युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष 3 - प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धान्त

October 1998

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जनसाधारण के बीच प्रतिभाशाली अलग से चमकते है जैसे पत्तों व काँटों के बीच फूल जैसे तारों के बीच चन्द्रमा। यह जन्मजात उपलब्धि नहीं और न किसी का दिया हुआ वरदान। इसे भाग्यवश मिला हुआ आकस्मिक संयोग सुयोग भी नहीं कहा जा सकता। यह स्वउपार्जित सम्पदा है। इस कार्य में दूसरे कुछ सहायक तो हो सकते है पर प्रधानता अपने ही प्रबल प्रयास की रहती है।

धन आता है और चला जाता है। रूप यौवन भी सामयिक है। उसका संबंध चढ़ते खून से हैं किशोर और तरुण ही सुन्दर दीखते है इसके बाद ढलान आरम्भ होते ही अवयवों में कठोरता और चेहरे रुक्षता की हवाइयाँ उड़ने लगती ही। विद्या उतनी ही स्मरण रहती है जितनी कि व्यवहार में काम आती है मित्र सहयोगी संबंधी सहायकों के मन बदलते रहते है। आवश्यक नहीं कि उनकी घनिष्ठता सदा एक सी बनी रहे। अधिकार भी चिरस्थायी नहीं है। समर्थन घटते ही वे दूसरे के हाथों चले जाते है वयोवृद्धों की उत्पादन की परिश्रम की क्षमता घट जाती है ऐसी दशा में उन्हें निरुपयोगी मानकर उपेक्षा अवज्ञा बरती जाने लगती है। आयु वृद्धि के साथ साथ स्मरण शक्ति ओर स्फूर्ति भी जवाब देने लगती है ऐसी दशा में तब कोई बड़ी योजना बनाना और उसे चलना पूरी करके दिखाना भी वश से बाहर हो जाता है यह सब मरण से पूर्व के लक्षण ही है। जीवनीशक्ति का भण्डार धीरे धीरे चुकाता है और वह अन्ततः जवाब दे जाता है।

विकासोन्मुख शरीर चढ़ते खून और परिपक्व व्यक्तित्व वाले दिनों में ही रहता है उसे भले ही कोई आलस प्रमाद में गुजार दे भले ही कोई लिप्सा लालसा की वेदी पर विसर्जित कर दे। कोई कोई तो उन दिनों भी अतिवादी उद्दण्डता दिखाने से नहीं चूकते। यह सब शक्तियों और संभावनाओं के भाण्डागार मनुष्य जीवन के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। दूरदर्शी वे है जो विभूतियों में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा को मानते है और उसके सम्पादन हेतु प्राणपण से प्रयत्न करते है क्योंकि वही हर स्थिति में साथ रहती है अपनी तथा दूसरी की गुत्थियाँ सुलझाती है और जन्म जन्मान्तरों तक साथ रहकर क्रमशः अधिकाधिक ऊँचे स्तर वाली परिस्थितियों का निर्माण करती रहती है। इस उपार्जन के लिये किये गये प्रयत्नों को ही हर दृष्टि से सराहा और स्वर्ण सम्पदा की तरह किसी भी बाज़ार में भुनाया जा सकता है। भौतिक प्रगति में भी उसी के चमत्कार दीखते है और आदर्शवादी परमार्थ अपनाने पर हस्तगत होने वाली महानता को भी उसी के सहारे विकसित परिष्कृत होते हुये देख जा सकता है।

प्रतिभा परिष्कार के कुछ मूलभूत सिद्धान्त है। उन्हें सभी को समझने हृदयंगम करने का प्रयत्न करना चाहिये जो समुन्नत सुसंस्कृत एवं चाहिये जो समुन्नत सुसंस्कृत एवं यशस्वी सफल जीवन जीने के लिये इच्छुक है।

प्रथम सिद्धान्त अथवा आधार है क्षमताओं का अभिवर्द्धन उनके लिये निरन्तर तत्परता का तन्मयता का सुनियोजन। आलस्य प्रमाद से बचकर सदा जागरूक और स्फूर्तिवान् बने रहना। एक एक क्षण को बहुमूल्य मानकर उन्हें सदुद्देश्यों के लिये सुनियोजित रखने के लिये योजनाबद्ध आकलन यही है व मनः स्थिति जिसे महाजागरण कहते है आमतौर से लोग अर्द्ध−तंद्रा की स्थिति में जिन्दगी को दर्द की तरह जीते है। निर्वाह साधन पालने भर से उन्हें संतोष हो जाता है। वे भाव तरंगें उठती ही नहीं जो आज की तुलना में कल को अधिक परिष्कृत बनाने के लिये लालायित रहती और प्रयत्नरत होती है। प्रतिभा के उपासक इस दलदल से उबरते है और अपने को व्यवस्थित करके बिखरती रहने वाली क्षमताओं को बचाकर उन्हें मूल्यवान पूँजी की तरह एकत्रित करते हैं। जो हस्तगत है उसका श्रेष्ठतम उपयोग करते है। यही है कल्पवृक्ष का उत्पादन एवं उसका उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग क्रियान्वयन।

