्रृंखला इसीलिये व्यापक बनाई जा रही है कि युगचेतना से लोकमानस को आन्दोलित किया जा सके और और जिनकी प्राणचेतना जीवन्त है उन्हें इस विषम वेला में कुछ पुरुषार्थ करने के लिये कटिबद्ध किया जा सके।

महापुरश्चरण

इसके अतिरिक्त तीसरा पक्ष है - सूक्ष्म जगत के परिशोधन एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु दिव्य उपासना। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण संभव बनाने के लिये सामूहिक महासाधना का नियोजन। यह दिव्य पुरश्चरण सन्निकट की आश्विन नवरात्रि से शाँतिकुँज से आरम्भ किया गया है। नाम है युगसंधि महापुरश्चरण। शाँतिकुँज हरिद्वार में यह पुण्य आयोजन सन् 2000 तक चलता रहेगा। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ के साथ ही इसकी पूर्णाहुति होगी। जिसे साधना के अनुरूप ही इतना बड़ा कहा जा सकेगा जिसकी तुलना अब तक के किसी विशालतम समापन से भी न की जा सके।

पाण्डव वनवास में बारह वर्ष साधनारत रहे। राम ने चौदह वर्षों में से बारह वर्ष तप प्रयोजन में ओर दो वर्ष असुर संहार में लगाए। पार्वती का भागीरथ का दधिचि का च्यवन का तप भी बारह वर्ष का रहा। बुद्ध अपने में दैवी शक्ति का अवतरण करने हेतु बारह वर्ष तक तप में रहे। शंकराचार्य और चाणक्य भी प्रायः इतने ही दिन साधनारत रहे। युग संधि के उभयपक्षीय प्रयोजन भी बारह वर्ष की नरदेवों की इतनी लम्बी साधना से ही पूर्ण होंगे।

प्रस्तुत साधना का केन्द्र शाँतिकुँज बन रहा है। जिनको उपासना की गरिमा पर विश्वास है उन सभी का आवाहन किया गया है कि इस अवधि में एक अनुष्ठान यहीं सम्पन्न करें और विराट सामूहिक जप यज्ञ के भागीदार बनने का श्रेय प्राप्त करें। आशा की जाती है कि निर्धारित अवधि में लाखों व्यक्ति इसके सहगामी बन सकेंगे। उद्देश्य तो युगपरिवर्तन के दोनों पक्षों को सम्पन्न कर सकने वाला दिव्य वातावरण बनाना है पर साथ ही यह बात भी है कि दूसरों के लिये मेंहदी पीसने वाले के अपने हाथ उससे पहले ही रच जाते है। साधक अपने लिये सुरक्षा कवच प्राप्त करने में प्रतीक परिष्कार से लाभान्वित होने से सफल हो सकते है। यदि उनके निष्ठा बीच में ही न डगमगा गई तो लक्ष्य तक पहुँचने के ले अनवरत प्रयत्न करने वालों का सेनापतियों जैसा श्रेय मिलेगा।

सूर्य की ध्यान धारणा

प्रस्तुत युगसाधना में अन्य क्रिया कलाप तो साधारण अनुष्ठानों की भाँति ही रहेंगे। पर एक बात विशिष्ट रहेगी सूर्योपस्थान भगवान सूर्य की निकटता उन्हें ही इस महान प्रक्रिया का अधिष्ठाता वरण किया गया है इसलिये जप गायत्री का पूजन गायत्री का करते हुये भी प्रातः काल उदय होते हुये स्वर्णिम आभा वाले सविता देव का ध्यान करते रहना होगा। ध्यान नहीं प्राण प्रत्यावर्तन का भाव समर्पण भी। साधक का प्राण सविता में प्रवेश करके वैसा ही लाल हो जाता है जैसा भट्टी में कुछ समय पड़ा रहने के उपरान्त सोना लाल हो जाता है। ईंधन को आग में डालने पर भी यही होता है। यह समर्पण हुआ। दूसरा भाग है सविता का साधक की सत्ता में अवतरण। जिस प्रकार किरणें धरती पर उतरती है और प्रभावक्षेत्र को ऊर्जा एवं आभा से भर देती है। उसी प्रकार साधक भी अनुभव करेगा कि सविता का ओजस तेजस वर्चस बरसता है और उपासनारत को अपने दिव्य अनुग्रह से ओत प्रोत कर देता है।

गहरी साँस लेते हुये सूर्य के अवतरण की ओर धीरे धीरे साँस छोड़ते हुये सूर्यार्घ्य दान की तरह सविता को आत्मा समर्पण करने की भावना करते रहना चाहिये।

