ईरान और भारत का मैत्री सम्बन्ध नया नहीं, बहुत पुराना है। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भी दोनों के सार्थवाह, घुमन्तू व्यापारी, शान्ति मैवी के संदेशवाहक राजदूत एक-दूसरे के देश में जाकर अपनी कला और संस्कृति की सौहार्द बाँटते रहते थे। नरेश गण भी परस्पर-स्नेह-सौहार्द की वृद्धि के रूप में भेंटों-उपहारों का आदान-प्रदान करते थे। इस प्रकार राजाओं को ही नहीं, वहाँ के प्रजाजनों को भी देश-विदेश के कला-कौशल से परिचित होने का अवसर मिलता था। विश्व-बन्धुत्व के उपदेष्टा तीर्थंकर महावीर के वचनामृत का पान करने के उपरान्त मगध सम्राट बिंबसार ने तो इस प्रथा को चरमोत्कर्ष ही प्रदान कर दिया था।
उस दिन भी ईरान की राजसभा भरी हुई थी। भारत के महाराजाधिराज श्रेणिक बिम्बसार द्वारा भेजी हुई भेंट सभा में प्रदर्शित की जा रही थीं। अनेकों प्रकार में मणिरत्नों द्वारा निर्मित अलंकार, सुन्दर शुभ्र कौषेय वसन, कला के विविध उपकरण दर्शकों का मन अपनी श्रेष्ठता में बाँध रहे थे। उन्हीं उपहार वस्तुओं में एक वीतराग प्रतिमा भी थी। मूर्ति के परिचय पट पर कुछ शब्द अंकित थे। भाषा विशेषज्ञ ने उन्हें पढ़ा लिया था-युवराज कुमार आर्य को, मगध के मंत्री अभय कुमार की ओर से सस्नेह भेंट।
प्रतिमा युवराज को सौंप दी गयीं युवराज की आँखों के सम्मुख मगध के आमात्य अभय कुमार को श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रकट हो उठा।मित्र का स्नेह मूर्तिमान् हो गया। उसे अभय के साथ अपने साहचर्य की याद ताजा हो आयी। वह अपने विचारों की धारा में बहने लगा कुछ ही समय पूर्व उसका अभय कुमार से प्रत्यक्ष परिचय हुआ था। साथ-साथ रहकर दोनों ने पलाषकुट आश्रम में अपना शिक्षा काल व्यतीत किया था। वन-प्रान्त में भ्रमण करते हुए प्रकृति की छटा निहारी थी। तथ्यों का सूक्ष्म अवलोकन किया था। आज पुनः उस मित्र ने उसे भेजकर स्नेह के सूत्र में बाँध लिया।
और भेंट भी कैसी? विचारों का साकार प्रतीक। एक आदर्श। एक लक्ष्य। एक मौन संदेश। वह प्रतिमा को अपने साथ ले आया। अपने भवन में शयनागार के निकट एक सज्जित प्रकोष्ठ में, एक ऊँचे आसन पर उसने प्रतिमा को रख दिया। अब वह ज्यों ज्यों प्रतिमा को देखता मित्र की याद ताजा हो जाती उसकी प्रत्येक बात स्मरण हो आती उसके तर्क स्पष्ट होने लगते
राजकुमार आर्य दिन -रात में कई बार प्रतिमा को देखते घण्टों प्रतिमा के निकट बैठकर उसे अपलक निहारा करता वह जब -जब मूर्ति का सान्निध्य प्राप्त करता प्रतिमा उसे कुछ-न कुछ-सन्देश देती हुई दिखलाई पड़ती जैसे वह कुछ बोल रही हो जैसे वह अपने जीवन का वृत उद्घाटित कर रही हो विकासक्रम का इतिहास सामने रखकर उसके पृष्ठ उलट -पलट कर उसकी आस्था को स्थायी बना रही हो।