दूसरा चरण है अपने व्यक्तित्व को चुम्बकीय आकर्षक एवं विश्वस्त स्तर का विकसित करना। यह मनुष्यत्व के साथ जुड़ने वाला प्राथमिक गुण है। इसके लिये अपना रहन सहन ऐसा बनाना पड़ता है जैसा जागरूक जिम्मेदार और सज्जनता सम्पन्नों का होना चाहिये। शरीर और मन को स्वच्छ रखना तो आवश्यक है ही शिष्टाचार का निर्वाह और वाणी में मधुरता का गहरा पुट लगाये रहना भी आवश्यक है। इसके लिये अपनी नम्रता का परिचय देना और दूसरों को सम्मान देना आवश्यक हैं। उसे वे ही कर पाते हैं जो दूसरों के गुण देखकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करते रहते है साथ ही अपनी त्रुटियों को खोजते एवं उनके निष्कासन परिष्कार में लगे रहते है। ओछे व्यक्ति अपने संबंध में शेखी बघारते और दूसरों के दोष गिनाते रहते है। उसी जंजाल में उनका चिन्तन और वर्चस्व घटता और समाप्त होता रहता है।

प्रतिभावानों के होठों पर मंद मुसकान देखी जाती है इसी आधार पर यह जाना जाता है कि वे अपने आप में सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं दूसरे भी ऐसे ही लोगों का सहारा ताकते और साथ देते है। खीजते और खिजाते रहने वालों को दूर से ही नमस्कार करके कन्नी काटने को जी करता है। जिन्हें अपना सही

मूल्याँकन कराना है वे प्रकार की भूलें नहीं करते। यदि वे आदत में सम्मिलित हो गई हो तो उन्हें बुहार फेंकने की मुस्तैदी दिखाते है।

तीसरा चरण है सुव्यवस्था। अस्त व्यस्त स्थिति में प्रचुर साधन रहते हुये भी लोग असफल रहते और उपहासास्पद बनते है। प्रतिभाएँ क्षण क्षण में अपने कार्यों और नियोजनों की समीक्षा करती रहती है और उन्हें सही बनाने के लिये जो हेर फेर करना आवश्यक होता है उसे बिना हिचक तत्परतापूर्वक करती है। जड़ता हठवादिता के शिकंजे में जकड़ने का उन्हें तनिक भी आग्रह नहीं होता। वे जानते है कि प्रगतिशीलों को सदा परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति बनानी और चलते ढर्रे में आवश्यक सुधार लाने की चेष्टा करनी पड़ती है। सुव्यवस्था इसी प्रकार बन पड़ती है जो अपने समय का श्रम साधनों का विचारों का परिवार परिकर का सुनियोजन कर सकता है ओर उन्हें सही दिशा दे सकने में समर्थ हो सकता है उसी को इस योग्य समझा जाता है कि वह कोई बड़ी या अतिरिक्त जिम्मेदारी को वहन कर सके। किन्हीं बढ़ी चढ़ी महत्त्वाकाँक्षाओं को सजाने से पूर्व यह प्रमाण देना पड़ता है कि व्यक्तित्व परिकर एवं क्रिया–कलापों में किस सीमा तक व्यवस्था बुद्धि का उपयोग किया गया और कितना सफल समुन्नत दिखाया गया।

चौथा व अंतिम सूत्र है अग्रगम्य नेतृत्व। यह उत्साह साहस और आत्म विश्वास का प्रतीक है। साधारण जन आत्महीनता से ग्रसित एवं झिझक संकोच अनिश्चय एवं साहसहीनता की मनः स्थिति में पड़े पाये जाते है वे उचित कार्यों के लिये भी कदम बढ़ाने का साहस नहीं कर पाते। अधिक से अधिक इतना ही सोचते हैं कि कोई आगे बढ़े तो उसके पीछे चलने लगे। उचित अनुचित का अन्तर तो बहुत लोग जानते हैं पर इतना साहस नहीं संजों पाते कि जो उचित है उसी को अपनाते हुये अग्रगमन का कदम उठाये। ऐसे लोग उचित निष्कर्ष निकाल लेने पर भी उस मार्ग का अवलम्बन नहीं कर पाते। उसे अनुपयुक्त मानते हुये भी उस परिधि से एक कदम आगे भी नहीं रख पाते। ऐसों के बीच उन्हीं को मनस्वी माना जाता है जो उचित के प्रति अटूट आस्था रखें और जो करना चाहिये उसे अन्यों का समर्थन सहमति न मिलने पर भी एकाकी कर दिखायें इसे दूध गरम करते ही मलाई के तैरकर ऊपर आ जाने के समकक्ष समझा जा सकता है।

