नारी अभ्युदय का अरुणोदय अब सन्निकट

October 1998

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नारी प्रकृति की अनुपम कृति है। सृष्टि के विकासक्रम में उसका महत्वपूर्ण स्थान है। वह मानव-जीवन की जन्मदात्री है। उसे सौंदर्य, दया, ममता, भावना, संवेदना, करुणा, क्षमा, वात्सल्य, त्याग एवं समर्पण की सजीव प्रतिमूर्ति माना गया है। नारी के इन्हीं दैवी गुणों की वजह से वेदकाल से लेकर आधुनिक काल तक उसका महत्व अक्षुण्ण रहा है। मेघाच्छन्न मध्यकाल एवं आधुनिक उपभोक्तावादी समाज भी अपनी लाखों कोशिशों के बावजूद उसके वजूद को समाप्त नहीं कर सके। हर युग में नारी की प्रतिभा, विद्वत्ता व विशिष्टता से व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तथा विश्व तक उपकृत होते रहे है। उत्थान और निर्माण में नारी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

वैदिक काल नारी इतिहास का स्वर्ण युग रहा है। उन दिनों नारी को आदर्श के रूप में देखा जाता था। विद्या का आदर्श सरस्वती में, धन का लक्ष्मी में, पराक्रम का दुर्गा में, सौंदर्य रति में एवं पवित्रता का गंगा में। सृष्टि की संचालिका शक्ति प्रकृति का भी नारी रूप में चित्रण किया गया। डॉ. राजकिशोर सिंह ने अपने ग्रन्थ प्राचीन भारतीय कला एवं संस्कृति में नारी की महत्ता को शब्दांकित करते हुए कहा है, “ममता की मंजूषा, स्नेह का सदन, दया का उद्गम, क्षमा की सुमेरु, विधाता की कलापूर्ण सृष्टि का श्रृंगार, पृथ्वी की कविता, देश-निर्माण की आधारशिला, उमा-रमा-सरस्वती के समान नारी का इस भारत-वसुंधरा में सदा-सर्वदा से आदरणीय स्थान रहा है।”

वैदिक काल या प्राचीन भारत में स्त्रियाँ ऊँची-से-ऊँची शिक्षा ग्रहण करती थी। इसीलिए उनके प्रति गरिमापूर्ण भाव रहा है। यजुर्वेद में नारी को सम्बोधित करके कहा गया है-हे नारी! तू स्तुति योग्य उत्तम वाणी युक्त, आदरणीय, पूजनीया, कमनीय, चन्द्र के समान आह्दकारिणी, श्रेष्ठ शील से प्रकाशमान अर्थात् ज्योति के समान अज्ञानान्धकार को अपने दिव्य गुणों के प्रकाश से दूर करने वाली है। तू दीनता एवं हीनता के भावों से रहित, परम्परा से पूर्ण, विविध गुणों से प्रसिद्ध अथवा विविध विद्याओं का जिसने श्रवण किया हुआ है तथा विविध विद्याओं में प्रवीण-यह तेरे नाम है। तू उत्तम गुणों के लिए मुझे उपदेश दिया कर। नारी का ऐसा दिव्यतम वर्णन उसकी विशिष्टता की झलक दिखने के लिए पर्याप्त है। यजुर्वेद में ही नारी को सोमपृष्ठा कहा गया है, जिसका अभिप्राय है, वेदमंत्रों के प्रति अभिरुचि रखना एवं इनके लिए जिज्ञासु होना। डॉ. उपेन्द्र ठाकुर ने अपनी रचना साहित्य और संस्कृति में इस तथ्य का सुरुचिपूर्ण विवेचन किया है। उनके अनुसार महर्षि अत्रि के परिवार की विश्ववारा मन्त्रदृष्टा के रूप में विख्यात थी, वहीं ऋषि कक्ष्ज्ञीवानप की पुत्री घोषा ऋग्वेद के दो मण्डलों तथा अगत्स्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा दो ऋचाओं की प्रणेता मानी गयीं। जारा असंग की पत्नी रानी शाश्वती तथा ब्रह्मवादिनी अपाला उस युग की विख्यात दार्शनिक थी।

