युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष -2 शिष्टता का नये सिरे से उभार -

October 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

समय की माँग के अनुरूप दो दबाव इन दिनों निरन्तर बढ़ते जा रहे है। एक व्यापक अवांछनीयताओं से जूझना और उन्हें परास्त करना। दूसरा है नवयुग की सृजन व्यवस्था को कार्यान्वित करने की समर्थता। निजी और छोटे क्षेत्र में भी यह दोनों कार्य अति कठिन पड़ा करते है फिर जहाँ समूचे देश समाज या विश्व का प्रश्न है वहां तो कठिनाई का अनुपात असाधारण रूप से बढ़ा-चढ़ा होना चाहिए।

प्रतिभा की निजी जीवन के विकास में भी निरन्तर आवश्यकता पड़ती है और अवरोधों क निरस्त करने में भी। जो आगे बढ़े, ऊँचे उठे है, उन्हें यह दोनों ही सरंजाम जुटाने पड़े है उत्कर्ष की सूझ-बूझ और कठिनाइयों से लड़ सकने की हिम्मत। इन दोनों के बिना उन्नतिशील जीवन जी सकना संभव ही नहीं होता। फिर सामुदायिक-सार्वजनिक क्षेत्र में सुव्यवस्था बनाने के लिए तो और भी अधिक प्रखरता चाहिए।

मनुष्यों की आकृति-प्रकृति तो एक जैसी होती है, पर उनके स्तरों में भारी भिन्नता पाई जाती है। हीन स्तर के लोग परावलम्बी होते है। वे आँखें बन्द करके दूसरों के पीछे चलते है। औचित्य कहाँ है, इसकी विवेचना-बुद्धि उनमें नहीं के बराबर होती है। वे साधनों के लिए मार्गदर्शन के लिए दूसरों पर निर्भर रहते है। यहाँ तक कि जीवनोपयोगी साधन तक अपनी स्वतंत्र चेतना के बलबूते जुटा नहीं पाते। उनके उत्थान-पतन का निमित्त कारण दूसरे ही बने रहते है। यह परजीवी वर्ग ही मनुष्यों में बहुलता के साथ पाया जाता है। अनुकरण और आश्रय ही उनके स्वभाव का अंग बनकर रहता है। निजी निर्धारण वे कदाचित ही कभी कर पाते है यह हीन वर्ग है। दूसरा वर्ग है जो समझदार होते हुए भी संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा रहता है। योग्यता और तत्परता जैसी विशेषताएँ होते हुए भी वे उन्हें मात्र लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के लिए ही नियोजित किए रहते है। उनकी नीति अपने मतलब से मतलब रखने की होती है। आदर्श उन्हें प्रभावित नहीं करते। कृपणता और कायरता के दबाव से वे पुण्य-परमार्थ की बात तो सोच ही नहीं पाते। अवसर मिलने पर अनुचित कर बैठने से भी नहीं चूकते। महत्व न मिलने पर वे अनर्थ भी कर बैठते है। गूलर के भुनगे जैसी स्वकेंद्रित जिन्दगी ही जी पाते हैं। बुद्धिमान और धनवान् होते हुए भी इन लोगों को निर्वाह भर में समर्थ प्रजाजन ही कहा जाता है। वे जिस-तिस प्रकार जी तो लेते हैं, पर श्रेय-सम्मान जैसी किसी मानवोचित उपलब्धि के साथ उनका कोई संबंध ही नहीं जुड़ता। उन्हें जनसंख्या का एक घटक भर माना जाता है। फिर भी दीन-हीनों की तरह परावलम्बी या भारभूत नहीं होते। उनकी गणना व्यक्तित्व की दृष्टि से अपंग अविकसित और असहायों में नहीं होती। कम-से-कम अपना बोझ तो उठा लेते है।

