युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष-7 - युगसंधि की द्विधा नियति-परिणति

October 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गत शताब्दियों में मनुष्य ने विज्ञान के उद्धत दर्शन की सहायता पाकर अपने को एक-सा कुंद बना लिया है, मानो नशेबाज़ सड़क पर लाठियाँ घुमाने और गालियाँ बकने के लिए स्वतंत्र हो गया हो। यदि अहमन्यता मुखर होकर उचित ठहराने का दुराग्रह अपनाये तो उसे अनगढ़पन के अतिरिक्त और क्या कहा जाय? पिछले दिनों से यही होने लगा हैं। नीति और मर्यादा को तिलाञ्जलि देकर जो मिले उसी को हड़प जाने की वितृष्णा यदि अनर्थ करती चले तो उसे पुरातन असुरता की नये ढाँचे में नई आवृत्ति ही माना जाएगा।

पर यह सब सदा के जिए चलता तो नहीं रह सकता। आखिर इस सार का नियमन करने वाली कोई उच्चसत्ता भी तो है। वह न रही होती तो आकाश के ग्रह गोलक और पृथ्वी के जलाशय सभी मर्यादा तोड़कर कुछ भी कर गुजरे होते। किन्तु साथ ही यह भी है कि उस नीति निष्ठा का बुरी तरह ह्रास हुआ, जो सर्वतो मुखी स्वस्थता के लिए उत्तरदायी है। शरीर बीमार, मन बेजान और अधिक पाने यहाँ-वहाँ से बटोरने के लिए आतुर, हाहाकार। वस्तुतः यही है वह उपलब्धि, जो प्रस्तुत प्रगति के साथ-साथ ही बढ़ती चली आई है। उसने मनुष्य और मनुष्य के बीच अविश्वास की, दुर्भाव की, उपेक्षा की गहरी खाई खोद दी है। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी में इतनी कमी पड़ी है कि उनके बिना सम्पन्नता होते हुए भी दीन-हीन की तरह रहना पड़ रहा है। मरघट में रहने वाले भूत-प्रेतों जैसा अनगढ़ जीवन जीना पड़ रहा है। अपच, अनिद्रा शरीर के एवं आवेश, अविश्वास मन के सहचर बनकर रह रहे हैं।

यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रहने दी जा सकती अन्यथा व्यक्ति तनावग्रस्त रहकर टूट जाएगा, साथ ही उस सम्पदा का भी दुरुपयोग करके आत्मघात करेगा, जो अनीति अपनाकर कमाई गई है। सज्जा और अहंता आकर्षक तो हैं, पर उनमें ऐसा कोई सत्त्व है नहीं जो उल्लास, उत्साह, संतोष, आनन्द एवं गौरव-गर्व प्रदान कर सके। इसके अभाव में वह न केवल स्वयं विपन्न बनेगा वरन् अपने सम्पर्क क्षेत्र में भी विषाक्तता भर देगा। ऐसा जीना भी क्या, जो अन्यायों को खिन्नता की अर्द्धमृत स्थिति में धकेल दे।

यह भली−भाँति समझ लिया जाना चाहिए कि इन दिनों जो विपत्तियों-विभीषिकाओं के घटाटोप घिरे दिखाई देते हैं, वे कहीं आसमान से नहीं उतरे है, धरती फोड़कर भी नहीं उछले हैं। यह सब मनुष्य का ही बोया व बिखेरा हुआ है। शक्ति का दुरुपयोग भी हो सकता है और सदुपयोग भी। चाकू से कलम भी तराशी जा सकती है और किसी का प्राणान्त भी किया जा सकता है। यह सद्बुद्धि और दुर्बुद्धि के ही परस्पर विरोधी चमत्कार हैं। यहाँ करने और मरने की सनातन प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती आ रही है। प्रकृति भी उसी आधार पर अपने तेवर बदलती रहती है। पतन और उत्थान के क्रम में वातावरण की प्रतिकूलता, अनुकूलता भी सहभागी होती है। पर उन सबका उद्गम मनुष्य का व्यक्तित्व एवं कर्त्तव्य ही है। स्रष्टा की कर्मफल व्यवस्था भी उसी आधार पर अपने को नियति बनाकर प्रकट करती है।

