धर्मा रक्षति रक्षितः

October 1998

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पिछले दिनों ऐसा समय भी है जबकि धर्म को जादू-टोने या अन्धविश्वासों का घर बना दिया गया। लोग देवी-देवताओं की भूत-पलीतों की, मान्यताओं के साथ धर्म का सम्बन्ध जोड़ते रहे हैं और धार्मिक कर्मकाण्डों का इसलिए प्रयोग करते रहे है कि उनके माध्यम से किन्हीं अदृश्य और रहस्यमयी सत्ताओं को प्रलोभित या वशवर्ती करके उनसे वे सहायताएँ प्राप्त की जाएँ जिनकी हमारे दैनिक जीवन में आवश्यकता रहती है जिन्हें हम आसानी से पूरा कर नहीं पाते।

धर्म के साथ देवी-देवताओं का एक विशाल कलेवर इसीलिए जुड़ा हुआ है उनकी प्रसन्नता के लिए बहुत श्रम-साध्य एवं व्यय साध्य प्रतीकों का ढाँचा इसीलिए खड़ा किया गया है कि उन तथाकथित परोक्ष सत्ताओं की अनुकूलता का समुचित लाभ प्राप्त किया जा सकें इस प्रवृत्ति ने अगणित स्वभाव और स्वरूप के देवताओं का सृजन किया। धर्माधिकारी नेताओं ने अपने को उन देवताओं को वशवर्ती करने वाले मन्त्रों का ज्ञाता और अधिकारी बताया जिनके द्वारा स्वल्प प्रयत्न से अभीष्ट मनोरथ सहज ही सिद्ध होते है। चूँकि धर्माधिकारी बनना अति सरल और उसका लाभ अपरिमित था इसलिए अपनी प्रभुता को अग्रणी बनाने के लिए अपने-अपने अलग-अलग पंच चलाये और उस भिन्नता का पक्ष समर्थन करने के लिए पूर्व-परम्पराओं में कुछ ऐसे फेरबदल किये कि जिससे लोगों को उस नये धर्म के प्रति अधिक आकर्षण उत्पन्न हो सके। सम्प्रदायों के भेद-प्रभेद बढ़ने और उनकी शाखा-प्रशाखा फूटने के कारणों में प्रायः यही मानवीय दुर्बलता काम करती रही है। जिस प्रक्रिया का मूल प्रयोजन ऊँचा न हो उसके परिणाम अच्छे हो ही नहीं सकते। सम्प्रदाय-सम्प्रदाय के बीच दीवार ही खड़ी नहीं की गई वरन् इतनी कटुता भी भर दी गई कि एक धर्मानुयायी ने दूसरे धर्मानुयायी को पथभ्रष्ट, भ्रान्त, दुष्ट, शत्रु और यहाँ तक कि उसे वध करने योग्य करार दे दिया। इतिहास के कितने ही रक्तरंजित पृष्ठ इसी दुर्भाग्यपूर्ण धर्मावेश से भरे पड़े है जिनके कारण अगणित व्यक्तियों को कष्टकारक अपार यन्त्रणाएँ इसलिए दी गई कि वे लोग किसी दूसरे धर्म-सम्प्रदाय पर विश्वास करते थे इस तथाकथित धर्म मान्यता ने न जाने कितना विखंडन फैलाया और कितनों को ऐसे अकारण उत्पीड़न का शिकार बनाया जिसका वास्तव में कोई कारण या आधार नहीं था।

इन दुर्भाग्यपूर्ण धर्म विकृतियों को देखते हुए विचारशील लोगों में यदि धर्म के प्रति अश्रद्धा और खीज़ उत्पन्न हुई हो तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। आज धर्म -प्रेमी और संकीर्णतावादी दोनों को एक ही अर्थ में लिया जाता है। कर्मकाण्डों के माध्यम से बड़ी -बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त करने के स्वप्न देखने वालों को यदि अन्धविश्वासी कहा जाने लगे और उनका उपहास किया जाने लगे तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।

विचारणीय प्रश्न यह है। कि क्या वास्तव में धर्म का प्रयोजन यही है जो आजकल फैला दिखाई पड़ता है। गहराई तक खोजने -समझने से विदित होता है कि वर्तमान में चारों ओर छितरे पड़े धर्म-कलेवरों की मूल धर्म भावना में काफी अन्तर है। वस्तुतः धर्म का मूल स्वरूप इतना आवश्यक एवं उपयोगी है कि यदि उसे व्यक्तिगत जीवन तथा समाज व्यवस्था की रीढ़ कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