वैदिक काल में अनेकानेक विदुषी महिलाओं के प्रखर पाण्डित्य एवं अगाध प्रतिभा का परिचय मिलता है। उन्हीं दिनों सुलभा एक अत्यन्त विदुषी महिला थी। वक्तृत्व कला के क्षेत्र में वह पारंगत व प्रवीण थी। उसके अलावा भी श्रद्धा, सरमा, रोमषा, यमी, अदिति आदि नारी ऋषिकाएं थी, जिन्होंने वेदों के गूढ़ रहस्यों का साक्षात्कार किया था। आध्यात्मिक ज्ञान रखने के साथ ही धार्मिक, सामाजिक क्षेत्र में भी नारी का पुरुष के बराबर स्थान था। यज्ञ में उसकी सहभागिता अनिवार्य थी। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों में स्त्री और पुरुष दोनों नदी के दो तटों की भाँति संयुक्त है। दोनों के बीच में जीवन की धारा प्रवाहित होती है। वैदिक साहित्य में स्त्री और पुरुष की उपमा पृथ्वी और द्युलोक से दी गयी है। जैसे षुक्ति के दो दलों के मध्य मोती की स्थिति होती है, ऐसे ही स्त्री-पुरुष के मध्य संतति है, द्यावा-पृथ्वी पति-पत्नी के समान परस्पर पूरक है। प्रकृति ने नारी को सन्तानोत्पत्ति जैसे विशिष्ट गुण देकर सृष्टि के सभी जीवों में इसकी विशिष्टता का प्रतिपादन किया है।

प्राचीन भारत में स्त्रियों को सभी क्षेत्रों व दिशाओं में उन्नति एवं प्रगति करने का सुअवसर प्राप्त था। इसीलिए उस काल में नारी की प्रतिभा तथा ज्ञान अपूर्व और अद्भुत था। नारी के अन्दर जहाँ विचारशक्ति व आत्मबल था, वहाँ उसके व्यवहार में शालीनता, विनम्रता तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व भी विराजमान् था। तभी उन दिनों नारी अपने आत्मबल, चरित्र आदि दिव्य गुणों के द्वारा राष्ट्र के आदर्शों को ऊँचा उठाती रही। यह ही वह संजीवनी शक्ति थी, जो प्राचीन भारत में नूतन प्राण व जीवन का संचार करती रही। परिवार व समाज में नारी का स्थान पुरुषों के समान था। कन्यादान के समय माता की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी। स्त्री को गृहिणी, माता एवं सहचरी के रूप में घर का प्रबंधन व नियमन वही करती थी। पतिव्रता स्त्री को देवी के समान सम्मान दिया जाता था। स्त्री व पुरुष दोनों को ही इच्छानुसार विवाह की स्वतन्त्रता थी। ऋग्वेद में स्त्रियों को पति वरण करने की स्वतन्त्रता प्राप्त होने का वर्णन मिलता है। नववधू को सौभाग्य व मंगल का प्रतीक माना जाता था। उन दिनों विधवाओं द्वारा पुनर्विवाह किए जाने के प्रमाण भी मिलते है। इस तरह वैदिक काल नारी के उत्कर्ष एवं उत्थान का काल था।

उपनिषद् काल में भी नारियों का सम्मान एवं गौरव यथावत बना रहा। बृहदारण्यक उपनिषद् में गार्गी व मैत्रेयी की विद्वता का पर्याप्त दिग्दर्शन मिलता है। इस काल में भी शिक्षा के क्षेत्र में नारी का योगदान सराहनीय रहा। समाज के अन्य क्षेत्रों में भी वह अपनी श्रेष्ठता का परिचय देती रही। इस काल आठों प्रकार के विवाहों का प्रचलन हो चुका था। गृहस्थाश्रम में भी ब्रह्मचर्य का उल्लेख मिलता है। यज्ञों व धार्मिक कार्यों में पत्नी का स्थान पुरोहित के समान होता है।

