युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष-9 - चेतना क्षेत्र की अराजकता

October 1998

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(दिसम्बर, 1988 अखण्ड ज्योति में प्रकाशित)

बढ़ते प्रदूषण एवं विकिरण, अमर्यादित प्रजनन, महामारियों, प्रकृति प्रकोपों जैसी विभीषिकाएँ को जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही है, एक संतुलित मनःस्थिति से देखा जाय तो प्रतीत होता है कि ये सभी विग्रह मनुष्य की, अपनी करनी से जन्मे हैं एवं इनकी प्रतिक्रिया अगले ही दिनों इस रूप में प्रकट होगी कि मनुष्यों का ही नहीं, अन्याय प्राणियों का रहना भी इस धरातल पर दूभर हो जाएगा। जब सर्वत्र विष-ही-विष का भरा-पूरा समुद्र हिलोरें ले रहा हो, तो उसके बीच प्राणि सत्ता का अस्तित्व किस प्रकार अक्षुण्ण बना रह सकेगा, यह विचारणीय प्रश्न है।

चेतना की शक्ति अपार है। उससे सृजन भी बन पड़ता है और महाविनाश का क्षण भी देखते-देखते सामने आ खड़ा हो सकता है। अद्यावधि प्रगति चेतनात्मक परिष्कार और विकास के ही आधार पर संभव हुई है। यदि वह उद्गम तंत्र लड़खड़ा गया तो फिर न केवल असहयोगजन्य बिखराव होगा, वरन् आक्रामकता के विस्तार की बाढ़ में मानवी सभ्यता के लिए ही नहीं सत्ता के लिए भी संकट खड़ा हो जाएगा। पतन के गर्त में गिरते-गिरते उस स्थिति तक पहुँचा जा सकता है, जहाँ से फिर कभी लौटना संभव न हो।

विज्ञान की एक धारा विकृत बुद्धिवाद बनकर सामने आयी है। उसने प्रत्यक्षवादी विचारधारा को भी कम उत्तेजित नहीं किया। प्रत्यक्षवादी अर्थात् तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मान बैठने की धारणा। भले ही उसके कारण कुछ समय उपरान्त अनेक गुने संकटों को अति कष्टपूर्वक वहन करना पड़ा हो। दूरदर्शी विवेकशीलता को अमान्य ठहराने वाली, तुरन्त के लाभ को ही सब कुछ समझने वाली संकीर्ण स्वार्थपरता ही प्रत्यक्ष परायण बुद्धिवाद के रूप में एक नया तत्त्वदर्शन बनकर लोकचेतना को अपने वशवर्ती बनाने में सफल हुई है। इसकी क्रिया-प्रतिक्रिया और परिणति पग-पग प्रकट होती देखी जा सकती है। इस प्रत्यक्षवाद को वैज्ञानिक भौतिकवाद से किसी भी प्रकार कम भयंकर नहीं आँका जा सकता। वस्तुओं की अस्त-व्यस्तता मानव समाज को प्रभावित तो करती है, पर उतना नहीं जितना कि चिन्तन के गड़बड़ा जाने पर उद्विग्न कर डालने वाले घटाटोप उमड़ते हैं एवं अर्द्धविक्षिप्तता जैसी स्थिति सामने आ खड़ी होती है।

आदर्शों का निर्वाह और असीम सुखोपभोग की आतुर लालसा का उद्वेग एक स्थान पर एक साथ रह नहीं सकते। जहाँ एक रहेगा वहाँ दूसरे को पलायन करना पड़ेगा। अन्धकार और प्रकाश साथ-साथ रहने के लिए कहाँ सहमत होते होते हैं? विवशता का दबाव ही एक सीमा तक परस्पर एक-दूसरे को सहन कर पाता है। अनियंत्रित लिप्सा तात्कालिक लाभ के लिए बड़े-से-बड़ा अनर्थ करने में भी नहीं हिचकती। यहाँ तक कि आत्मघात तक उस उन्माद में अनदेखा बनकर रह जाता है। नशेबाजों की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक हर दृष्टि से कैसी दुर्दशा होती है, इसकी जानकारी प्रायः सभी को होती है। पर तत्काल मिलने वाली मस्ती को अपनाये बिना उस प्रकार के व्यसनियों से रहा नहीं जाता। दूर की बात कौन सोचे? परिणाम का अनुमान लगाने की फुर्सत किसे मिले? निषेध और विरोध अपनी लकीर पीटते रहते है, पर नशे के व्यवसाय एवं नशेबाजों के समुदाय में दिन-दूनी रात-चौगुनी वृद्धि होती जाती है। विवेक को तिलाञ्जलि देने के उपरान्त उन्माद की तृप्ति ही एकमात्र अवलम्बन बन जाती है। दूसरों को दुष्परिणाम भुगतते देखकर भी आवेशग्रस्तों की आँखें नहीं खुलती।