तीसरा वर्ग प्रतिभाशालियों का है। वे भौतिक क्षेत्र में कार्यरत रहते है, तो अनेक व्यवस्थाएँ बनाते है। अनुशासन में रहते और अनुबंधों से बँधे रहते है। अपनी नाव अपने बलबूते खेते है और उसमें बिठाकर अन्य कितनों को ही पार करते है। बड़ी योजनाएँ बनाते और चलाते है। कारखानों के व्यवस्थापक और शासनाध्यक्ष प्रायः इन्हीं विशेषताओं से सम्पन्न होते है। जिनने महत्वपूर्ण सफलताएँ पाई, उपलब्धियाँ हस्तगत की, प्रतिस्पर्धाएँ जीती, उनमें ऐसी ही मौलिक सूझ-बूझ होती है। बोलचाल की भाषा में उन्हें ही प्रतिभावान कहते है। अपने वर्ग का नेतृत्व भी वही करते है। गुत्थियाँ सुलझाते और सफलताओं का पथ प्रशस्त करते है। मित्र और शत्रु सभी उनका लोहा मानते है। मरुस्थल में उद्यान खड़े करने जैसे चमत्कार भी उन्हीं से बन पड़ते है। भौतिक प्रगति का उन्हें ही यदि विशेष श्रेय दिया जाय तो अत्युक्ति न होगी। सूझ-बूझ के धनी एक साथ अनेक पक्षों पर दृष्टि रख सकने की क्षमता भी तो उन्हीं में होती है। समय सब के पा सीमित है। कुछ लोग उस ऐसे ही दैनिक ढर्रे के कार्यों में गुजार देते है पर कुछ ऐसे भी होते है है जो एक ही समय में एक ही शरीर मस्तिष्क से अनेकों ताने-बाने बुनते और अनेकों जाल-जंजाल सुलझाते है सफलता और प्रशंसा उनके आगे-पीछे फिरती है। अपने क्षेत्र, समुदाय या देश की प्रगति ऐसे सुव्यवस्थित प्रतिभावानों पर ही निर्भर रहती है।

सबसे ऊँची श्रेणी देवमानवों की है जिन्हें महापुरुष भी कहते है। प्रतिभा तो उनमें भरपूर होती है लेकर लोक-मंगल के उच्चस्तरीय प्रयोजनों में नियोजित करते है। निजी आवश्यकताओं और महत्त्वाकाँक्षाओं को घटाते है ताकि बचे हुए शक्ति भण्डार का परमार्थ में नियोजित कर सकें। समाज के उत्थान और सामयिक समस्याओं के समाधान को श्रेय उन्हें ही जाता है। किसी देश की सच्ची सम्पदा वे ही समझे जाते है। अपने कार्यक्षेत्र को नन्दनवन जैसा सुवासित करते है। वे जहाँ बादलों की तरह बरसते है वही मखमली हरीतिमा का फर्श बिछा देते है। वे बसन्त की तरह अवतरित होते है। अपने प्रभाव से वृक्ष-पादपों को सुगंधित, सुरभित पुष्पों से लाद देते है। वातावरण में ऐसी उमंगें भरते है, जिससे कोयलें कूकने भौंरे गूँजने और मोर नाचने लगे। बसन्त ऋतु के आगमन पर हर किसी में उल्लास भरी मस्ती मुखर होती है। हर जगह बसन्तोत्सव मनाए जाते है। हर क्षण दिखने, सुनाई देने वाला हंसारूढ़ शारदा का मृदुल सितार वादन अन्तरिक्ष में गुँजित होते हुए अनुभव करते और आनन्द विभोर होते है।

बड़े कामों को बड़े शक्ति केन्द्र ही सम्पन्न कर सकते है। दल-दल में फँसे हाथी का हाथी ही खींचकर पार करते है। पटरी से उतरे इंजिन को समर्थ केन ही उठाकर यथास्थान रखती है। उफनते समुद्र में से नाव खे लाना साहसी नाविकों से ही बन पड़ता है। समाज और संसार की बड़ी समस्याओं को हल करने के लिए ऐसे ही वरिष्ठ प्रतिभावानों की आवश्यकता पड़ती है। पुल, बाँध, महल, किले जैसे निर्माण में मूर्धन्य इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ती है। पेचीदा गुत्थियों को सुलझना किन्हीं मेधावियों से ही बन पड़ता है। प्रतिभाएँ वस्तुतः ऐसी सम्पदाएँ है जिनसे न केवल प्रतिभाशाली स्वयं भरपूर श्रेय अर्जित करते है वरन् अपने क्षेत्र, समुदाय और देश की अति विकट दीखने वाली उलझनों को भी सुलझाने में सफल होते है। इसी कारण भावनावश ऐसे लोगों को देवदूत तक कहते है। आड़े समय में इन उच्चस्तरीय प्रतिभाओं की ही आवश्यकता होती है। उन्हीं को खोजा उभारा और खरादा जाता है। विश्व के इतिहास में ऐसे ही महामानवों की यशगाथा स्वर्णिम अक्षरों में लिखी मिलती है।