भारत के जीवन दर्शन के सम्बन्ध में उसे साथी अभय ने बहुत-सी बातें सुनायी थी। अर्हतों की गाथाएँ सुनाकर उनका मानव मात्र के कल्याण हेतु सक्रिय उपवकार वर्णन किया था। किस प्रकार बड़े - बड़े चक्रवर्ती सम्राट उनके युवराज पुत्र संसार सुख को क्षणभंगुर जान-मान कर जग से विरक्त हो अध्यात्म के पथ पर बढ़ जाते थे।निज देह की सुधि भूलकर प्रकृति-प्रकोपों को सहज निर्विकार भाव से हसन करने लग जाते थे।
वह प्रतिमा की ओर देखता तो पाता-यही है निर्विकार मुद्रा, जहाँ क्रोध नहीं-वैर-भाव नहीं-ईर्ष्या-छल-प्रपंच नहीं, घृणा का विद्रूप नहीं। कैसी सौम्यता। कैसी दिव्यता कैसी शान्ति। और कितना सौंदर्य। वह प्रतिमा के आदर्श की सामान्य जन-जीवन से तुलना करने लगता मानव-वैर -विरोध में अपनी शक्ति को नष्ट कर कैसी कृमि-कीटकों की जिन्दगी जी रहा है। छल-षड्यन्त्रं में अपने जीवन के अमूल्य क्षण को नष्ट करने वाले हिंसक सैनिक। सत्ता के मद में चूर आपा भूलकर दूसरे पर अपना आतंक जमाने का अभिलाषी प्रशासक वर्ग वर्तमान से सदा - सर्वदा असन्तुष्ट रहने हम सभी
। कभी वह अपने विषय में विचार करता। सोचने लगता ये अर्हता तीर्थंकर राजपुत्र हूं। इन्होंने जगत के जीवों की कल्याण कामना से राजवैभव ठुकराया, तपश्चर्या का मार्ग अपनाया, क्या मैं....?
अभीप्सा की तीव्रता बढ़ती गयीं अन्ततः थोड़े-से सेवकों के साथ तक्षशिला आ पहुँचा। तक्षशिला के विद्याकेन्द्र की कीर्ति उसने पहले ही सुन रखी थी। यहाँ वह साधारण शिक्षार्थी और जिज्ञासु की भाँति रहने लगा। उसने साथी-सैनिकों को वापस जाने का आदेश दिया। भारत -भ्रमण के बहाने वे यत्र-तत्र विचरण करने लगे। कुमार आर्य एक योग्य-गुरु की सेवा में रहकर ज्ञान-विज्ञान का अर्जन करने लगे। उन्होंने लौकिक विषयों की बारीकियाँ देखी-तर्क-वितर्क से उनका अन्वेषण करने का प्रयत्न किया, तो उन्हें लगा जैसे वह इसमें उलझकर रह जाएँगे, जबकि वह सुलझना चाहते थे, उलझना नहीं। यों लौकिक दृष्टिकोण एक काँटा था। उसे अध्यात्म के काँटे से वह निकालना चाहते थे। न वह पहले काँटे को पालना चाहते थे। और न ही पहले काँटे के साथ एक और काँटा पाँव में गढ़ाकर कोई नया प्रयोग करना चाहते थे। वह तो तर्क-जाल की बजाय आत्मानुभूति के साथ जीवनपथ पर आगे बढ़ने के इच्छुक थे। और उन्होंने ज्ञान का आश्रय छोड़कर तप का सहारा लिया। वह तपस्वियों की खोज में मारे-मारे फिरने लगे। उन्होंने कई प्रकार के विचारों से परिचय पाया। कहीं भक्ति को इतना अधिक महत्व दे दिया गया था कि व्यक्ति को एक कल्पित अदृश्य के हाथों का खिलौना मान लिया गया था। कही क्रिया-कृत्यों को इतना प्रधान कर दिया गया था कि लगता था मानव संवेदनशील प्राणी होने की बजाय एक यंत्र मात्र है। जो चाहता है कार्य करता है किन्तु अपने स्वयं के बाबत कुछ नहीं सोचता।
वह सब कुछ सुनते - समझते हुए आगे जाते। अन्तः उनकी भावना को वरदान मिल गया। वह इच्छित गुरु पा गए। गुरु के पास ज्ञान भी था ओर तप की पूजी भी। सबसे ऊँची वस्तु थी आत्मविश्वास। वे नर से नारायण बन जाने की बात सुनते थे। उसका व्यावहारिक क्रम बतलाते थे मोह-ममता की बाधाएँ और उन पर विजय की रीति स्पष्ट करते थे। इन्हीं ज्ञानी गुरु के चरणों में रम गए।