जीभ के चटोरेपन में हाथों हाथ स्वाद चखने का मजा आता है। इस प्रसंग में अत्यधिक मात्रा में अभक्ष्य उदरस्थ किये जाते हैं। अपच उसी का प्रतिफल है। वह अपच जो कुछ ही दिनों में पेट में सड़न भरी विषाक्तता उत्पन्न करके रक्तविकार से लेकर अनेकानेक रोगों का निमित्त कारण बनता है। कई बार तो दुष्परिणाम और भी जल्दी सामने आ खड़े होते हैं। उल्टी, दस्त, उदरशूल जैसी व्यथाएँ चटोरे लोगों को अक्सर हाथों हाथ ही देखी जाती हैं-भारी पेट लेकर चलना, काम करना, गहरी नींद सोना कठिन हो जाता हैं। फिर भी जिह्वा के स्वाद की ललक इतनी प्रचण्ड रहती है कि स्वाद के नाम पर विष भक्षण करना पड़े तो भी अपनी हरकत से बाज़ न आयें लोग प्रायः एक-चौथाई जिन्दगी इस चटोरेपन के कारण ही गँवा बैठते हैं। जितने दिन जीते हैं वे भी रुग्णता और दुर्बलता से आये दिन कराहते हुए ही ज्यों-त्यों करके गुजारते हैं।

कामुकता भी अपने ढंग का एक दूसरा उन्माद है, जिसकी चसक और ललक होश सँभालने से लेकर मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ती। यह जीवनरस को निचोड़ते रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। यह अपने ओजस की फुलझड़ी जलाकर चित्र-विचित्र तमाशा देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। भगिनी, पुत्री जैसी पवित्रता तिरोहित हो जाती है और संसार भर की युवतियाँ मात्र ऐसी वेश्याएँ प्रतीत होती हैं, जो कल्पनाशीलों के लिए ही अपना समर्पण करने की प्रतीक्षा कर रही हों। इस ललक से यौनाचार से भी अधिक घातक और अहर्निश विषय ज्वर की तरह चढ़ा रहने वाला बुखार मानसिक दक्षता को खोखला करके ही रहता है। शरीर तो समय-कुसमय निचुड़ता ही रहता है। चरित्र की दृष्टि से भी आचरण नरपशुओं जैसे बन पड़ते हैं। इस अनर्थ को देखते हुए भी संयम बरतने की सूझ उभरती नहीं। वैयक्तिक और सामाजिक जीवन इसी कारण असह्य भार से दबता जाता है। राष्ट्रीय प्रगति तो बन ही कैसे पड़े, विकास के जितने साधन जुट पाते हैं, उनसे अनेक गुने अभ्यागत पहले ही हाथ पसारे अपनी माँगे व्यक्त करते हुए देखे जाते हैं।

मर्यादाओं और वर्जनाओं का अंकुश उतार फेंकने के उपरान्त गगनचुम्बी लिप्सा, लालसाओं, महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए एक ही मार्ग रह जाता है-अनाचार उसके असंख्यों आकार-प्रकार है। दुर्बल स्तर के व्यक्ति चोरी, उठाईगिरी, ठगी, जुआ, प्रपंच, पाखण्ड जैसे जाल-जंजाल रचते हैं। भिक्षा माँगने से लेकर विश्वासघात करने तक में नहीं चूकते, पर जो समर्थ हैं, उनके लिए तस्करी, डकैती, हत्या, गिरोहबन्दी दादागिरी करने के द्वार, खुले रहते हैं। वे आतंकवादी आक्रमणकारी बनने से लेकर अपहरण और हत्याकांड तक में कोई कसर नहीं रखते। पागल क्या नहीं करता? विवेक के पलायन कर जाने पर मनुष्य समझदार दीखते हुए भी वस्तुतः भावना क्षेत्र का उन्मादी ही कहा जा सकता है। तथ्यतः यह सब प्रत्यक्षवाद की तूती बोलना ही कहा जाएगा।