इक्कीसवीं सदी में सूर्य तेजस् में भी अनुकूल परिवर्तन होगा और उसका प्रभाव समस्त वातावरण पर पड़ेगा। प्राणियों में भी क्षमता और चेतना विकसित होगी। ईंधन का विद्युत रोग नियंत्रण का समुद्र से पानी लाकर मेघ बरसाने वायुशोधन का काम तो सूर्य अभी भी करता है। सड़ी हुई दुर्गन्ध को मिटाने और विषाणुओं का हनन करने में उसके चमत्कार निरन्तर देखे जाते हैं शरीरों में विटामिन डी का उत्पादन स्रोत वहीं हैं अगले दिनों उसकी प्रखर चेतना क्षेत्र को भी अपने प्रभाव में लेगी। गिरों को उठाने और उठों को उछालने में जहाँ मानवी प्रयत्न काम करेंगे वहाँ उसे सफल संभव बनाने में सविता की अदृश्य भूमिका भी काम करेगी। आद्यशक्ति गायत्री का अधिष्ठाता भी तो सविता ही है। उसी के प्रतीक रूप में दीपक ज्योति को तथा अगरबत्ती को प्रतिष्ठित किया जाता है।

सूर्य योग के सम्बन्ध में सूर्य पुराण सूर्य उपनिषद् चाक्षुश्योपनिषद् आदि में बहुत कुछ कहा गया है सावित्री और सविता का अपने समय की आवश्यकता भली प्रकार पूरी कर सकेगा, ऐसा विश्वास किया जाता है। निराकरण उन्नयन के लिये जो भौतिक प्रयत्न चल रहे है उनमें से इस दिव्य साधना का समावेश हो जाने से लक्ष्य की पूर्ति में असाधारण योगदान मिलने की आशा है। इसलिये पुरश्चरण में गायत्री मंत्र और सूर्योपासना का महत्व दिया गया हैं दैनिक साधना की पूर्णाहुति महातेज की अभ्यर्थना होगी ऐसी जिसे अभूतपूर्व कहा जा सके।

शाँतिकुँज को केन्द्र यहाँ की परम्परागत विशेषताओं को ध्यान में रखते

हुये बनाया गया है। गंगा को गोद हिमालय की छाया सप्तऋषियों का तपस्थली जैसी पुरातन और गायत्री जप यज्ञ व गुरुकुल आरण्यक जैसी विशेषताओं के कारण वह एक प्रकार से असाधारण विशेषताओं से सम्पन्न हो चला है। घर गृहस्थी के वातावरण की अपेक्षा ऐसे दिव्य केन्द्र में रहकर साधना करने में कितनी अधिक विशेषता हो सकती है उसकी अनुमान कोई भी लगा सकता है। सभी इच्छुकों को अवसर मिल सके इस दृष्टि से नौ दिवसीय साधना सत्र बारह वर्ष तक चलते रहने का संकल्प प्रकट किया गया है। अन्तरिक्ष का विभाजन बारह राशियों में हुआ है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते हुये ठीक अपनी उसी स्थिति में बारह वर्ष में आती है। इस तथ्य को देखते हुए प्रस्तुत पुरश्चरण की अवधि बारह वर्ष रखी गयी है।

विस्तार विश्वव्यापी होगा

युगसंधि पुरश्चरण शाँतिकुँज में उद्भूत अवश्य हुआ हैं पर उसका विस्तार उद्गम तक ही सीमित न रहकर विश्वव्यापी बनेगा। कम से कम प्रज्ञा परिवार के तो सभी लोग उसमें भाग लेंगे ही। जो घर से बाहर नहीं जा सकते, अत्यधिक व्यस्त या प्रतिबंधित है वे अवकाश के किसी भी समय कम से कम दस मिनट मानसिक रूप से गायत्री का जप और ध्यान कर सकते है। मन में ही सूर्यार्घ्य देने की भावना की जा सकती है और शाँतिकुँज पहुँचकर म नहीं मन उस उद्गम की परिक्रमा लगाने की भी।

जहाँ प्रज्ञापीठें बनी है जहाँ प्रज्ञा मण्डल या महिला मण्डल बने हो गायत्री परिवार जीवन्त है वहाँ भी महापुरश्चरण की एक इकाई अपने यहाँ प्रतिष्ठित करनी चाहिये। हर रोज बन पड़ना कठिन रहे तो सप्ताह में एक दिन इसके लिये निश्चित किया जा सकता है रविवार यह सूर्य का दिन भी है। उस दिन किसी स्थान में अथवा बारी बारी आमंत्रित रखा जा सकता है।

