चक्र-उपत्यिकाओं का रहस्यमय लीला जगत अपने ही भीतर

October 1998

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साधना विज्ञान में चक्रों के रूप में जिन शक्ति केन्द्रों की चर्चा है, वह वास्तव में और कुछ नहीं, विभिन्न चेतनात्मक स्तर है। उन भूमिकाओं में पहुँचकर साधक चेतना के भिन्न-भिन्न आयामों की अनुभूति करता हुआ उस सर्वोच्च शिखर पर पहुँचता है, जिसे सहस्रार कहते है। पिछले दिनों तक विज्ञानवेत्ता इन्हें कपोलकल्पित भर मानते थे, पर तंत्रिका शास्त्र के गहन अध्ययन के उपरान्त इनकी संगति मस्तिष्क और मेरुरज्जु के विभिन्न केन्द्रों से बिठाने में वे सफल हो गए है। देखना यह है कि विज्ञान-अध्यात्म का यह समागम सर्वसाधारण के लिए कितना उपयोगी साबित होता है?

मनुष्य जीवन विकास-यात्रा का एक पड़ाव है। इस पड़ाव का संबंध हमारे सूक्ष्म-संस्थानों एवं चक्रों से है अर्थात् आज हम जिस स्तर पर अवस्थान कर रहे है, वह यथार्थ में इन्हीं शक्ति केन्द्रों की सक्रियता का परिणाम है। दूसरे शब्दों में इसे इस प्रकार भी कह सकते है कि व्यक्ति व्यक्ति के दृष्टिकोण और सोचते के तरीके में जो भिन्नता दिखलाई पड़ती है, वह पृथक्-पृथक् चेतना केन्द्रों की सक्रियता और निष्क्रियता प्रदर्शित करती है। उदाहरण के लिए संसार के प्रति आदमी के दृष्टिकोण को लिया जा सकता है। स्वाधिष्ठान चक्र में अवस्थिति होने पर मनुष्य दुनिया को इच्छापूर्ति के माध्यम के रूप में देखता है, मणिपूरित के रूप में तथा अनाहत में प्रतिष्ठित होने पर जीवन का उद्देश्य मात्र लोकमंगल होता है।

अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि एक ही चक्र अवस्थान करने के बावजूद दो व्यक्तियों के स्तर और स्थिति में भिन्नता हो सकती है। यह संभव है कि हमारी चेतनात्मक अभिव्यक्ति में मणिपूरित ही सर्वांश में झलकता-झाँकता हो, इतने पर भी ऐसे प्रत्येक व्यक्ति की सक्रियता, सजगता एवं विकास में अन्तर दिखलाई पड़ सकता है। इसका कारण एक ही है-व्यक्ति-व्यक्ति के चक्र-जागरण का भिन्न-भिन्न स्तर। इसे उसके व्यक्तित्व एवं कर्तव्य से जाना समझा जा सकता है। यदि वह व्यक्तिगत स्वार्थों और निषेधात्मक गतिविधियाँ में ही उलझा रहता है, तो यह कहा जा सकता है कि उसकी अवस्थिति जागरण प्रक्रिया के एकदम निचले सोपान में है। वहीं उसकी रचनात्मक एवं लोकमंगल संबंधी प्रवृत्तियाँ इस बात की सूचक है कि वह चक्र जागरण की उच्च भूमिका में आसीन है। साधना विज्ञान के आचार्यों का तम है कि बालकों की तुलना में वयस्कों में मणिपूरित चक्र प्रायः अधिक विकसित होता है, फिर भी सभी लोगों में ऐसा होना आवश्यक नहीं।

