काल और वस्तु के मध्य परस्पर गहरा संबंध है। काल के प्रभाव से वह अपना स्वरूप और अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, यह सर्वविदित है। इसको साधारण घटनाक्रम कहेंगे। असाधारण दशा में वस्तुएँ काल से अप्रभावित रहती है। इन्हें ‘नित्य’ कहते है। यह अभौतिक घटना हुई।
काल के संबंध में साधारण ज्ञान प्रायः हर एक को है। जब विभिन्न प्रकार की घटनाएँ इस भौतिक संसार में घटती है, तो उनमें से कौन पूर्ववर्ती और कौन परवर्ती है, इस प्रकार का जो भाव उत्पन्न होता है, वास्तव में यह काल-बोध है। साधारण लोग घटनावलियों के इसी क्रम के आधार पर काल-निर्णय करते है। काल-निर्णय में कालक्रम का महत्वपूर्ण स्थान है। मानव शरीर के विकास-मार्ग में जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त अनेक अवस्थाएँ आती है। यह क्रमबद्ध अवस्थाएँ काल का धर्म है। एक ही देह एक के बाद एक इन सभी अवस्थाओं को प्राप्त करते चलती है। इसीलिए यह कहना ठीक ही है कि शरीर काल के अधीन है। इस अनित्य अथवा नश्वर संसार की सभी वस्तुएँ इसी तरह एक क्रम में दिखलाई पड़ती है। यही परिवर्तनशीलता या काल की अधीनता है।
नित्य या अनश्वर वस्तु में काल का कोई प्रभाव नहीं भासता, कारण कि जो नित्य है, वह एक प्रकार से हमेशा प्रकाशवान रहता है। कभी भी उसमें दशान्तर नहीं होता। इसे एक उदाहरण द्वारा भली-भाँति समझा जा सकता है। अ,ब,स तीन अवस्थाएँ है। यदि यह नित्य अर्थात् अनश्वर है, तो ‘अ’ सदा ‘अ’ ही बनी रहेगी। उसी प्रकार ‘ब’ और ‘स’ सर्वदा एक ही स्थिति में अपरिवर्तनीय रहेंगी। ‘अ’ का कभी ‘ब’ में परिवर्तन न हो सकेगा और न ‘ब’ कभी ‘स’ में बदल सकेगी। ऐसी स्थिति ये यही कहना पड़ेगा कि यह काल के प्रभाव से परे है या इनमें किसी प्रकार का कालगत संबंध नहीं है।
कालगतता नश्वरता की प्रतीक है। एक ही वस्तु में यदि समय के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की अवस्थाएँ उत्पन्न होती है, तो यह कहा जा सकता है कि उसमें कालगतता है। साधारण मनुष्यों में दिखलाई पड़ने वाली यह सर्वसामान्य घटना है, किन्तु योगीजन कुछ सीमा तक इस पर विजय प्राप्त कर लेते है। यही कारण है कि लम्बी उम्र निकल जाने के बाद भी उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं दृष्टिगोचर होता और वे एकदम युवा प्रतीत होते है। हिमांचल क्षेत्र में आज भी ऐसे अनेक यति देखे जा सकते है, जिनकी मियादी आयु (क्रोनोलॉजिकल एज) सौ वर्ष कायिक वय (बायोलॉजिकल) की दृष्टि से वे चिरयुवा प्रतीत होते है।
अलौकिक जगत में इसका सर्वोत्तम उदाहरण कृष्ण की नित्य लीला है। श्री कृष्ण की बाल-लीला में उनके बाल भव प्रकाशवान है। यही नित्य है। इसके विपरीत वे अपनी किशोर-लीला में नित्य किशोर हैं, जबकि युवा लीला में वे चिरयुवा है अर्थात् जो नित्य बालक है, वे ही नित्य युवा भी ह॥ उनका बाल्य भाव जिस प्रकार नित्य है, उसी प्रकार उनका किशोर भाव और युवा भाव भी नित्य हैं। भौतिक शरीर जिस प्रकार बालक से किशोर और किशोर से यौवन में परिवर्तित होता है, वैसा अभौतिक श्री कृष्ण देह के साथ घटित नहीं होता, कारण कि उनका बालक, किशोर और युवा शरीर एक साथ वर्तमान है और नित्य है। इसे और स्पष्ट कर कहें, तो यह कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति श्री कृष्ण के बालरूप के दिव्य-दर्शन कर रहा है, तो यह सम्भव है कि कोई दूसरा आदमी उसी समय उनके किशोर रूप के दर्शन करें, जबकि तीसरा आदमी उनके युवा स्वरूप के, अर्थात् उनके तीनों रूप एक साथ विद्यमान है और एक दूसरे से स्वतंत्र है। यहाँ यह कहना ठीक नहीं होगा कि श्री कृष्ण का बालरूप पूर्ववर्ती है और किशोर एवं युवा रूप परवर्ती कालीन। बालक कृष्ण अपने बालक रूप में तब भी बने रहेंगे, जबकि यहाँ सहस्रों कल्प बीत जाएँ। इसी प्रकार किशोर और युवक कृष्ण की अपनी-अपनी अवस्थाओं में कोई परिवर्तन नहीं आएगा।
तत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि यह अनित्य संसार भी वास्तव में नित्य का ही प्रकाश और मूर्त रूप है, पर ज्ञानचक्षु विकसित न होने के कारण इस तथ्य को हम ठीक-ठीक समझ नहीं पाते। हम जिसे जागतिक या अनित्य घटनाएँ कहते है, उसके पीछे भी वास्तव में मूलसत्ता कारणभूत होती है। लौकिक दृष्टि से जिसे पूर्व का या द का कहकर उल्लेख किया जाता है और जो साँसारिक पहलू से परिवर्तनीय प्रतीत होता है, वह तत्त्वतः ऐसा नहीं है। जिनकी अन्तर्दृष्टि विकसित हो गई है, उनके लिए यह स्थिति भी अपरिवर्तनशील है। एक उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट हो जाएगा। च,छ,ज तीन वस्तुएँ इस तरह अवस्थान कर रही है कि च के पश्चिम में छ तथा छ के पश्चिम में ज है-ऐसा कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में च अपना स्थान बदलकर ज की जगह आ जाए, तो च को छ के पश्चिम में कहा जाएगा। ऐसे ही ज को छ के पूर्व में स्थिति माना जाएगा। इसी प्रकार का व्यतिक्रम छ के स्थान त्यागने पर हो जाएगा। अतः च,छ,ज को यदि स्थिर मान ले और इनका स्थान-परिवर्तन आदि संभव न हो, तो इनके मध्य जो दिशागत संबंध है, यह यथावत बना रहेगा। यहाँ यदि एक की स्थिरता में परिवर्तन के पीछे गतिशीलता स्वीकार कर ली जाए, तो उनके पारस्परिक सम्बन्धों में भी परिवर्तन होगा, किन्तु यदि सभी समान गति से समरूपता रखते हुए गतिशील हो, तो इस गतिशीलता के बावजूद संबंध में कोई परिवर्तन नहीं होगा।
काल में गति करने की क्षमता साधारण लोगों में मौजूद नहीं होती। यह केवल योगियों की विशेषता है, अतः इस प्रसंग को समझ पाना साधारण लोगों के लिए तनिक कठिन होगा, फिर भी लौकिक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट किया जा सकता है। पटना में जब सूर्योदय हो चुका होता है, पर हरिद्वार में तब वह प्रतीक्षित होता है। इस प्रकार पटना-वासियों के लिए जो सूर्योदय काल है, वह आस्ट्रेलिया के लिए पूर्वाह्न और हरिद्वार-वासियों के लिए रात्रि के अन्तिम प्रहर का अन्तिम भाग। स्थान के साथ संबंध विच्छेद कर साँसारिक काल की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं। उदयकाल करने पर किसी-न-किसी स्थान को साथ में लेते हुए उदयकाल कहना पड़ेगा। मध्याह्न और सूर्यास्त आदि कालों के बारे में भी यही नियम है। स्थान-संबंध से परे उदयकाल सम्भव नहीं। पृथ्वी के गतिशील होने के कारण सम्पूर्ण पृथ्वी का उदयकाल एक ही नहीं है, किन्तु नित्य लोक में ऐसी किसी भी गति का अभाव होने कारण वहाँ का हर काल ही नित्य है अर्थात् ऐसे नित्य देश है, जहाँ का उदयकाल भी नित्य है। दूसरे शब्दों में वहाँ सर्वदा नवोदित सूर्य ही दृष्टिगोचर होगा, पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न है। शेष काल वहाँ अनुपस्थित होते है, पूर्वाह्न, मध्याह्न एवं रात्रि का अभाव होता है। नित्य देश अनन्त है। देश भेद के हिसाब से प्रत्येक काल ही नित्य है, पर नश्वर या अनित्य संसार में गतिशीलता होने के कारण हम ऐसे किसी नित्य काल की प्रतीति नहीं कर पाते, किन्तु यदि उक्त गत्यात्मकता के अनुरूप हम स्वयं को गतिशील बना ले, तो नित्य काल का आभास इस भौतिक दुनिया में बैठे-बैठे प्राप्त किया जा सकता है।