भूलें होती हैं, पर उनका सुधार-परिमार्जन भी होता रहता है। कपड़े मैले होते हैं, पर उनकी धुलाई होते रहने की क्रिया भी बन्द नहीं होती। ठोकरें लगती हैं पर उन चोटों का उपचार भी क्रियान्वित होता है। उनको भगाया भी जाता रहता है। पापों के प्रायश्चित की भी व्यवस्था है।

मनुष्य पर बहुत बार आवेशों के उन्माद आते हैं। इस दशा में वह ऐसे कृत्य कर डालता है जिनकी क्षतिपूर्ति बहुत दिनों में बड़ी कठिनाई से ही हो पाती है। क्रोध में पागल कई बार स्वजनों तक की हत्या कर डालते हैं। आवेश उतरने पर वे समझ पाते हैं कि उनने अपने ही हाथों अपना कितना बड़ा अनर्थ कर डाला। देखने वालों को लगता है कि अब इस क्षति की पूर्ति न हो सकेगा। पर वस्तुतः ऐसा नहीं होता। समय घावों को भरता रहता है। मरने वालों की संख्या नित्य ही बहुत बड़ी होती है। लगता है कि यही क्रिया चलती रही तो संसार सूना हो जाएगा। पर वस्तुतः वैसा होता नहीं। नये जन्मने वाले उस घाटे की भरपाई करते रहते हैं। अन्धड़ आते हैं, तूफान बहुत कुछ उखाड़-पछाड़ कर रख जाता है। चक्रवातों की करतल कितनी भयावह होती है, ओले, टिड्डी दल, चूहे, पक्षी फसल को बर्बाद करने में कुछ कोर-कसर नहीं छोड़ते, फिर भी ऐसी स्थिति नहीं आती है कि अन्न का सर्वथा अभाव हो जाए और लोग भूखे मर जाएँ। दुष्ट-दुरात्मा अपने कुकृत्यों में कोई कमी नहीं रहने देते, फिर भी नियति की व्यवस्था ऐसी है कि शान्ति और सज्जनता अपना अस्तित्व बनाए रह सके। भूकम्पों, ज्वालामुखियों, दुर्भिक्षों, बाढ़ों, महामारियों का अपना इतिहास है। उनके द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाला महाविनाश सुनने वालों तक के रोमांच खड़े कर देता है। फिर भी भूमि की समस्वरता समाप्त नहीं हुई है। विनाश की चुनौतियों को स्वीकार करने में विकास पूरी तरह समर्थ है। निराशाजन्य परिस्थितियों की विकरालता से सभी परिचित हैं। तमिस्रा की व्यापकता किसी से छिपी नहीं है, किन्तु आशा का आश्वासन देने वाली ऊषा अपने समय पर उदित होती रही है एवं परिवर्तन लाती रही है।

रात्रि के उपरान्त प्रभात आता है, अवांछनीयताओं का साम्राज्य देर तक टिकता नहीं। समय चक्र ऐसी परिस्थितियाँ भी लाता है, जिसमें विपन्नताओं से उबर सकना संभव हो सके। इक्कीसवीं सदी ऐसा ही संदेश लेकर आ रही है। उसे सर्वतोमुखी अभ्युदय का समय भी कह सकते हैं, सतयुग भी। इक्कीसवीं सदी इसी की प्रतीक बनकर आ रही है।

युगसंधि को द्वन्द्व और संघर्ष की अवधि कह सकते है। अब से लेकर बीसवीं सदी के अन्त तक ऐसी ही द्विधा छाई रहेगी। रात्रि के अन्तिम प्रहर में तमिस्रा अत्यधिक सघन हो जाती है। दीपक जब बुझता है तो ऊँची लौ दिखाता है। चींटी मरने को होती है, तब पंख उगाती है। मरते समय गहरी साँसें चलने लगती है। यही सब देखकर यह उक्ति बनी है कि मरता क्या न करता आत्मरक्षा के लिए कौन हाथ नहीं पीटता?

