दौलत के लिए इतनी मशक्कत किस काम की

October 1998

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सम्पदा मनुष्य की महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक है। उसे प्राप्त तो किया जाना चाहिए, पर जीवन का एकमात्र लक्ष्य उसकी उपलब्धि मान लेना ठीक नहीं। इससे आदमी की कितनी ही जरूरत अधूरी रह जाती है। वह उन कार्यों को पूरा नहीं कर पाता जो उससे भी अधिक अनिवार्य और जीवन को उन्नत बनाने वाले है। अस्तु वैभव की तुलना में आत्मिक विभूतियाँ को ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए और उन्हीं को प्राप्त करने का अधिकाधिक प्रयत्न करना चाहिए कारण कि स्थायी और स्थिर सम्पत्ति केवल वही है।

यह सत्य है कि लौकिक वैभव चिरस्थायी नहीं होता पर मिथ्या यह भी नहीं है कि उसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य आज जिस पागलपन की हद को पार कर रहा है उसे अभूतपूर्व की कहना पड़ेगा। नीति-अनीति-उचित-अनुचित सही-गलत चाहे जिस भी तरीके से हस्तगत हो सके, उसको पा लेने के लिए लोग उन्मादग्रस्तों जैसे आचरण करते देखे जाते है। यह तक नहीं सोचते कि जो जीवन भगवान की ओर से श्रेष्ठ और सुन्दर बनने के लिए मिला है, उसे इतने निम्न उद्देश्य के लिए क्योंकर खपाया जाए? धन जीवन का निर्मित भर है सर्वस्व नहीं। जो इसे सब कुछ मानकर चलते और सर्वोपरि प्राप्तव्य में सम्मिलित रखते है, वे पाते कुछ नहीं, गँवाते बहुत कुछ है। ऐसे अगणित उदाहरण इतिहास के पृष्ठों में मिल जाएँगे, जो जीवन भर खजानों की खोज में लगे रहे। पर मिला कुछ नहीं। उलटे अभावग्रस्तता, खीज़ निराशा ही उनके पल्ले बँधी। यह बहुमूल्य समय यदि निजी जीवन के उत्कर्ष में लगा होता तो कम-से-कम संतोष और आनन्द तो मिलता व्यक्ति चरम लक्ष्य की ओर इंच भर सही अग्रसर तो होता पर ऐसा नहीं हो पाता है। कदाचित ऐसे ही व्यक्तियों के लिए यह कहा गया है-माया मिली राम।

दूसरी ओर कितने ऐसे भी स्थान है जो अपने गड़े धन के कारण कुख्यात है। लम्बे समय से उनको करतलगत करने के प्रयास और पुरुषार्थ होते रहे पर सफलता के नाम पर शून्य ही हाथ लगा। इतने पर भी वह अभियान रुके नहीं सनक स्तर पर बाद में भी जारी रहे।

उसी प्रकार की एक जगह ओकद्वीप का ‘मनीपिट’ है। मनीपिट अर्थात् धन का गड्ढा कहा जाता है कि इस गढ्ढे में धन की तलाश 18वीं सदी से आरंभ हुई। इसकी एक रोचक गाथा है सन् 1795 में सोलह वर्षीय डैनियल मक गिनिस अपने दो साथियों के साथ समुद्री यात्रा पर निकला। कई दिनों की यात्रा के बाद महोन की खाड़ी में एक छोटा-सा द्वीप दिखलाई पड़ा। वह उसे बड़ा रमणीक प्रतीत हुआ। उसने नाव किनारे लगायी और अपने मित्रों के साथ उसमें घूमने चला गया। देर तक वे वहाँ भ्रमण करते रहे। स्थान अत्यन्त सुरम्य था और चारों ओर से ओक वृक्षों से घिरा था। दो घण्टे पश्चात् जब वे लौट रहे थे, तो एक घेरे ने उन्हें आकर्षित किया। निकट पहुँचने पर पाया कि उस परिधि के बीच एक विशाल ओक पेड़ खड़ा है एवं उसके अगल-बगल के तरुवर गिरे पड़े है। वहाँ की भूमि कुछ उभरी हुई जान पड़ी। ऐसा मालूम पड़ता था मानो नीचे कुछ दबा हुआ हो। उत्सुकता चरम पर थी और व्याकुलता पल-लप बढ़ती जा रही थी कि आखिर यहाँ क्या हो सकता है? नाव से खनिज तथा खनन के अन्य उपकरण लाये गए और खुदाई शुरू कर दी गई। मिट्टी की लगभग तीन फुट मोटी पर्त हटाने पर उन्हें एक सुरंग दिखाई पड़ी, जिसमें नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थी। आगे खोदने पर मिट्टी के कई स्तम्भ मिले। इन स्तम्भों में यहाँ-वहाँ ओक की डालियाँ धँसी हुई थी। उन डालियों को निकाला। बाद की खुदाई में उन्हें मिट्टी के अनेक चबूतरे मिले। इनमें से कुछ सिर्फ मिट्टी के बने थे, जबकि कइयों के अन्दर नारियल के रेशे भरे थे। इन सबको देखकर उन लोगों ने इतना तो अनुमान लगा लिया कि यह कोई साधारण स्थान नहीं है और इसका प्रयोग निश्चय ही किसी विशेष प्रयोजन के लिए होता होगा, पर वह क्या हो सकता? इसका निर्णय वे न कर सके।