सामूहिक गायत्री पाठ। दीप यज्ञ का प्रज्ज्वलन। पाँच दीपक एक माचिस अगरबत्ती की थालियों में सूर्य के रूप में स्थापना। आधा घण्टा मानसिक जप ध्यान युग संगीत का सहगान कीर्तन यन्मण्डलम् स्तोत्रों से सविता का स्तवन। इसके बाद झोला पुस्तकालय उपक्रम में सभी उपस्थितजनों को भागीदार बनाना। जिनके जितनों से संबंध हो वे उतनी पुस्तकें पढ़ाने के लिये मण्डल से ले जाये और अगले सप्ताह जब आवें तो अधिकाधिक शिक्षितों पढ़ाने और अशिक्षितों को सुनाने के उपरान्त वापस कर दें। यही है साप्ताहिक साधना का वह उपक्रम जिसमें दिव्य अवतरण तो प्रधान है ही पर साथ में जनमानस को परिष्कृत करने वाले ज्ञानयज्ञ का भी समावेश है। युगसंगीत और युगसाहित्य द्वारा आलोक वितरण यह दोनों कार्य इसी स्तर के है जिनके माध्यम से विचार क्रान्ति अभियान का भी विस्तार होता है।

पंच से पच्चीस बनने का प्रेरणा मंत्र किसी को भी भूलना नहीं चाहिये। इसी आधार पर तो अपना सीमित परिवार विश्वव्यापी बनेगा। साप्ताहिक आयोजनों में सम्मिलित होने वाले इस प्रयत्न में रहे कि अगले सप्ताह अपने प्रभावक्षेत्र से अधिक लोगों को लेकर चलें। उनकी निष्ठा बढ़े तो वे भी पाँच नये खोज निकाले और आयोजन के साथ जोड़े। इसी प्रयास के अंतर्गत प्रज्ञा मण्डलों और महिला मण्डलों का गठन एवं विस्तार होता चलेगा। संघशक्ति बनकर अगले दिनों कंधे पर आने वाले उत्तरदायित्वों का वहन कर सकेंगे, जो जीवन एवं समाज के हर क्षेत्र को असाधारण रूप से प्रभावित करेंगे।

जहाँ भी युग पुरश्चरण की उपरोक्त सामूहिक साधना का उपक्रम चले वहाँ से नये सम्मिलित होने वाले श्रद्धालुओं को एक बार एक अनुष्ठान शाँतिकुँज में जाकर पूरा करने के लिये कहा जाय। लौटने पर वे पूरा उत्साह लेकर लौटेंगे और बारह वर्ष तक सम्मिलित होते रहने के व्रत का निर्वाह करेंगे।

आयोजनों का खर्च चलाने के लिये सम्मिलित होने वाले साधकों के यहाँ बीस पैसे नित्य जमा करने के लिये ज्ञानघट स्थापित किये जायें। उसी संग्रहित राशि से साप्ताहिक आयोजन का खर्च चलता रहेगा। इस आपूर्ति की जिम्मेदारी साधकों को ही मिल जुलकर उठानी चाहिये। बड़े खर्च वाली आवश्यकताओं के लिये ही बाहर के लोगों के अनुदान स्वीकार किये जाये।

प्रचार उपकरणों के लिये लाउडस्पीकर टेपरिकार्डर प्रोजेक्टर आदि की आवश्यकता पड़ती है। इसमें लगभग दो हजार खर्च होते है। दीप यज्ञायोजन एवं ज्ञानरथ की स्थापना के लिये भी कुछ अतिरिक्त धन की आवश्यकता लिया जा सकता है। जो एकत्र हो और किस प्रकार खर्च किया गया उसका विवरण दान देने वालों को देते रहने से किसी को उँगली उठाने का अवसर नहीं मिलता।

युगसंधि पुरश्चरण के आरम्भिक वर्ष में युगचेतना का उदय दृष्टिगोचर करने वाले आदर्श वाक्यों के स्टीकर घर घर चिपकाने का आन्दोलन पूरे उत्साह के साथ चलाया जाना चाहिये। कोई दुकान कोई घर कोई दफ्तर कारखाना कोई वाहन ऐसा न बचे जहाँ आदर्श वाक्यों का अंकन दृष्टिगोचर न हो। देखने वाला को लगता है कि घर घर में स्थान स्थान पर युगचेतना की छवि उभरने लगी है। नवयुग की चेतना उभरने का परिचय स्टीकरों के माध्यम से मिले तो जन-जन को लगे कि आदर्शवादिता जड़ जमाने लगी। पतन या उत्थान के लिये प्रेरणाएँ ऐसे ही दृश्य वातावरण से बनती है।

गायत्री परिवार में जिनकी भी श्रद्धा है वे उपर्युक्त क्रिया कलाप को दिव्य साधना का प्रारम्भिक चरण मानें और उसे भावना पूर्वक अपनाए। इतना करने वाले उस अग्रगामी भूमिका को निभा सकेंगे, जिसके आधार पर महाविनाश को रोकना और महाविकास के सतयुगी वातावरण का नवनिर्माण संभव हो सके। बड़े कार्यों को बड़ी शक्तियाँ सम्पन्न करती है। उच्चस्तरीय बड़प्पन का सम्पादन करने के लिये राज मार्ग बनाना ही प्रस्तुत युगसंधि महापुरश्चरण का प्रमुख उद्देश्य है। इसमें सच्चे स्वार्थ और सच्चे परमार्थ का समन्वय है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118