चक्र-जागरण जहाँ व्यक्ति को अलौकिक अनुभूतियाँ और गुप्त शक्तियों से भर देता है वहाँ भौतिक स्तर पर उसमें अनेक ऐसी क्षमताएँ विकसित हुई दृष्टिगोचर होती है, जिन्हें साधना शास्त्र के मर्मज्ञों के अनुसार, मूलाधार चक्र के उन्नयन से वक्तृत्व कला, आरोग्यता, काव्य और लेखन शक्ति जैसे गुणों का विकास होता है, स्वाधिष्ठान से निरहंकारिता, मोहनिवृत्ति, रचना शक्ति, मणिपूरित से वाक्–सिद्धि, अनाहत से इन्द्रियजय, विशुद्धि से दीर्घजीवन, तेजस्विता, सर्वहितपरायणता, आज्ञा से विवेक एवं सहकार से भक्ति तथा अमरता।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि हर चक्र का संबंध शरीर के विशिष्ट अंगों से होता है, इसीलिए वे अंग अथवा इन्द्रियाँ उन चक्रों की इन्द्रियाँ कहलाती है। यों तो चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को समस्त शरीर में प्रवाहित करते है, पर एक ज्ञानेन्द्रिय और एक कर्मेन्द्रिय से उनका संबंध विशेष रूप से होता है। संबंधित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते है। चक्रों के जागरण के चिन्ह उन इन्द्रियों पर तुरन्त परिलक्षित होते है।

शरीर विज्ञान के गहन अध्ययन के उपरान्त वैज्ञानिकों ने योगशास्त्रों में वर्णित विभिन्न शक्ति केन्द्रों अथवा चक्रों संबंधी गुत्थी को सुलझाने में काफी हद तक सफलता अर्जित की है। उनका कहना है कि चक्रों की शरीर शास्त्र की दृष्टि से व्याख्या-विवेचना की जाए, जो उन्हें मेरुरज्जु में स्थित विभिन्न प्रकार के नाड़ी गुच्छक कहने पड़ेंगे। इन गुच्छकों का संबंध कई प्रकार की अंतःस्रावी ग्रन्थियों से होता है। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क में इनके पृथक्-पृथक् केन्द्र भी होते है। वे कहते है कि यदि इन केन्द्रों को जगाया जा सके, तो चक्रों को प्रभावित किया जा सकना संभव है अर्थात् वे इसे उभयपक्षीय प्रक्रिया मानते और कहते है कि चक्रों के जागरण द्वारा मस्तिष्क के संबंधित भागों को प्रभावित कर चक्रों को उद्दीप्त करना एक ही बात है॥

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेण्टल हेल्थ अमेरिका के न्यूरोफिजियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ. पॉलमैकलीन अपनी रचना ‘ए ट्रइयून कन्सेप्ट ऑफ दि ब्रेन ‘ में लिखते है कि मस्तिष्क के तीन ्रसतर वास्तव में मनुष्य में पाये जाने वाले सात्विक, राजसिक, तामसिक जैसे तीन गुणों, तीन प्रवृत्तियों के प्रतीक-प्रतिनिधि है। इन्हीं तीन स्तरों में सभी चक्रों के गुण एवं विशेषताएँ सम्मिलित है। आश्चर्य की बात यह है कि मस्तिष्क की इन तीन परतों में मुख्य तंत्रिका रसायनों ‘डोपोमाइन’ तथा ‘सेरोटोनिन’ की मात्रा भी अलग-अलग होती है। यदि इन स्तरों का सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए, तो यह संभव है कि योगियों द्वारा वर्णित अनुभवों और अनुसंधानों द्वारा उपलब्ध निष्कर्षों में बहुत बड़ी समानता दिखाई पड़े।