वर्तमान समय विश्व इतिहास में अद्भुत एवं अभूतपूर्व स्तर का है। इसमें एक ओर महाविनाश प्रलयंकर तूफान अपनी प्रचण्डता का परिचय दे रहा है,तो दूसरी ओर सतयुगी नवनिर्माण की उमंगें भी उछल रही है। विनाश और विकास एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी है तो भी उनका एक ही समय में अपनी-अपनी दिशा में चल सकना संभव है।

इन दिनों आकाश में सघन तमिस्रा का साम्राज्य है, तो दूसरी ओर ब्रह्ममुहूर्त का आभास भी प्राची में उदीयमान होता दीख पड़ता है। इन दोनों के समन्वय को देखते हुए ही अपना समय युगसंधि का समय माना गया है। ऐसे अवसरों पर किन्हीं प्रखर प्राणवानों को ही अपनी सही भूमिका निभानी पड़ती है।

त्रेता में एक ओर रावण का आसुरी आतंक छाया हुआ था। दूसरी ओर रामराज्य वाले सतयुग की वापसी अपनी प्रतिज्ञा का परिचय देने के लिए मचल रही थी। इस विचित्रता को देखकर को देखकर सामान्यजन भयभीत थे। राम के साथ लड़ने के लिए उन दिनों के किसी राजा की शासकीय सेनाएँ आगे बढ़कर नहीं आई। फिर भी हनुमान, अंगद के नेतृत्व में रीछ-वानरों की मंडली जान हथेली पर रखकर आगे आई और समुद्र सेतु बाँधने, पर्वत उखाड़ने, लंका उनके सहयोग को भावभरे शब्दों में भूरि-भूरि सराहा। इस सहायक समुदाय में गीध, गिलहरी, केवट, शबरी जैसे अल्प सामर्थ्यवानों का भी सदा सराहें जाने योग्य सहयोग सम्मिलित रहा। महाभारत के समय भी ऐसी ही विपन्नता थी। एक ओर कौरवों की अगणित संख्या वाली सुशिक्षित और समर्थ सेना थी दूसरी ओर पाण्डवों का छोटा-सा अशक्त दीखने वाला समुदाय फिर भी वृद्ध लड़ा गया। भगवान ने सारथी की भूमिका निबाही और अर्जुन ने गाण्डीव के तीर चलाए। जीत शक्ति की नहीं सत्य की, नीति की, धर्म की हुई। इन उदाहरणों में गोवर्धन उठाने में ग्वाल-बालों का सहयोग भी सम्मिलित है। बुद्ध की भिक्षु मण्डली और गाँधी की सत्याग्रही सेना भी इसी तथ्य का स्मरण दिलाती है। प्रतिभा ने नेतृत्व सँभाला तो सहायकों की कमी नहीं रही। संसार के हर कोने से हर समय में ऐसे चमत्कारी घटनाक्रम प्रकट होते है, जिनसे स्पष्ट होता है कि सत्य की शक्ति अजेय है। उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ उसे गंगावतरण काल के जैसे प्रयोजनों में और परशुराम जैसे के ध्वंस प्रयोजनों में प्रयुक्त करती रही है।