रामायण काल में नारी को विविध रूपों में चित्रित किया गया है। इस काल की विशेषता अहिल्या, सीता, तारा एवं मन्दोदरी जैसी महान नारियों के कारण मानी जाती है। समाज में कन्या के जन्म को शुभ मानने का उन दिनों आम प्रचलन था। शुभ कार्यों में कुँआरी कन्याओं की उपस्थित अनिवार्य मानी जाती थी। कन्यादान का कार्य महापुण्य समझा जाता था। स्त्रियों को व्यावहारिक व नैतिक शिक्षा के साथ राज धर्म की भी शिक्षा दी जाती थी। स्त्रियाँ संगीत, नृत्य व अनेक कलाओं में प्रवीण व पारंगत होती थी। कौशल्या के मंत्रों सहित आहुति देने, सीता के संध्योपासना करने तथा तारा के मंत्रविद् होने के अनेकों प्रसंग रामायण में आए है। कैकेयी ने सैनिक शिक्षा प्राप्त कर युद्ध क्षेत्र में राजा दशरथ के प्राण बचाए थे। उन दिनों के अनेक प्रसंगों में नारी के शौर्य व पराक्रम का परिचय प्राप्त होता है।

रामायण काल में पर्दे से अधिक महत्व सदाचार को दिया जाता था। विपत्तियाँ में युद्ध, स्वयंवर, यज्ञ आदि अवसरों पर नारियाँ पुरुषों के समान कार्यों का संचालन करती थी। पतिव्रत धर्म सर्वोपरि एवं पवित्र माना जाता था। सीता व अनसूया ने इसे आजीवन निभाया था। विधवाओं को सम्माननीय भाव से देखा जाता था। रामायण काल की नारियों के विषय में शांताकुमार व्यास का कथन है कि उस काल में स्त्रियों की स्थिति सुखद थी। तत्कालीन परिस्थितियों में नारी को एक कन्या, पत्नी, माता और विधवा के रूप में समस्त सम्भव सुविधाएँ और अधिकार प्राप्त थे और इसके सहारे वह परिवार, समाज और राष्ट्र के साँस्कृतिक उत्थान में अमूल्य योगदान कर रही थी। आदिकवि बाल्मिकी के अनुसार नारीत्व की चरम परिणति मातृत्व के रूप में होती है। मनुष्य के चरित्र निर्माण की सूत्रधारिणी माता है, पिता नहीं।

महाभारत काल भी नारी की समृद्धि एवं प्रगति का घोतक है। महाकाव्य महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह के स्त्रियों के प्रति उच्च आदर का भाव प्रदर्शित करते हुए कहा है, स्त्री को सदैव पूज्य मानकर उससे स्नेह का व्यवहार करना आवश्यक है। जहाँ स्त्रियाँ का आदर-सत्कार होता है, वहाँ देवताओं का निवास होता है और उनकी अनुपस्थित में सभी कार्य निष्फल माने जाते है। महाभारत काल नारी को दिव्य गुणों से युक्त माना गया है। महाभारत के अनुसार पत्नी अपने पति का आधा अंग मानी गयी है। उसे संसार में सर्वश्रेष्ठ सखा अर्थात् मित्र स्वीकार किया गया है। वह त्रिवर्ग-धर्म अर्थ और काम का मूल घोषित की गयी है। दुःख से पार जाने के लिए सहारा एक मात्र पत्नी ही है। पत्नी के साथ ही पति की विशेषज्ञ रूप से शोभा और आनन्द है। प्रिय बोलने वाली पत्नियाँ जनशून्य स्थान में मित्र का काम देती है। वे ही धार्मिक कार्यों में पिता के समान परामर्श देने वाली और दुःखी व रोगी पुरुष की उसकी माता की तरह सेवा करने वाली होती है। जिस पुरुष की पत्नी विद्यमान है, ऐसे पुरुष का प्रायः सभी विश्वास करते है। अतएव पत्नी एक बहुत बड़ा सहारा है।

महाभारत काल में स्त्री एवं पुरुष को परस्पर पूरक तथा एक दूसरे के विकास में सहायक माना जाता था। कन्या की दशा सन्तोषजनक थी। लड़कियों के भी विविध संस्कार किए जाने का प्रचलन था। उन्होंने अनेक विषयों एवं क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा तथा ज्ञान की छाप छोड़ी थी। शकुन्तला, सावित्री, शिवा, विदुला, गौतमी, आचार्य, अरुन्धती, दमयंती आदि उस काल की विदुषी महिलाएँ थी। ये शास्त्र ज्ञान के साथ ही धर्म एवं राजनीति में भी निपुण थी। गंगा, सत्यवती, गान्धारी, कुन्ती आदि ने ऐसे ही शिक्षा प्राप्त की थी। द्रौपदी को दी गई पंडित, धर्मज्ञा, धर्मदर्शनी आदि संज्ञायें उसकी विद्वत्ता की ही प्रमाण है। वह स्वयं सारे राजकोष के आय-व्यय का हिसाब रखती थी। उत्तरा गीत-नृत्य व बाह्य में अत्यन्त निपुण थी। सत्यवती अपने पिता के कार्य में सहयोग देती थी। उसने समाज में अन्य कन्याओं के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया था। इतना ही नहीं उन दिनों विवाहित स्त्रियों को संन्यास लेने का अधिकार प्राप्त था।