सामाजिकता, नागरिकता, नीति, निष्ठा, उदारता, न्यायशीलता और समाज-मर्यादा आदि सभी मानवी विशेषताओं को वस्तुतः शालीनता के ही विभिन्न पक्ष और प्रयोग के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। जब मनुष्य नितान्त स्वार्थपरायण हो जाय और वह क्षुद्रतम संकीर्णता अपना ले तो फिर मत्स्य न्याय अपनाना या उसका शिकार बनाना ही एकमात्र नियति रह जाती है। यह पशुओं से भी गई-गुजरी स्थिति है। वह ईश्वर से लेकर, समाज-शासन के तथाकथित अंकुशों को पूरी तरह अंगूठा दिखा सकता है। फिर अभी कुछ खामियाजा भी भुगतना पड़ा, तो निर्लज्जों का इतने में क्या बनता-बिगड़ता है?

यहीं हैं वे सब कारण, जिसके कारण न नीतिनिष्ठा बची है, न सामाजिक मर्यादा। धर्म-कर्तव्य जैसी बातें तो मनोविनोद की चर्चा भर बनकर रह गई हैं, उन्हें व्यवहार में उतारने की आवश्यकता कौन समझता है? स्पष्ट है कि इस स्तर की मनःस्थिति के रहते परिस्थितियाँ ऐसी रह ही नहीं सकती जिसमें सुख-चैन से रहा और रहने दिया जा सके।

शारीरिक रुग्णता, मानसिक उद्विग्नता, आर्थिक अभावग्रस्तता, पारिवारिक उच्छृंखलता, सामाजिक अराजकता के रहते आशंका, अनिश्चितता और आतंक का ही माहौल सर्वत्र छाया रह सकता है। जिस तिस बहाने उपद्रव और विग्रह उभरते ही रहेंगे। आपसी असहयोग बना रहे, आन्तरिक असंतोष भरा रहे तो बाहरी क्षेत्र की सुविधायें किसी का क्या हित साधन कर सकती है? समाचार सुनने का, पढ़ने का जब भी अवकाश मिलता है तो अनर्थों की तूफानी बाढ़-सी आई लगती है, संदेह होता है कि देव-निवास कहा जाना वाला धरातल कहीं भूत-प्रेतों की भयावह दुनिया में तो नहीं बदल गया। ऐसी दशा में शान्ति और प्रगति की योजनाएँ बनाना एक स्वप्न संसार गढ़ लेने के समतुल्य ही माना जाएगा।

ऐसे ही वातावरण की प्रतिक्रिया प्रकृति को कुपित करती है और ऐसी दैवी प्रकोप की झड़ी लगती है जिनके कारण पूरी तरह जीते रहना बन पड़े और सर्वथा मर जाना ही संभव हो। इसे साँस रोक देने वाली घुटन जैसी स्थिति कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। इन दिनों हम सब ऐसे ही माहौल में रह रहे है। जब तब इस संदर्भ में बड़े विस्फोट भी फूटते है तब चौंकते है कि यह अनर्थ हम सबको काल के गाल में झोंक दे।

भविष्य की विभीषिकाओं की अक्सर भविष्यवाणियाँ होती है, उनके पीछे विद्यमान कारणों में बढ़ता हुआ प्रदूषण, उद्भिजों जैसा प्रजनन सामाजिक सद्भावों का विघटन ही नहीं,एक अत्यन्त सबल कारण यह भी है कि मनुष्य ने अपने भावनात्मक, चिंतनपरक,चारित्रिक एवं उदार सहकारिता के अनुबंधों को तिलाञ्जलि देते हुये ऐसी संस्कृति अपना ली है जैसे बौद्धिक प्रत्यक्षवाद पर अवलम्बित मानवीसत्ता के हर पक्ष में घुस पड़ी अराजकता ही कहा जा सकता है।


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