ठन दिनों व्यक्तिगत समस्याओं का शिकंजा भी कम कसा हुआ नहीं है आर्थिक, सामाजिक, मानसिक क्षेत्रों पर छाई हुई विभीषिकाएँ सर्वसाधारण को चैन से जी सकने का अवसर नहीं दे रही है। इससे भी बढ़कर सार्वजनिक समस्याएँ है। संसार के सामने कितनी ही चुनौतियाँ है। बढ़ती हुई गरीबी, बेकारी, प्रदूषण,जनसंख्या वृद्धि परमाणु विकिरण, युद्धोन्माद का बढ़ता दबाव, अन्तरिक्ष क्षेत्र पर धूमकेतु की तरह अपनी विकरालता का परिचय दे रहा है। हिमप्रलय-जल-प्रलय-दुर्भिक्ष-भूकम्पों आदि के माध्यम से प्रकृति अपने प्रकोप का परिचय दे रही हैं प्रकृति अपने प्रकोप का परिचय दे रही है। मनुष्य की बौद्धिक भ्रष्टता और व्यावहारिक दुष्टता से वह बहुत कुपित है। भविष्यवक्ता इन दिनों की विनाश-विभीषिका की संभावना की जानकारी अनेक स्तरों पर देते रहे है। दीखता है कि वह महाविनाश कही अगले दिनों घटित ही तो होने नहीं जा रहा है।

पक्ष दूसरा भी है। इक्कीसवीं सदी की ऐसी सुखद संभावनाएँ है, जिन्हें सतयुग की वापसी कहा जा सके। इन दोनों ही प्रयोजनों में मानवी भूमिका का समावेश होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस कार्य को मूर्धन्य प्रतिभाएँ ही सम्पन्न कर सकेंगी। ईश्वर धर्म के संरक्षण और अधर्म के विनाश का काम तो करते है। पर अदृश्य प्रेरणा का परिवहन तो शरीरधारी महामानव ही करते है।

आज उन्हीं की खोज है। उन्हीं को आकुल-व्याकुल होकर ढूँढ़ा जा रहा है। दीन-हीन और पेट-प्रजनन में निरत तो असंख्य प्रजाजन सर्वत्र बिखेर पड़े है। पर वे तो अपने ही भार से दबे है अपनी ही लाश ढो रहे है। युग-परिवर्तन जैसे सृजन और ध्वंस के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्राणवानों की आवश्यकता है। गोताखोर उन्हीं को इस खारे समुद्र में से मणि-मुक्तकों की तरह ढूँढ़ निकालने में लगे हुए है।

अक्टूबर 1988 अखण्ड ज्योति में प्रकाशित

दूध में मक्खन घुला तो होता है पर उसे अलग निकालने के लिये उबालने मथने जैसे कई कार्य सम्पन्न करने पड़ते है। प्राणवान प्रतिभाओं की इन दिनों अतिशय आवश्यकता पड़ रही है। जो कि इन समुद्र मन्थन जैसे युगसन्धि पर्व में अपनी महती भूमिका निभा सके अनिष्टकर अनर्थ से मानवीय गरिमा को विनष्ट होने से बचा सकें उज्ज्वल भविष्य की संरचना में ऐसा प्रचण्ड पुरुषार्थ प्रदर्शित कर सकें जैसे गंगावतरण के संदर्भ में मनस्वी भगीरथ द्वारा सम्पन्न किया गया था।

इन दिनों यह ढूँढ़ खोज ही बड़ा काम है। सीता को वापस लाने के लिये वानर समुदाय दसों दिशाओं में खोजने निकला था। समुद्र में उतरकर मणि मुक्तक खोजे जाते है। कोयल की खदानों में से खोजने वाले हीरे ढूँढ़ निकालते हैं धातुओं की खदानें इसी प्रकार धरती को खोद खोद कर ढूँढ़ी जाती है। दिव्य औषधियों के सघन वन प्रदेशों में खोजना पड़ता है। वैज्ञानिक प्रकृति के रहस्यों को खोज लेने भर का काम करते है। हाड़ माँस की काया में से देवत्व उदय साधना द्वारा गहरी खोज करते हुये ही सम्भव होना है महाप्राणों की इन दिनों इसी कारण भारी खोज हो रही है। उनके बिना युगसन्धि का महाप्रयोजन पूरा भी तो नहीं हो सकेगा। छोटी-सी बात सोंचे तो व्यक्ति की सामयिक एवं क्षेत्रीय समस्याओं का निराकरण भी वातावरण बदले बिना संभव नहीं हो सकता। संसार के अति निजी हो जाने से गुत्थियाँ भी वैयक्तिक न रहकर सामूहिक हो गयी है। उनका निराकरण व्यक्ति को कुछ ले देकर नहीं हो सकता। चेचक की फुंसियों पर पट्टी कहाँ बाँधते है? स्थायी उपचार तो रक्तशोधन की प्रक्रिया से ही बन पड़ता है।