उन्हें अब न वस्त्रों से मोह रहा न भोजन में रुचि। गुरुदेव ने सारे नियम-संयम उन्हें समझा दिए, सिखा दिए। उन्हें पारस बना दिया कि वह आगे बढ़ जाएँ और लोहे को सोना बनाते रहें। भूल-भटके प्राणियों को सन्मार्ग दिखाते रहें। वह सोना तो पहले ही थे। अब तो पारस बन गए। पारस ही नहीं बने गुरु ने उन्हें पारस बनाने की कला भी सिखा दी कि वह अन्य व्यक्तियों को पारस बनाते चलें, जिससे पारस और स्वर्ण बनने-बनाने का क्रम अविराम-अनवरत जारी रहे। उनकी वाणी में सामर्थ्य आ गयी थी, विचारों में दृढ़ता आ गयी थी और काया उद्दीप्त हो उठी थी।
पहले के राजकुमार और अब के ऋषि आर्य आगे बढ़ते जा रहे थे, अकेले सर्वथा अकेले। किसी भी नगर के बाहर साधु आर्य ठहर जाते। जो उनके निकट बैठता, उसे वे शान्ति-सन्तोश का सन्देश सुनाते। भोजन का विकल्प उठने पर जो व्यक्ति श्रद्धा से सात्विक आहार दे देता उसे अस्वाद वृत्ति से ग्रहण कर लेते।
तपश्चर्या और भ्रमण के इस क्रम में वह वसन्तपुर के श्रेष्ठी श्रीदत्त के उद्यान में जा पहुँचे। यह उद्यान नगर के प्रमुख द्वार के निकट ही अवस्थित था। ऋषि आर्य उद्यान में जाकर ठहर गए। मध्याह्न में एक अश्वत्थं वृक्ष के नीचे बैठकर उन्होंने अपने अतीत का सिंहावलोकन किया। फिर वर्तमान के माध्यम से भविष्य पर विचार किया। स्व-पर-कल्याण की ध्वनि ही उन्हें दसों दिशाओं से आती सुनायी पड़ती रही। अपराह्न वेला में नित्य की भाँति वे ध्यान में लीन हो गए।
वसन्तपुर का नाम ही वसन्तपुर न था, वहाँ सभी ऋतुओं में मधुमास छाया रहता था। सुख-समृद्धि और रूप-यौवन के हरे-भरे उद्यान यत्र-तत्र सर्वत्र नगर का नाम सार्थक बनाने हेतु विद्यमान थे। श्रेष्ठी श्रीदत्त की पुत्री वसन्त की सन्ध्या समय नित्य ही सखी-सहेलियों के साथ उद्यान में आती थी। वैभव के स्वामी श्रीदत्त की एक मात्र पुत्री वसन्तश्री नगर की श्रीशोभा थीं उसे किसी वस्तु का अभाव नहीं था। दास-दासियों का एक झुण्ड-सा उसके आगे-पीछे चलता था।
उद्यान रक्षक ताजे-ताजे फूलों के हार उसके समक्ष प्रस्तुत करता। वह पुष्पहार से सजी अप्सरा की भाँति उद्यान में भ्रमण करती। सखियों सहित कृत्रिम निर्झर के समीप बैठती, कभी पुश्करियों में चरण डुबोकर किलोलें करती, सखियों पर जल-बिन्दु उछालती-हँसती-हँसती उनका हाथ पकड़ कर घूमती रहती।
वसन्तश्री ने बाल्यावस्था को पार करके किशोरावस्था में पग रख दिया था। उसके हृदय में अज्ञात रूप से एक उन्माद भर गया था। कौमार्य भी अब उसकी वय-सन्धि की दौड़ में पीछे छूट रहा था तथा यौवन सामने आकर अपना हाथ उठाकर उसे द्रुतगति से दौड़कर अपने अंक में छुप जाने का संकेत कर रहा था। उसे लगता था, जैसे उसके अंग-प्रत्यंग उसके स्वयं के वश में न रहकर यौवन के वशवर्ती हो रहे है।