इस तथ्य को प्रस्तुत उदाहरण द्वारा हृदयंगम कर सकते है। योगविद्या में पारंगत यदि कोई अवलोकन सूर्योदय काल पटना में है, तो वह उसके लिए प्रातःकाल होगा। छह घण्टे बाद दिन की मध्यस्थता आएगी। इस समय पृथ्वी के पश्चिमी भाग में कहीं अरुणोदय हो रहा होगा, ऐसे समय उक्त अवलोकन यदि अपनी योगशक्ति का प्रयोग करते हुए मनोवेग से उस पश्चिमी हिस्से में पहुँच जाए, तो वहाँ उसे सूर्य उदय होता हुआ दिखलाई पड़ेगा। पटना में रहकर वह अपनी दृष्टि को उतना व्यापक और विस्तृत नहीं बना पाता, इसलिए उसे सिर्फ पटना का मध्याह्न नजर आता है, यूरोप का उदीयमान सूर्य नहीं, किन्तु जब योग का आश्रम लेते हुए पृथ्वी या सूर्य के अनुरूप गति वह स्वयं में विकसित कर लेता है, तो न सिर्फ सूर्योदय वरन् किसी भी विशिष्ट काल को लौकिक परिवर्तित अवस्था में रहते हुए अनवरत रूप से उसकी अनुभूति कर सकता है।
यहाँ समान गतिशीलता के आधार पर काल की नित्यता समझाने का प्रयास किया गया, किन्तु उसको अनुभव करने का एक और
भी तरीका है। परमसत्ता कण-कण में सर्वत्र विद्यमान है। यदि अवलोकन इस जगतव्यापी सत्ता के साथ स्वयं को संयुक्त कर सके, तो फिर उसे स्थान त्यागने और यूरोप जाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। चूँकि व्यष्टिसत्ता और समष्टिसत्ता मिलकर एकाकार हो चुकी है, इसलिए प्रेक्षक की इच्छा पृथ्वी में सर्वत्र स्फुरित हो सकती है। यदि ऐसा हुआ, तो वह प्रातःकाल का अनुभव करेगा और इसके लिए उसे अन्यत्र कहीं जाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। इस प्रकार अखण्ड व्यापक सतत् से तद्रूप हो सभी प्रकार के कालों की प्रतीति की जा सकती है।
भूत, भविष्य और वर्तमान-इन तीन कालों से प्रायः सभी अवगत है, लेकिन एक अनन्त वर्तन महाकाल में ही विद्यमान है तथा भूत, भविष्य अमूर्त रूप में है। वर्तमान का प्रकाश आवरणरहित होकर जब सर्वत्र एक साथ-एक रूप में स्फुरित होता है, तब सिर्फ महावर्तमान की सत्ता मौजूद होती है। इस महावर्तमान को केवल दृष्टा स्तर से योगीजन ही उपलब्ध कर पाते है। सर्वसाधारण इसे ग्रहण इसलिए नहीं कर पाते, क्योंकि यह अत्यन्त सूक्ष्म होता है।
महावर्तमान ही वास्तव में नित्य काल है। सामान्य लोग सिर्फ सद्यः वर्तमान को ही जान, समझ और पकड़ पाते है। जो बीत गया, उसे अनुभव करने की सामर्थ्य उनमें नहीं होती, कारण कि कल के साथ गति बनाये रख पाने में वे असफल होते है। गति न हो, तो वर्तमान भूत बन जाता है। योगी लोग इसमें निष्णात होते है, इसलिए वे एक महावर्तमान में जीते है, जिसमें विगत, अनागत दोनों सम्मिलित होते है। यह एक उच्चस्तरीय विज्ञान है। हम यदि अपने जीवनक्रम को उच्चस्तरीय बनाते हुए साधना की उस उच्च भूमिका में आरूढ़ हो सकें, तो हमारे लिए भी नित्य वस्तुएँ, नित्य काल, नित्य लोक, नित्य घटनाओं की अनुभूति कर पाना सम्भव होगा, ऐसा योगशास्त्र के मर्मज्ञों का कथन है।