महाभारत काल में स्त्री को पतिव्रता एवं शीलवती होने पर विशेष महत्व एवं सम्मान दिया जाता था। सावित्री, दमयंती, गान्धारी, द्रौपदी, सत्यभामा, सुभद्रा आदि उस काल की पतिव्रता स्त्रियाँ थी। नारी के शील को ही उसका आभूषण माना जाता था। पत्नी को पति के समान ही सभी अधिकार प्राप्त थे। इस काल में नारी को गृहलक्ष्मी मानकर उसे सुख व समृद्धि का प्रतीक कहा और माना जाता था। समाज में विधवा स्त्रियाँ का भी आदर किया जाता था, जैसे-सत्यवती कुन्ती, उत्तरा आदि को विशिष्ट दर्जा प्राप्त था।

महाभारत काल के बाद मौर्यकाल में नारी की विदुशा एवं प्रतिभा के अनेकों प्रमाण मिलते है। गुप्तकाल में भी अनेक विदुषी नारियों का उल्लेख किया है। वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में स्त्रियों के कुछ ऐसे कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है, जो परिवार के सम्मान तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि करने के लिए आवश्यक समझे जाते है। उन दिनों शिक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान दिया जाता था। अमरकोष में ऐसी अनेकों महिलाओं का वर्णन है, जो वेदमंत्रों की शिक्षा देती थी। शीला भट्टारिका नामक विदुषी स्त्री इसी काल में हुई। भोज ने अपने ग्रन्थ सरस्वती कण्ठाभरण में शीला भट्टारिका को पाँचाली रीति का सिद्धहस्त प्रयोक्ता माना है। मुद्रक के मूच्छकटिकम् नाटक में प्रख्यात महिला संगीतज्ञों का वर्णन किया गया है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की पुत्री प्रभावती भी एक विदुषी महिला थी। इस काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। उन दिनों स्त्रियाँ सार्वजनिक समारोहों में भाग लेती थी। गुप्तकाल में आठ प्रकार की विवाह प्रणालियों का प्रचलन था, परन्तु ब्राह्मण, दैव, आर्य एवं प्राजापत्य विवाह ही श्रेष्ठ माने जाते थे। नारद एवं पाराशर स्मृतियों में स्त्रियों के पुनर्विवाह का भी समर्थन किया गया है।