त्रिगुणात्मक मस्तिष्क के उक्त तीन स्तरों को क्रमशः रेप्टिलियन ब्रेन, मैमेलियन ब्रेन तथा नियोकँर्टिक्स कहा गया है। रेप्टिलियन ब्रेन में मेरुरज्जु सहित मस्तिष्क का निचला हिस्सा आता है। इसके अंतर्गत आत्मरक्षा, प्रजनन, हृदय नियंत्रण, रक्त-संचरण एवं श्वसन से संबंधित तंत्रिका संस्थान आते है। इस मस्तिष्कीय परत से आक्रामकता, सनक, उन्माद जैसी पाशविक प्रवृत्तियों व सामाजिक व्यवहार तथा परम्पराओं के प्रति आसक्ति जैसी वृत्तियों का नियंत्रण होता है। मैकलीन कहते हैं कि यह योगियों द्वारा वर्णित मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्रों के विवरण से बहुत कुछ मिलता-जुलता है, कारण कि इस क्षेत्र के निष्णातों के अनुसार इन केन्द्रों द्वारा हमारी प्रमुख एवं मूलभूत पशु-प्रवृत्तियों यथा-आहार निद्रा एवं प्रजनन आदि का संचालन होता है तथा प्रेम, आनन्द, उत्साह एवं आत्म-सजगता जैसे मानवी गुणों का अभाव होता है। उपर्युक्त निम्न प्रवृत्तियों का संबंध हमारे चेतन एवं अचेतन मन से है।

अपने अध्ययन एवं अनुसंधान से मैकलीन एवं उनके सहकर्मी इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि अधिकाँश व्यक्ति आत्मोन्नति के दो बिलकुल आरंभिक सीढ़ियों-मूलाधार तथा स्वाधिष्ठान पर अवस्थान करते है। ऐसे व्यक्तियों के क्रिया–कलापों का स्तर यद्यपि उच्च केन्द्रों द्वारा परिवर्तित हो जाता है, फिर भी हमारा जीवन अधिकतर इन्हीं निम्न चक्रों द्वारा नियंत्रित एवं प्रभावित होता है और हम संकुचित सीमाओं में बँधे रहकर अपनी दिनचर्या किसी प्रकार पूरी करते रहते है।

उपर्युक्त तथ्य को सिद्ध करने के लिए मैककलन ने ‘हैम्सटर’ नामक जीव के नवजात शावक के प्रमस्तिष्क बाह्यक को मस्तिष्क से अलग कर दिया। शेष बच्चे भाग में मात्र आर. काँम्प्लेक्स तथा लिम्बिक सिस्टम रह गए। देखा गया कि इसके बावजूद भी हैम्सटर के बढ़ने की प्रक्रिया साधारण ही बन रही तथा उसमें किसी प्रकार की कोई रुकावट नहीं आई। प्रजनन कार्य यथावत चलता रहा तथा उसके दूसरे क्रिया−कलाप भी सामान्य ढंग से चलते रहे। आश्चर्य तो यह कि वह दृष्टि संबंधी केन्द्र काँटेक्स के बिना भी देख सकता था। पक्षियों पर भी वह प्रयोग दुहराया गया। उसके मस्तिष्क के आर. काँम्लेक्स को छोड़कर शेष सभी हिस्सों को नष्ट कर दिया गया। इतने पर भी उनकी दैनिक गतिविधियों में कोई विशेष अन्तर परिलक्षित नहीं हुआ। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे अधिकाँश क्रिया−कलाप मस्तिष्क के इन्हीं हिस्सों द्वारा संचालित और नियंत्रित है तथा मर्यादित जीवन पद्धति हेतु मस्तिष्क के अन्य हिस्सों का प्रयोग नाममात्र ही होता है। साधना विज्ञान की मान्यता भी ऐसी ही हैं योगीजन विज्ञान के इस निष्कर्ष से सहमत है कि शरीरस्थं उच्च केन्द्रों को बिरले ही सक्रिय कर पाते है और यदि वे सक्रिय हो भी गए, तो उन्हें सँभाल पाना उनके लिए संभव नहीं होता। यही कारण है कि योगी लोग साधना-तपश्चर्या द्वारा शरीर को पहले अनुकूल बनाने की सलाह देते है, ताकि उससे उत्पन्न ऊर्जा को ग्रहण-धारण किया जा सके।