प्रस्तुत चिंतन और प्रचलन में इतनी अधिक विकृतियों का समावेश हो गया है। कि उन्हें औचित्य एवं विवेक से सर्वथा प्रतिकूल माना जा सकता है। अस्वस्थता उद्विग्नता आक्रामकता निष्ठुरता स्वार्थान्धता संकीर्णता उद्दण्डता का बड़ों और छोटों में अपने अपने ढंग का बाहुल्य है। लगता है मानवी मर्यादाओं और वर्जनाओं की प्रतिबद्धता से इनकार कर दिया गया है। फलतः व्यक्ति का अनेकानेक संकटों और समाज का चित्र विचित्र समस्याओं का सामना करना पड़ता है। न कोई सुखी दीखता है न सन्तुष्ट। अभाव ओर बाहुल्य अपने अपने ढंग की विपत्तियाँ खड़ी कर रहे है।

इन सबसे जूझने के लिये एक सुविस्तृत मोर्चे बन्दी करनी होगी सामान्यजन तो अपनी निजी आवश्यकताओं उलझनों तक का समाधान नहीं कर पाते। फिर व्यापक बनी हर क्षेत्र में समाई विपन्नताओं से जूझने के लिये उनसे क्या कुछ बन पड़ेगा? इस कठिन कार्य को सम्पन्न करने के लिये विशिष्टतायुक्त प्रतिभाएँ चाहिये। बड़े युद्धों को जीतना वरिष्ठ सेनानायकों द्वारा अपनाई गयी रणनीति और सूझ बूझ के सहारे ही सम्पन्न हो पाता है। सामान्य लठैत साधनों के अभाव में सुविस्तृत क्षेत्र की सीमा सुरक्षा का दायित्व नहीं उठा सकते। यही बात बड़े सृजनों के सम्बन्ध में भी है। ताजमहल जैसी इमारत बनाने चीन की दीवार खड़ी करने के लिये वरिष्ठ लोगों की वस्तुस्थिति के साथ तालमेल बिठाकर चलने वाली नीति ही सफल होती है। उनके लिये आवश्यक साधन एवं सहयोग जुटाना भी हँसी खेल नहीं होता। बड़ी योजनाएँ बड़ी प्रतिभाएँ ही बनाती है। वे ही उतने भारी भरकम दायित्व उठाती है। बड़े प्रयास बड़ी शक्ति के सहारे ही सम्पन्न होते है छोटे तो समर्थन भर देते है।

इन दिनों दो कार्य प्रमुख है। विपन्नता से जूझना ओर उन्हें निरस्त करना। साथ ही नवसृजन की ऐसी आधारशिला रखना जिससे अगले ही दिनों सम्पन्नता बुद्धिमत्ता कुशलता और समर्थता का सुहावना माहौल बन पड़े। इक्कीसवीं सदी को दूरदर्शी लोग सर्वतोमुखी प्रगति की सम्भावनाओं से भरीपूरी मानते है। उस अवधि में सतयुग की वापसी पर विश्वास करते है। इस मान्यता के अनेकों कारण भी है। उनमें से एक यह है कि इन्हीं दिनों समर्थ प्रतिभाओं का सृजन उन्नयन और प्रखरीकरण तेजी से हो रहा है। सम्भवतः अदृश्य शक्ति का जो समय समय पर आड़े समय में बिगड़ता सन्तुलन संभालने के लिये अपने वर्चस्व का प्रकटीकरण करती रही है। कहना न होना कि तेजस्वी प्रतिभाएँ ही भौतिक समृद्धि बढ़ाने प्रगति का वातावरण उत्पन्न करने और अंधकार भरे वर्तमान को उज्ज्वल भविष्य में परिणत करने का श्रेय सम्पादित करती रही है। उन्हें ही किसी देश समाज एवं युग की वास्तविक शक्ति एवं सम्पदा माना जाता है। स्पष्ट है कि वे उदीयमान वातावरण में ही उगती और फलित होती है। वर्षा में हरीतिमा और वसन्त में सुषमा का प्राकट्य होता हैं प्रतिभाएँ अनायास ही नहीं बरस पड़ती न वे उद्भिजों की तरह उग पड़ती है। उन्हें प्रयत्नपूर्वक खोजा उभारा और खरीदा जाता है इसके लिये आवश्यक एवं उपयुक्त वातावरण का सृजन किया जाता है।