राजपूत काल में स्त्रियों की स्थिति सुदृढ़ एवं सबल थी। अनेक अवसरों पर वे स्वयं अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर रणभूमि में लड़ने जाती थी। राजपूताने की मरुभूमि उस समय नारियों के शौर्य व तेज से आलोकित रहती थी। स्त्रियाँ शीलवती, चरित्रवान तथा पतिव्रता होती थी। ये इस्लाम आक्रमणकारियों से अपने पतिव्रत धर्म एवं सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर व्रत का पालन करती थी। इस संबंध में प्रख्यात विद्वान डॉ. राधामुखर्जी ने अपने ग्रन्थ भारत की संस्कृति और कला में इस तरह लिखा अपमान पर विजय का प्रतीक भी है। राजपूत इतिहास में जौहर के विशिष्टतम उदाहरण ह। महमूद गजनबी द्वारा पराजित होने पर उदबन्ध के जयपाल, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा पराजित होने पर रणथम्मोर के हमीरदेव, चित्तौड़ के राणा रतनसिंह की रानी पद्मिनी, मुहम्मद तुगलक द्वारा हारने पर कंपिल के राजा एवं रानी, क्रमशः शेरशाह और बाबर द्वारा पराजित होने के पश्चात् चंदेरी के भैय्या पूरनमल और मेदिनीराय, तैमूर के हत्याकांड के दौरान दिल्ली के सम्मान्य निवासियों तथा अकबर के आक्रमण व निर्दय हत्याकांड के दौरान चित्तौड़ के चारों ओर से घिरी हुई सेना के आत्मबलिदान के साथ महिलाओं के जौहर का मार्मिक वर्णन किया गया है। अलबेरूनी ने लिखा है, राजपूत काल में सभी स्त्रियाँ शिक्षित हुआ करती थी तथा सामाजिक जीवन में बढ़-चढ़ कर भाग लेती थी। कन्याएँ नृत्य-संगीत चित्रकला एवं अस्त्रविद्या में पारंगत थी। भास्कराचार्य की पुत्री लीलावती गणित में दक्ष थी। राजशेखर की पत्नी अवंती की श्रेष्ठ कवियित्री माना जाता था। इस काल में कश्मीर की रानी दिद्य तथा काकन्तीय रानी रुद्रम्ब आदि शाशिकाऐं थी। रानी दुर्गावती तो शौर्य एवं पराक्रम की प्रतीक थी। नारियों में आत्म- बलिदान का भाव सर्वोपरि रहता था। वे शौर्य, साहस एवं वीरता की प्रेरणा स्रोत थी।

अभी हाल में हुए स्वतंत्रता आन्दोलन में नारी का योगदान कम नहीं रहा। इसकी बलिदानी प्रथा का शुभारम्भ वीराँगना लक्ष्मीबाई ने किया। इस काल में महिलाओं ने अत्यन्त साहसिक कार्य किए। लार्ड हेस्टिंग्स के समय देवी चौधुरानी ने संन्यासी विद्रोह को नेतृत्व किया था। देशबन्धु सी.आर.दास की पत्नी वासन्ती देवी एवं बहिन उर्मिला देवी ने स्वातन्त्र्य यज्ञ में अपनी ओजस्वी आहुतियाँ दी है। उर्मिला दवे सत्याग्रह कमेटी की अध्यक्ष थी तथा गाँधी जी के साथ नोआखाली में उन्होंने अपना योगदान दिया था। लौह पुरुष सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल तो त्याग की सजीव मूर्ति थी। लीलावती ने स्त्री शिक्षा सेवा संघ की स्थापना की तथा साहित्य संसद की स्थापना में अपना विशेष योगदान दिया। सुभद्रा कुमारी चौहान ने कविता के माध्यम से जाग्रति का शंखनाद किया। श्री अरविन्द की बहिन सरोजिनी देवी, बिस्मिल की बहिन शान्ति देवी, दुर्गा भाभी आदि अनेकों ऐसे नाम है, जिन्होंने स्वतन्त्रता के दीपक की अन्धड़ और आँधियों में जलाते रहने में अपने सर्वस्व को न्योछावर कर दिया।

इस तरह देखा जाए तो विशिष्टता और वरिष्ठता की दृष्टि से हर काल में नारी ने अपना उपभोक्तावादी युग में नारी का भले ही विकृत मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में आकलन किया जाए, परन्तु यह तिमिराछन्न स्थिति अधिक देर तक रहने वाली नहीं है। मेघों का आवरण हटेगा और नारी अभ्युदय रूपी सुनहले सूर्य की आभा फिर से आलोकित होगी

प्राचीन भारत के समान पीर का गौरवमयी एवं दिव्यत्व भाव पुनः निखरेगा। अब वह समय जल्द ही आएगा, जब इक्कीसवीं सदी के रूप में अपने ध्वज को सर्वोच्च ऊँचाई, पर फहरा सकेगी। यह सत्य ही है कि नारी को श्रद्धासिक्त सद्भावना के साथ सींचा जाए, तो यह सीमलता विश्व के कण-कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत−प्रोत कर सकती है। यह महाकाल की हुंकार ही है, जिसने नारी को पिछड़े क्षेत्र से हाथ पकड़कर आगे बढ़ाने के लिए धकेला और घसीटा है। अब न सिर्फ नारी के भाग्य में स्वतः की बेड़ियों से मुक्ति लिख दी गयी है, वरन् विधाता ने उसे मुक्तिदूत बनने का गरिमापूर्ण दायित्व भी सौंपा है।


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