योगी और विज्ञानी दोनों ही इस बात पर एकमत है कि साधारण मनुष्यों का अधिकाँश समय जीवन-निर्वाह ही व्यतीत होता है। बहुत थोड़े-से लोग ही यह समझ पाते है कि जीवन में करने और पाने के लिए और भी बहुत कुछ है। इसका कारण दोनों यही बताते है कि वे उन केन्द्रों से ऊँचा नहीं उठ पाते, जो जीवन की एकदम सामान्य गतिविधियों के लिए जिम्मेदार होते है।

मानवी मस्तिष्क के स्तनपायी भाग (मैमेलियन बे्रन) का नियंत्रण लिम्बिक संस्थान के जिम्मे होता है। यहाँ से भावना, स्मरणशक्ति, विनोदप्रियता, आनन्द, आश्चर्य, कल्पना, प्रेम जैसे तत्वों का नियंत्रण होता है। मैकलीन के अनुसार मस्तिष्क का यह भाग यदि क्षतिग्रस्त हो जाए, तो इससे मातृ सुलभ व्यवहार में कमी एवं खेल आदि में अरुचि हो जाती है।

यतियों के अनुचर क्रोध, भय, चिन्ता, क्षुधा, इच्छा, दया, करुणा, उत्फुल्लता, अपराध जैसे गुण मणिपूरित तथा अनाहत चक्रों की विशेषताएँ है। तंत्रिका शास्त्री इनका संबंध लिम्बिक संस्थान से जोड़ते है। इससे स्पष्ट है इन चक्रों का प्रतिनिधित्व मस्तिष्क का उक्त केन्द्र करता है। यदि इन विशिष्टताओं के मेरुरज्जु केन्द्र अथवा मस्तिष्कीय केन्द्र को उत्तेजित किया जा सके, तो उससे संबंधित विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं व्यावहारिक स्तर प्रभावित,मानसिक एवं व्यावहारिक स्तर प्रभावित होंगे। इससे भी चक्रों की वास्तविकता सिद्ध होती है।

मस्तिष्क का तीसरा और अन्तिम पक्ष नियोकँटेक्स है। यह सर्वाधिक विकसित भाग है। इसका संबंध मानवी बौद्धिकता तथा ज्ञान से है। उसके कार्यों के बोरी में विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि विचार, ्रणित, विश्लेषण, विवेक, सहज ज्ञान, रचनात्मकता, योजना, अनुमान, कला, वैज्ञानिक शोध एवं इसी प्रकार के दूसरे उच्च तथा विकसित मानवीय क्षमताओं के उपयोग का संबंध इसी मस्तिष्कीय खण्ड से है।

शोध-अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि मस्तिष्क के सामने का हिस्सा यदि क्षतिग्रस्त हो जाए, तो व्यक्ति भविष्य को योजनाएँ बनाने में अक्षम हो जाता है तथा उसमें स्वयं के प्रति सजगता भी बनी नहीं रह पाती। वे किसी कार्य अथवा क्रिया के परिणाम को नहीं सोच पाते। ऐसे व्यक्ति जड़ बुद्धि प्रकृति के लापरवाह होते है। उनमें कल्पना-शक्ति क्षीण हो जाती है तथा जीवन के प्रति नीरस-निरानन्द बन जाते है।