प्रतिभाएँ अपने अग्रगमन की क्षमता का एकाकी बढ़कर प्रमाण प्रस्तुत करती है। फिर सर्वत्र उनकी मनस्विता का लोहा माना जाने लगता है। दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करते है जिनकी जिम्मेदारियाँ भारी है वे ऐसे ही लोगों को तलाश करती रहती है। प्रामाणिकता की परख होने पर सब ओर से एक से एक बढ़कर भारी भरकम जिम्मेदारियों उनके ऊपर आग्रहपूर्वक डाली जाने लगती है वे उन्हें बिना अचकचाये स्वीकार करते और जो कार्य कंधे पर लिया गया है उसे सर्वांगपूर्ण ढंग से सम्पन्न कर दिखाते है।

दूरदर्शी विवेकवान अपनी श्रेष्ठता को विकसित करते है और अपने आदर्शवादी क्रिया–कलापों के आधार पर प्रामाणिक माने जाते और विश्वस्त बनते है। जिनने उच्चस्तरीय सफलतायें पाई उनका अनुकरण करते और सहयोग देते असंख्यों देखे जाते हैं इसलिये प्रतिभा की महासिद्धि की साधना करने वाले अपने चरित्र की प्रामाणिकता को हर हालत में बनाये रहते है भले ही उसके लिये अभावग्रस्त स्थिति में रहना पड़े और तात्कालिक मिल सकने वाली सफलता से वंचित रहना पड़े।

प्रतिभा तत्संबंधी सिद्धान्तों का मनन चिन्तन करते रहने भर से हस्तगत नहीं होती। उनको नहीं होती। उनको स्वभाव का अंग बनाना पड़ता है। चिन्तन चरित्र और व्यवहार में उन्हें भली प्रकार समाविष्ट करना पड़ता है। यह कार्य प्रत्यक्ष क्रियान्वयन के बिना संभव नहीं होता। विचार वे ही प्रौढ़ एवं प्रखर होते है। जो क्रिया में उतरते रहते हैं। डायनेमो घूमता है तो बैटरी चार्ज होती है। विचारों और कार्यों के समन्वय से ही व्यक्तित्व का स्तर बनता है और उसी आधार पर सफलता के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण गौरव हस्तगत होता है। यह ही वह हुण्डी है जिसे किसी भी हाथों हाथ भुनाया जा सकता है। बड़े काम कर गुजरने वाले जन्मजात विभूतियाँ साथ लेकर कदाचित ही कोई आते है।हर किसी को यह उपलब्धि अपने मनोयोग और प्रचण्ड प्रयास के आधार पर ही हस्तगत करनी होती है। साँसारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाले बड़े कार्य भी ऐसे ही लोगों ने संपन्न किये है। बहुमुखी सफलताओं का श्रेय उन्हीं पर बरसा हैं ऐसे ही लोग समाज को स्थिरता देते और अवांछनीय उलटे प्रचलनों को उलटकर ठीक कर दिखाते हैं समय का कायाकल्प करते वातावरण में नवजीवन का प्राण−प्रवाह भरते ऐसे ही लोगों का देखा जाता है।

प्रतिभा परिवर्धन का प्रशिक्षण देने वाले कोई स्कूल कॉलेज कहीं नहीं है। इसके लिए निर्धारित सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारने के लिये अवसर और वातावरण स्वयं तलाशना पड़ता है। उस प्रकार के अवसर कहीं एक जगह एकत्रित नहीं मिलते उन्हें दाने बीनने वाले की तरह झोली में भरना पड़ता है। पर इन दिनों एक ऐसा सुयोग सामने है जिसके साथ संबंध सूत्र जोड़ने पर हर किसी को वह सुयोग हस्तगत हो सकता है जिसके सहारे प्रतिभा सम्पादन का सौभाग्य अनायास ही हस्तगत हो सके। ऐसे सुयोग कभी कभी ही सामने आते है। हनुमान ने समय पहचाना और वे थोड़े ही समय पहचाना और वे थोड़े ही समय समुद्र लाँघने पर्वत उखाड़ने और लंका को मटियामेट बनाने का श्रेय प्राप्त कर सके। इसे समय की पहचान ही कहना चाहिये यदि उस सुयोग का लाभ उठाना उनसे न बन पड़ता तो सुग्रीव सेवक वानर रहकर ही उन्हें भी दिन गुजारने पड़ते।


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