धर्म शब्द का अर्थ है -धारणा यहाँ धारणा से तात्पर्य उन आदर्शों की अन्तरंग में प्रतिष्ठापना से है जो व्यक्ति और समाज को श्रेष्ठता और सद्भावना की दिशा में प्रेरित करते हैं। धर्म का दूसरा अर्थ-अभ्युदय और निश्रेय अर्थात् उन गतिविधियों को अपनाया जाना जो कल्याण एवं प्रगति का शालीनता युक्त पथ प्रशस्त कर सकने वाली आस्था हो स्मृतिकारों ने धर्म को कर्तव्यपालन के अर्थ में लिया है। कर्तव्य से तात्पर्य उन उत्तरदायित्व से है जो निजी तथा सामाजिक जीवन में सौम्य सामंजस्य बनाये रखने की दृष्टि से किया जाय और जिससे स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ का अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य पर ज्यादा ध्यान दिया जाय।इन अर्थों के प्रकाश में निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है। कि धर्म की मूल प्रेरक व्यक्ति को सदाचारी संयमशील सद्भावना - सम्पन्न एवं समाजनिष्ठ बनाये रखने की है। वस्तुतः यह प्रेरणाएँ ही वे आधारशिला है जिन पर व्यक्ति की समर्थता एवं समाज की सुव्यवस्था पूर्णतया निर्भर है।

कहा जाता है कि आसुरी और दैवी तत्वों के शैतान और भगवान के यम और सत के सम्मिश्रण से मनुष्य की रचना हुई है। उसमें श्रेष्ठता भी पर्याप्त हैं निकृष्टता भी कम नहीं जब श्रेष्ठता का उभार आता है तो व्यक्ति संत सज्जन महामानव भू -सुर एवं नर-नारायण जैसा दीखता हैं पर जब निकृष्टता उफनती है तो उसकी दुष्प्रवृत्तियाँ इतनी भयावह हो उठती है कि पशु और पिशाच भी उससे बहुत पीछे रहें जाते है। इन उफानों का संतुलन एवं नियंत्रण बनाये रखने के लिए अन्तः करण में जिस निष्ठा अंकुश की आवश्यकता पड़ती है उसी नियामक तत्त्वदर्शन के आस्था - शिलारोपण के दृष्टिकोण को धर्म कहा जा सकता है। आन्तरिक आस्था के अतिरिक्त मनुष्य जैसे अद्भुत बुद्धि एवं विलक्षण सूझ-बूझ वाले प्राणी को और किसी तरह कुमार्ग से बचने ओर सन्मार्ग पर प्रेरित करने के लिए अन्य कोई आधार हो ही नहीं सकता कानून दण्ड लोक -निन्दा आदि से बच निकलने के लिए उसके पास इतनी पगडंडियाँ मौजूद है तथा निकलने रहती है कि अनीति से रोका जा सकना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हैं। असुरता के उफान को रोकने और देवत्व की अभिलाषा को प्रोत्साहित करने के लिए जिस सर्वतोमुखी भावनात्मक निष्ठा को धर्म -धारण को तत्त्वदर्शी और महामनीषियों ने गढ़ा है निस्सन्देह उन्होंने विश्व -मानव की महान सेवा की है।

विश्वव्यवस्था का क्रम - संचालन ठीक तरह चलता रहे और व्यक्ति अपनी नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन न करने पावे इस प्रयोजन के लिए विनिर्मित की गई धर्म की मूल मान्यताएँ निस्संदेह हमारे लिए नितान्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है धर्म की दार्शनिक व्याख्या में नैतिक एवं सामाजिक उत्कृष्टता की भावनाओं और प्रवृत्तियाँ का ही समावेश है और उन्हें कोई सम्प्रदाय झुठला नहीं सका है मतमतान्तरों के अंतर्गत आने वाले क्रिया -कृत्यों अथवा रीति -रिवाजों में कितना ही अन्तर क्यों न ही -नैतिक मूल्यों के बारे में प्रायः सर्वत्र एकरूपता पाई जाती है सत्य प्रेम न्याय संयम दया उदारता सहिष्णुता सज्जनता निर्मलता जैसे सद्गुणों को धर्म की आत्मा कह सकते है।सम्प्रदाय व्यवस्थाओं को तो उनका वस्त्र -परिधान मात्र कहा जा सकता है। इन आवरणों पर अधिक ध्यान न दिया जाय -विशेषतया उन सन्दर्भों को नजरअंदाज कर दिया जाय जो अनैतिकता के अतिरिक्त केवल बाह्य मान्यताओं के कारण दूसरों के प्रति कठोर असहिष्णुता बनना सिखाती है उसी प्रकार अदृश्य शक्तियाँ -देवी -देवताओं की मनौती चुनौती को भी व्यक्ति गत रुचि की बात मान लिया ओर उस पर सैद्धान्तिक रूप से कुछ झंझट न खड़ा किया जाय तो सम्प्रदाय के विषैले विकृत अंश से बचा जा सकता है और उसके उपयोगी अंश से लाभान्वित हुआ जा सकता है