इन दिनों ऐसा ही कुछ चल रहा है। असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिये महाकाल की कोई बड़ी योजना बन रही है। उसे मूर्त रूप देने के लिये दो छोटे किन्तु अतिमहत्त्वपूर्ण कार्यक्रम सामने आये हैं कि आदर्शवादी सहायकों में उमंगों का उभरना और एक परिसर एक सूत्र में सम्बद्ध होना साथ ही कुछ नियमित एवं सृजनात्मक गतिविधियों को आरम्भ करना जो सद्विचारों को सत्कार्यों में परिणत कर सकने की भूमिका बना सके। दूसरा कार्य यह कि अनीति विरोधी मोर्चा खड़ा किया जायें उसे एक प्रयास से आरम्भ करके विशाल विकराल बनाया जाय। एक चिंगारी दावानल बनती है। छोटे बीज से वृक्ष बनते है। ध्वंस एवं सृजन दोनों को यही उपक्रम हैं एक कदम शालीनता के सृजन का दूसरा अनीति के दमन का सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के दो मोर्चों पर दुधारी तलवार से दो स्तर की रीति नीति अपनाना। यही है वह अग्रगम्य जिस पर कदम कदम बढ़ाते हुये नवयुग का अवतरण संभव हो सकता है। उज्ज्वल भविष्य के सर्वतोमुखी प्रगति एवं चिरस्थायी शान्ति के लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। इसी स्थिति में पहुँचने पर सत्यमेव जयते का उद्घोष प्रचण्ड प्यासों का मार्ग पूरा करते हुये अपनी यथार्थता का परिचय दे सकता है।

इस महाजागरण से ही प्रतिभाओं की मूर्च्छना भागेगी। वे अंगड़ाई लेती हुई लम्बी मूर्छा छुड़ाने और दिनमान की ऊर्जा प्रेरणा से कार्यक्षेत्र में अपने पौरुष का परिचय देती हुई दृष्टिगोचर होगी। इस भवितव्यता को हम सब इन्हीं आँखों से अपने ही सामने मूर्तिमान् होते हुये देखेंगे।

प्रयत्नपूर्वक खदानों से हीरे खोज तो लिये जाते है पर उन्हें चमकदार बहुमूल्य और हार में शोभायमान स्थान पाने के लिये खरीदना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है धातुएँ अनेक बार के अग्नि संस्कार से ही संजीवनी जैसे रसायनों के रूप में परिणत होती है। पहलवान अखाड़े लम्बा अभ्यास करने के उपरान्त ही दंगल में विजयश्री वरण करते है। तैराकी जीतने वाले चिरकाल तक अभ्यासरत रहते है। सोना तपाने के उपरान्त ही चमकदार बनता है। शिल्पी और कलाकार अपने विषय में प्रवीण पारंगत बनने के लिये लम्बे समय तक अभ्यासरत रहते है। पत्थरों पर घिसे जाने के उपरान्त ही हथियार औजारों की धार में तीक्ष्णता आती है। प्रतिभाओं का प्रशिक्षण और परिवर्धन आदर्शवादी गतिविधियों में बढ़ चढ़कर भूमिका निभाने के उपरान्त ही सम्भव हो पाता है। इस तथ्य के अनुरूप जहाँ प्रतिभाओं को खोजा जा रहा है वहाँ उनकी प्रखरता निखारने के लिये ऐसे कार्यों में जुटाया भी जा रहा है जिनके कारण उनका ओजस तेजस और वर्चस जाज्वल्यमान हो सके। विश्वमित्र ने दशरथ पुत्रों को युगसृजन प्रयोजन के लिये उपयुक्त समय पर उनकी तेजस्विता उभारने के लिये यज्ञ की रक्षा करने और असुरों से जूझने का काम ही सौंपा था। हनुमान अर्जुन आदि ने ऐसी ही अग्निपरीक्षाओं से गुजरते हुये असाधारण गौरव पाया था। इससे बच कर किसी पर भी महानता आकाश से नहीं बरसी है। पराक्रम से जी चुराने वाले तो कृपणों प्रमादियों की तरह मात्र हाथ ही मलते रहते है।