डेविडलोये ने अपने शोध पूर्ण निबन्ध ‘फोरसाइट सागा’ (ओमनी, सितम्बर, 1982) मके लिखते हैं कि मस्तिष्क का सामने वाला हिस्सा न सिर्फ पूर्वानुमान से संबंधित है, वरन् उसमें दूरदृष्टि की भी क्षमता मौजूद है। एक उदाहरण देकर इसे और स्पष्ट करते हुए वे कहते है कि मान लिया जाए कि सामने से कोई छतगति से गाड़ी आ रही है। ऐसी स्थिति में मस्तिष्क का सामने का हिस्सा दायें-बायें दोनों गोलार्धों को सावधान करती है वे उनसे उस विषय पर उपलब्ध समस्त जानकारी, सहमति अथवा असहमति की माँग करता है। इसके बाद ही व्यक्ति कोई अनुमान, निर्णय या निष्कर्ष निकाल सकता है। अपने अध्ययन में उनने एक विशेष बात यह देखी कि वैसे व्यक्ति, जिनके दोनों गोलार्धों सक्रिय थे, एक गोलार्द्ध प्रधान व्यक्तियों की तुलना में भविष्य संबंधी घटनाओं का अनुमान लगा सकने में अधिक सक्षम पाया गया। इस निष्कर्ष से साधना विज्ञजन के इस कथन की पुष्टि होती है कि उच्च आदर्शवादी जीवन, उत्कृष्ट क्रिया−कलाप एवं आन्तरिक क्षमताओं के विकास के लिए मानवीय प्रवृत्ति के दोनों पक्षों के मध्य संतुलन आवश्यक है।

योगियों ने विवेक, ज्ञान, अनुभूति, रचनात्मकता एवं अभिव्यक्ति संबंधी सम्पूर्ण गतिविधियों का केन्द्र आज्ञा एवं विशुद्धि चक्र का माना है। हम जानते है कि साधना-उपचारों का उद्देश्य मस्तिष्क के दोनों गोंलार्थ के बीच स्थित करना है। साधना-विज्ञान के जानकारों अनुसार आज्ञाचक्र ही सभी चक्रों का संचालक और नियन्ता है। इसी कारण से इसे ‘गुरुचक्र’ के नाम से भी साधना ग्रन्थों में यंत्र-तंत्र अभिहित किया गया है। शरीरविज्ञान के अनुसार लिम्बिक सिस्टम के ऊर्ध्व में पीनियल ग्रन्थि के ठीक सामने थैलमस स्थित है। मस्तिष्क के प्रमुख नियंत्रण केन्द्रों में से थैलमस एक है। यह हमारी इन्द्रियों एवं मोटर क्रियाशीलता इड़ा-पिंगला ललाट में स्थित दोनों इड़ा-पिंगला शामिल है, को नियंत्रित करता है। भावनाओं की अभिव्यक्ति तथा संगठन के लिए उत्तरदायी एवं अन्तःस्थानी ग्रन्थियों का नियंत्रणकर्ता हाइपोथैलमस एवं गति नियंत्रण में सहयोगी सेरीबेलम का भी लियमन थैलमस द्वारा होता है अर्थात् पीनियल ग्रन्थि द्वारा इन्द्रियों, विचारों, भावनाओं एवं क्रियाशीलता में समन्वय स्थापित होता है। कर्मेन्द्रियों के संपर्क में आने वाली वस्तुओं के तापमान, आकार-प्रकार इत्यादि निर्धारित करने एवं पीड़ा की अनुभूति में भी पीनियल ग्रन्थि का महत्वपूर्ण स्थान है। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गतिविधियों, विशेषतया माँसपेशियों एवं जोड़ो के संकुचन-प्रसारण के नियंत्रण में भी इसका उल्लेखनीय योगदान है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पीनियल या थैलमिक हिस्सा ही आज्ञाचक्र के विवरण के अनुरूप है। यह वह स्थान है, जहाँ इड़ा की दोनों वृत्तियाँ-ज्ञानेन्द्रियाँ एवं भावनाएँ तथा पिंगला की दोनों वृत्तियाँ कर्मेन्द्रियों एवं बुद्धि दी जाने वाली ‘योग’ की परिभाषाओं एक-इड़ा और पिंगला का आज्ञाचक्र में मिलन है, जिसके फलस्वरूप स्नायुमण्डल में एक विस्फोट होता है। इस विस्फोट के परिणामस्वरूप दोनों मस्तिष्कीय गोलार्धों एवं लिम्बिक संस्थान के कई परिपथों को बहुत अधिक शक्ति मिलती है, जिससे वे सामान्य स्थिति से कहीं अधिक सक्रिय हो उठते है। यह उसी प्रकार है, जिस प्रकार हमारे स्नायु संस्थान का संबंध अचानक किसी उच्च वोल्टेज की विद्युत धारा से, जिसे योगीजन ‘सुषुम्ना’ कहते है, हो जाए।