इस संभावना को देखते हुए अदृश्य द्रष्टाओं ने रोमांचकारी भविष्यवाणियाँ की है, जो प्रायः इस युगसंधि पर लागू होती है। ईसाई धर्म में चौदहवीं सदी में कयामत तथा भविष्यपुराण में खण्ड-प्रलय की चर्चा है। अन्य पूर्वार्द्ध और पाश्चात्य दिव्यदर्शियों ने भी इसी स्तर की भविष्यवाणियाँ की हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि कुसमय का अन्त होते होते कहर बरसेगा। किन्तु इसके बाद ऐसा समय आयेगा जिसमें पिछले समस्त घाटे की पूर्ति हो जायगी ताकि गहरी खाई पाटकर समतल ही नहीं वरन् पुष्पोद्यान के रूप में भी छटा दिखाने लगे।

एक ही समय में दो काम हो सकते हैं। खेत की जुताई से खुदाई होती है, किन्तु साथ ही बुवाई का क्रम भी चलता है और देखते-देखते खेत पर हरियाली लहलहाने लगती है। इस भारी परिवर्तन में एक सप्ताह से भी कम समय लगता है। प्रसव वेदना में जहाँ प्रसूता को कष्ट सहना पड़ता है, वहाँ शिशु जन्म की खुशियाँ मनाने के सरंजाम भी साथ ही जुट जाते हैं। जराजीर्ण काया इधर मृत्यु का वरण करती है, उधर दूसरे जन्म का नया सुयोग भी बन जाता है। जुआरियों में से एक हार पर उदास होता है, तो दूसरा जीत पर मुसकाता है। खिलाड़ी और व्यापारी भी आपस में हारने-जीतने के परस्पर विरोधी अनुभव करते हैं। युगसंधि में, देवासुर संग्राम में विनाश और विकास का मल्लयुद्ध ठने, तो उसे नियति की विचित्रता ही कहना चाहिये। संध्याकाल में दिन और रात्रि दोनों का समन्वय देखा जा सकता है। प्रायश्चित करते समय जहाँ कठिनाई का सामना करना पड़ता है वहाँ भार उतर जाने और उज्ज्वल भविष्य की संभावना बनने की प्रसन्नता भी होती है। अशुभ की विदाई और शुभ की अगवानी का मिश्रित माहौल इन दिनों देखने को मिलेगा। एक ओर आपरेशन की छुरी-कैंची संभाली जाएगी, तो दूसरी ओर घाव सीने और मरहम-पट्टी के सरंजाम भी इकट्ठे होंगे। वधू को विदा करते समय जहाँ एक घर में आँसू टपकते हैं वहीं दूसरे घर गृहलक्ष्मी के आगमन पर सभी के चेहरे खिलते हैं। ऐसी ही द्विधा लेकर आ रही है युगसंधि की वेला। इन बारह वर्षों में ऐसे ही ज्वार-भाटे आते रहेंगे।

भ्रष्ट-चिंतन के कारण जो अनर्थ उपजे हैं, उन्हें कोई दावानल भस्मसात् करके रख दे, यह संभव है। ऐसा समय असाधारण रूप से कष्टकारक भी हो सकता है। विपत्तियाँ और बढ़ सकती हैं। संकट और भी अधिक गहरा सकते हैं, किन्तु साथ ही यह भी निश्चित है कि उज्ज्वल भविष्य का सृजन भी इन्हीं दिनों होगा। प्रतिभाएँ इन्हीं दिनों उभरेंगी और उनके द्वारा बहुमुखी सृजन की ऐसी योजनाएँ भी बनेंगी, जो चरितार्थ होने पर ऐसा बसंती वातावरण बना दें, जिसकी इक्कीसवीं सदी के रूप में आशा, अपेक्षा चिरकाल से की जाती रही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118