आज की परिस्थितियाँ में धर्म तत्व की मूल -भावनाओं के अभिवर्द्धन और परिपोषण की जितनी अधिक आवश्यकता है उतनी पहले कभी नहीं रही बौद्धिक ‘आर्थिक और वैज्ञानिक विकास के कारण जिन सुविधा -साधनों की वृद्धि हुई है उनने मनुष्य को अधिक लालची अधिक विलासी और साथ ही अधिक धूर्त बना दिया है फलस्वरूप कम काम करने अधिक लाभ उठाने और नीति अनीति का विचार किये बिना जैसे भी स्वार्थ सिद्ध होता है पूरा कर लेने की हविस बेतरह जाग पड़ी है धर्म का न रहने से यह दुष्प्रवृत्तियाँ इतनी अधिक पनपी कि उन्हें अब एक परम्परा एवं सहज स्वाभाविक माना जाने लगा हैं अपराधों के प्रति शासकीय नियन्त्रण एक तो वैसे ही प्रजातन्त्र में बहुत ढीला होता है अपराधियों को दण्ड -प्रतिशोध के भय से भी मुक्ति मिला गई है ऐसी दशा में जबकि सामाजिक और शासकीय प्रतिबंध बुरी तरह ढीले हो तो बढ़ती हुई अवांछनीयता को कौन रोके? दुष्प्रवृत्तियाँ से नष्ट होने वाली मानवीय प्रतिष्ठा एवं सम्पदा को रचनात्मक दिशा में कौन नियोजित करे? यदि में कुछ न किया जा सका तो दुष्प्रवृत्तियाँ व्यक्ति समाज शासन और अन्तर्राष्ट्रीय धूर्तता और संहारक अस्त्रों की घुड़दौड़ एक दिन मनुष्य जाति को सामूहिक आत्मा -हत्या के लिए विवश कर सकती है।

अन्धकार मय भविष्य की इन आशंका भरी संभावनाओं के बीच एक ही प्रकाश की किरण शेष रह जाती है कि धर्म -बुद्धि को धर्मवृत्ति को फिर से सजग और समर्थ बनाया जाय जनमानस में उन मूल्यों के प्रति निष्ठा उत्पन्न की जाय जो मानवीय गरिमा एवं श्रेष्ठता के मूलभूत आधार है।जन - आकांक्षाओं में सुख -साधनों की सत्ता - अधिकार की आतंक और अहंकार की जिस उद्धतता ने अधिकार जमा लिया है उसका परिमार्जन करके यदि आत्मा-गौरव के लिए आदर्श चरित्र की आवश्यकता का भाव जगाया जाय तो ही दिशा -परिवर्तन की आशा की जा सकती है यह परिवर्तन ही सर्वग्राही विनाश के पथ पर दौड़ती चली जा रही है। दुनिया को बचा सकने में समर्थ हो सकता है कहना न होगा कि धर्म श्रद्धा के पुनरुत्थान बिना यह प्रयोजन पूरा हो सकने और कोई उचित राह दिखाई नहीं पड़ती दूसरी राह उस अधिनायकवाद की है जिससे व्यक्तिगत स्वाधीनताओं का अन्त करके मनुष्य को सोचने से दूर मात्र कार्य कर्ता लौह मशीन के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाना है वह स्थिति तो आज की विडम्बना भरी दुर्दशा से भी अधिक भयावह सिद्ध होगी। अधिनायकवादी सर्वतोमुखी पराधीनता तो ऐसी है जिससे एक बार फँस जाने पर त्राण पाना अशक्य नहीं तो भावनाशील और विचारशील लोगों में से कोई भी पसन्द न करेगा।

मानवीय अन्तःकरणों में कुमार्गगामिता और उसकी प्रतिक्रिया -विद्वेष से ऐसी आग जला करती है जिससे वैयक्तिक जीवन का आनन्द -उल्लास एक प्रकार से नष्ट होता चला जा रहा है साधन-सम्पन्न होते हुए भी सुख -शान्ति की झलक किसी के जीवन में नहीं है सर्वत्र अशान्ति उद्वेग और असंतोष की ही आग सुलगती और धुएँ जैसी घटना पैदा करती दिखाई देती है सामाजिक जीवन में अपराध अनाचार छल असहयोग एवं अविश्वास की बाढ़-सी आ रही है और फलस्वरूप पग -पग पर विग्रह और रागद्वेष के ज्वालामुखी फुट रहे हैं। न व्यक्ति को सुख है न समाज में शान्ति नारकीय विद्रूपता इस संसार को अपंग ओर कुरूप बनाने पर तुली हुई है। इन परिस्थितियाँ में एक ही रास्ता शेष रह जाता है कि धर्म भावनाओं को पुह अमानवीय अन्तःकरणों में गहन श्रद्धा के रूप में पुनः प्रतिष्ठापित किया जाय और प्राचीनकाल जैसी धर्मपरायणता को वापस लाने के लिए भागीरथ प्रयत्न किया जाए। हमें धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध होने चाहिए ताकि धर्म हमारी रक्षा करने में समर्थ सिद्ध हो सके।


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