योगियों के अनुसार अन्तर्ज्ञान एवं प्रत्यक्ष ज्ञान में भी आज्ञाचक्र का महत्वपूर्ण योगदान है। प्रत्यक्ष ज्ञान एवं इन्द्रिय सक्रियता का नियमन थैलमस हिस्से द्वारा होता है, जिससे जीवन की सूक्ष्मताओं का हमें अनुभव प्राप्त होता है। यदि ऐसा है, तो फिर योगपथ के अनुभवियों का यह दावा ठीक ही है कि साधना-अभ्यासों द्वारा इस क्षेत्र की संवेदना और शक्ति को जगाकर मनुष्य की सामान्य क्षमता को बढ़ाकर असामान्य किया जा सकता है। परिणाम यह होगा कि हम पदार्थ की सूक्ष्म भूमिका में उतरकर उसका निरीक्षण-परीक्षण कर सकेंगे अर्थात् हम भौतिक सीमाओं को तोड़कर अभौतिक संसार में प्रविष्ट कर सकेंगे।

साधना शास्त्र के अनुसार मूलाधार चक्र की अवस्थिति पेरेनियम में तथा दूसरे चक्र मेरुदण्ड में ऊपर की ओर सहस्रार तक स्थित है। सहस्रार मनुष्य के चरम विकास तथा चेतना की पराकाष्ठा है। आज्ञाचक्र वह केन्द्र है, जहाँ मनुष्य अपना अस्तित्व ब्रह्माण्ड से पृथक् अनुभव करता है। व्यष्टि और समष्टि चेतना का मिलन अथवा विश्वव्यापी चेतना का प्राकट्य स्थल-सहस्रार है तथा आज्ञाचक्र वह केन्द्र है, जहाँ आदेश ग्रहण किये जाते है।

तंत्रिका क्रिया-विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है मस्तिष्क में मेरुरज्जु शीर्श से पीनियल ग्रन्थि अथवा थैलमिक क्षेत्र तक ऊपर की ओर फैले हुए हिस्से में योगियों द्वारा बताये गए चक्रों के विवरणों से मिलते-जुलते केन्द्र है। यह कहा जा सकता है कि मस्तिष्क के वे सभी केन्द्र आज्ञाचक्र के अधीन है तथा उसी के द्वारा नियंत्रित भी। आज्ञाचक्र के अंतर्गत विकास के भिन्न-भिन्न स्तर है। जैसे-जैसे चक्रों का जागरण होता है, वैसे-ही वैसे चेतना का स्तर तथा आज्ञाचक्र की क्रियाशीलता भी प्रभावित होती है।

इस प्रकार साधना विज्ञान के रहस्य अब उस क्षेत्र में होने वाले शोध-अनुसंधानों से घटते-मिटते जा रहे हैं। कुछ समय पूर्व तक तर्कवादी विज्ञानी मस्तिष्क जिसका ‘भ्रम’ कहकर उपहास उड़ाते थे, आज वे ही साधना विज्ञान में वर्णित चक्रों, उपत्यिकाओं, भ्रमरों, प्राणों, मात्रिकाओं की महत्ता, सत्ता और वास्तविकता को समझने लगे है। इससे सर्वसाधारण के मस्तिष्क में छा असमंजस का कुहासा निश्चय ही दूर होगा और वह विश्वास पैदा होगा, जहाँ साधक की निर्द्वंद्व मनःस्थिति के अतिरिक्त और कुछ न हो।


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