इन दिनों जन्मान्तरों से संचित सुसंस्कारों वाली प्रतिभाएँ खोज निकाली गई है। उन्हें युगचेतना के साथ जोड़ा गया है। इन्हें नवसृजन साहित्य के माध्यम से पुष्प वाटिका में मधु मक्खियों की तरह दिव्य सुगन्ध ने आमंत्रित किया है और उसी परिकर में छत्ता बनकर रहने के लिये सहमत किया है। प्रज्ञा परिवार को इसी रूप में दिखा समझा और आँका जा सकता है।

प्रज्ञा परिजनों का युग सृजन का लक्ष्य लेकर अवतरित हुई दिव्य आत्माओं का समुदाय का जा सकता है। वे अन्तरात्मा का अमृत पिलाने वाले युगसाहित्य का रसास्वादन करते रहे हे। मिशन की पत्रिकाएँ नियमित रूप से पढ़ते रहे है। युगचेतना की भावभरी प्रेरणा का यथासंभव अनुसरण भी करते रहे हे। उनके अब तक के योगदान को परमार्थ पुरुषार्थ को मुक्त कण्ठ से सराहा जा सकता है। पर बड़े प्रयोजनों के लिये इतना ही तो पर्याप्त नहीं समय की बढ़ती माँग को देखते हुये बड़े कदम भी तो उठाने पड़ेंगे। बच्चों का छोटा-सा पुरुषार्थ भी अभिभावकों द्वारा भली भांति सराहा जाता है पर युवा होने पर बचपन की पुनरावृत्तियाँ करते रहने भर से कौन यशस्वी बनता है।

प्रियजनों के पिछले योगदान का मूल्याँकन घटाया नहीं जा रहा है पर इतने भर से काम तो नहीं चलता बात तो नहीं बनती महाकाल की अभिनव चुनौती स्वीकारने के लिये उतने पर ही सन्तोश नहीं किया जा सकता जो पिछले दिनों हो चुका है यह लम्बा संग्राम है संभवतः प्रस्तुत परिजनों के जीवनभर चलते रहने वाला। इक्कीसवीं सदी आरम्भ होने में अभी 10 वर्ष से भी अधिक समय षेंश हैं इस युग सन्धिवेला में तो हम सबको उस स्तर की तप−साधना में संलग्न रहना है जिसे भगीरथ ने अपनाया और धरती पर स्वर्गस्थ गंगा अवतरण संभव कर दिखाया था। महामानवों के जीवन में कहीं कोई विराम नहीं होता। वे निरन्तर अनवरत गति से शरीर छूटने तक चलते ही जाते है। इतने पर भी लक्ष्य पूरा न होने पर जन्म जन्मान्तरों तक उसी प्रयास में निरत रहने का संकल्प संजोये रहते है इसी परम्परा का निर्वाह उन्हें भी करना है जिन्हें अपनी प्रतिभा निखारनी और निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र में ऐसी उपलब्धियाँ कमानी हो जिन्हें प्रेरणाप्रद अनुकरणीय अभिनन्दनीय एवं अविस्मरणीय कहा जा सके।

कमल पुष्प सामान्य तालाब में उगने भी अपनी पहचान अलग बनाते और दूर से देखने वालों के मन में भी अपनी प्रफुल्लता की प्रतिक्रिया उत्पन्न करते है। अपना स्वरूप एवं स्तर ऐसा ही होना चाहिये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118