तब तक कई दिन बीत चुके थे। उनने यहाँ के बारे में किंवदन्ती सुन रखी थी कि वह रहस्यमय गतिविधियों का अजीबो-गरीब क्षेत्र है। रात में वहाँ पर रंग-बिरंगी रोशनियां चमकती है, जो कोई इसका पता लगाने गया वह लौटकर दुबारा नहीं आया। यद्यपि इतने दिनों में उन लोगों ने इस प्रकार की कोई बात नहीं देखी फिर भी वे भयभीत हो रहे थे। तीनों ने और लोगों की सहायता लेने के लिए लौटने का निश्चय किया तथा एक दिन लौट पड़ें।

इसके उपरान्त करीब एक दशक बीत गया। डैनियल और उसके दोस्त अपनी-अपनी पढ़ाई में मस्त हो गए। पढ़ाई पूरी करके तीनों ने नौकरी कर ली। इस बीच उनकी मनीपिट की स्मृति एक बार फिर से उभर आई। अब वे अर्थ की दृष्टि से स्वावलम्बी हो चुके थे, अतः कुछ लोगों को साथ लेकर एक दिन पुनः वहाँ के लिए प्रस्थान कर गए।

खुदाई दूसरी बार फिर प्रारम्भ की गई। आगे के उत्खनन में अन्य अनेक चबूतरे मिले। कुछ में पत्थर भरे हुए थे जबकि शेष बालू के ढेर मात्र थे। कार्य करीब दो दशाब्दी तक लगातार चलता रहा। इस बीच कोई विशेष उपलब्धि न हुई। वे निराश हो गए। धन भी समाप्त हो रहा था अस्तु उत्खनन कार्य स्थगित करने का फैसला किया। जाते समय वे उस शिलालेख को साथ ले गए जो खुदाई के समय मिला था। उस पर अज्ञात भाषा में कुछ लिखा हुआ थे। और कई प्रकार के निशान बने हुए थे। तब उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। 20वीं सदी के मध्य में जब उसे हैलीफैक्स में प्रदर्शन के लिए रखा गया तो एक प्रोफेसर की जिज्ञासा उसकी इबारत के प्रति बढ़ी। बहुत परिश्रम के बाद उसने अंकित संदेश को पढ़ने का दावा किया -दस फुट नीचे दो करोड़ पाउण्ड।

उक्त जानकारी के बाद खोज कार्य का एक बार पुनः श्रीगणेश हुआ। इस बार 40 वर्ष के लम्बे अंतराल के पश्चात् यह शुरू हुआ। अनेक लोगों ने धन पाने की लिप्सा में उस पर पानी की तरह पैसा बहाया पर परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा।

सन् 1938 में एडविनहैमिल्टन ने वहां180 फुट गहरी खुदाई करवायी पर हाथ कुछ न लगा। इसमें जो सबसे बड़ी बाधा सामने आई वह थी गड्ढे का पानी से भर जाना। पानी के कारण आगे का कार्य जारी रख पाना उनके लिए मुश्किल हो गया और परेशान होकर उसे बन्द कर दिया। कई वर्ष बाद फ्रैक लीह नामक एक इंजीनियर ने रुके कार्य को आगे बढ़ाया पर दुर्भाग्यवश खनन कार्य के दौरान एक दुर्घटना घट गई जिससे तीन लोग मारे गए। कार्य पुनः रुक गया।चार वर्ष पश्चात् एक अमेरिकन भूगभ्र्षास्«ी राबर्ट गनफील्ड ने उसे शुरू करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। उसने मनीपिट के समीप 80 फुट व्यास का 130 फुट गहरा कुआं खोदा पर यह प्रवास भी निष्फल रहा।बाद के कार्य में कुएं के पानी के कारण व्यवधान पड़ने लगा। फिर भी उसने हार नहीं मानी और शक्तिशाली पम्पों के द्वारा उसे उलीचकर कार्य को आगे बढ़ाया किन्तु पानी भरने की गति निकालने की गति निकालने की गति से अधिक तीव्र थी फलतः कुआँ भी खाली होने का नाम ही न लेता।ऐसी स्थिति में खनन कैसे हो? यह उसकी बुद्धि से परे था। विवश होकर उसे बन्द कर देना पड़ा। यह सन् 1967 की बात है

दस वर्ष पश्चात् कार्य को पुनः हाथ में लिया गया। इस बार उसे क्रियान्वित करने वाली संस्था टायटन अलाऐस नामक एक कम्पनी थी। उसने आधुनिक यंत्रों के सहारे 234 फुट गहरी खुदाई की तत्पश्चात उसमें टेलीविजन कैमरे के माध्यम से खोजबीन की गई।इससे उसके अन्दर तीन सन्दूक और एक कटा हुआ हाथ होने का पता चला। उक्त जानकारी के आधार पर उसमें गोताखोर उतारे गए पर वहाँ उन्हें न तो कोई बक्सा मिला न कटी बाँह दिखाई पड़ी। हारकर कम्पनी ने यह कहते हुए कार्य रोक दिया कि यहाँ छुपायें धन को प्राप्त कर पाना लगभग असंभव है। कारण कि यह कोई साधारण सम्पदा नहीं उससे रहस्यात्मक अलौकिक तत्व जुड़े हुए है जो उसे किसी अपात्र के हाथ पड़ने से रोकते है। उक्त कम्पनी की इस टिप्पणी के बावजूद ऐसे लोगों की कमी नहीं जो उस वैभव को लेकर तरह -तरह के मनसूबे न बाँधने हो और उसकी प्राप्ति के प्रयास न करते हो। संपत्ति किसे प्रिय नहीं है। विपन्नता की विपत्ति में कौन पड़ा रहना चाहता है हर कोई धनकुबेर बनने के सपने देखता है जब यह सुयोग गड़े खजाने के रूप में प्राप्त हो रहा हो तो भला उसे पाने कौन संवरण कर पाएगा

मनीपिट के साथ भी ऐसा ही होता रहा। उस सम्पदा की उपलब्धि के संदर्भ में ट्र्रायटन अलाऐस के निषेधात्मक विचार के बाद भी लोगों ने उस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और अपने अपने प्रकार के प्रयास उसे हस्तगत करने के लिए करते रहे, अब भी जारी है। यह बात और है कि उनके भी नतीजे वही रहे जो औरों के थे।

इस अभियान में सभी के साथ एक ही कठिनाई सामने आई-गड्ढे का जलयुक्त हो जाना। ऐसा क्यों होता है? अब इसका कारण ढूँढ़ लिया गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि सन् 1795 से पूर्व जिसने भी यहाँ खुदाई की होगी, उसने 100 फुट गहराई के बाद गढ्ढे और समुद्र के मध्य एक 500 फुट लम्बी सुरंग बना दी होगी, ताकि कोई भी व्यक्ति इस गहराई से आगे न बढ़ सके और खजाने के वास्तविक स्थान का पता न लगा सके।

अनेकों व्यक्तियों ने तब से लेकर अब तक इसकी ललक में अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय, श्रम और धन बर्बाद किया, फिर भी वे खाली हाथ ही रहे। यदि इतना सब कुछ आत्मिक सम्पदा करतलगत करने में लगा होता तो शायद उनका जीवन सफल और सार्थक बन गया होता पर सर्वसाधारण की जिन्दगी में धन का आकर्षण इतना प्रबल है कि उसके आगे सारे आदर्श, सिद्धान्त तथा प्रयोजन तुच्छ जान पड़ते है और उसकी प्राप्ति के निमित्त लोग वह सब करने को प्रस्तुत हो जाते है जिन्हें आचारशास्त्र में निशिद्ध घोषित किया गया है। सम्पदा का महत्व सर्वविदित है। भौतिक जीवन में उसकी उपेक्षा तो नहीं की जा सकती पर उस हेतु सनक स्तर का आचरण भी स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। एकांगी प्रयास मनुष्य को अधूरा और अपूर्ण रखता है। धन के साथ गुणों का समन्वय न हो, तो जीवन में संतुलन-समीकरण नहीं आ पाएगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति या तो व्यसनी, दुर्गुणी, व्यभिचारी बन जाएगा अथवा अतिवादी व्यवहार अपनाएगा। इसलिए अध्यात्म तत्त्वज्ञान में भौतिक सम्पत्ति की तुलना में आत्मिक विभूति को अधिक श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण बतलाया गया है एवं उसी की प्राप्ति पर बल दिया गया है।


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