ऋषि आर्य की आत्मा उत्तरोत्तर निर्मलता प्राप्त करती जा रही थी। सतत् साधना और तपश्चर्या के प्रभाव एक अलौकिक दीप्ति से उनका शरीर कान्तिमान हो रहा था। वे जब ध्यानस्थ होते, तब ऐसा विदित होता, जैसे संगमरमर की पाषाण प्रतिमा सामने रख दी गयी हो। आत्मा की सुन्दरता शरीर पर स्पष्ट होने लगती और एक अपूर्व आकर्षण उनके व्यक्तित्व में समाहित हो जाता तथा मुखश्री पर अद्भुत शान्ति विराजमान् हो जाती।
ऋषि ध्यानस्थ थे और श्रेष्ठी पुत्री वसन्तश्री उद्यान में भ्रमण कर रही थी। उसने दूर से देखा तो वह ठिठक गयी। सोचने लगी कि कल तक तो वह पाषाण प्रतिमा यहाँ नहीं थी क्या पिताश्री ने आज नवीन ही मंगायी है।वह निकट पहुँची तो विस्मय से अभिभूत हो उठी। प्रतिमा नहीं व्यक्ति। व्यक्ति इतना सुन्दर, इतना आकर्षक ऐसा रूप स्वरूप
। वह बहुत देर तक ऋषिराज की ओर निर्निमेष -अपलक निहारती रही। संखिया साथ थी। सभी थी सभी उसकी भाँति प्रमोन्म्रपन्त उद्दण्ड न थी। कुछ तो विशेष व्यवहार कुशल होने के कारण ही उसके पिता,द्वारा उसके पास छोड़े गयी थी। सखियों में से कुछ ने स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन कर लिया। अन्ततः एक सखी नि शब्द वसन्त श्री के पास पहुँची और उसका हाथ पकड़कर उद्यान के अन्य भाग में ले गयी।
कुमारी सखियों के साथ पूर्ववत् उद्यान में विचरण करने लगी। किन्तु उद्यान में कुमारी वसन्त श्री का मात्र शरीर ही घूम रहा था। मन तो वह जहाज के पंछी की भाँति तपस्वी के रूप के आस - पास ही मँडराने छोड़ आयी थी। संखिया कुछ कहती तो वह जैसे कुछ सुनती ही न थी। सुनती भी तो समझती नहीं। बिना समझे ही हाँ- हूँ कर देती
उद्यान भ्रमण करते - करते काल बीतने लगे। उद्यान के वृक्ष अन्धकार के सुन्दर में डूबने लगे। सखियों सहित वसन्त श्री अपने भवन लौट आयी। भोजन करने बैठी तो उसे अस्चि हो गयी। शैया पर लेटी तो उसकी सजगता और चिन्तन के सातत्य को देखकर निद्रा दूर ही खड़ी रह गयी। उसे तो बस एक ही ध्यान था। एक ही कल्पना एक ही लक्ष्य -ऋषि युवक रूप
दूसरे दिन प्रातः ऋषि की आगमन चर्चा सुनकर नगर - निवास उनके दर्शनार्थ जाने लगे। ऋषि आर्य ने अध्यात्म की गूढ़ोक्ति उन्हें सुनायी - समझायी श्रोतागण धन्य-धन्य कह उठे
इस अल्पवय में ऐसे गुरु द्वारा गम्भीर ज्ञान का भंडार पा जाना उन्हें एक दिव्य चमत्कार ही जान पड़ा। उपदेश समाप्त हो गया था। श्रद्धा में बँधे - खिले से श्रोतागण उठाकर चलने लगे। ऋषि आहारचर्या को निकल पड़े।
रात - दिन की कठोर प्रतीक्षा के बाद तपस्वी के दर्शन की प्यासी वसन्तश्री सन्ध्या वेला में नित्य की भांति पुनः उद्यान में जा पहुँची। माली ने पुष्पहार उसे अर्पित किए। सखी - सहेलियों को भी दिए। कुमारी आगे बढ़ने लगी। वह मंत्रचालित सी ऋषि के निकट जा पहुँची ओर जब तक सखियां रोके तब तक पुष्पमाला उसने ऋषि के गले में डाल दी
ऋषि यथावत् ध्यानस्थ रहें। सखियां कुमारी को बलपूर्वक घसीट ले चली। इस प्रसंग की चर्चा एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे कानों में प्रसार पाने लगी। रात्रि तक सम्पूर्ण नगर में समाचार व्याप्त हो गया श्रेष्ठी पुत्री ने ऋषि के गले में वरमाला डाल दी है। यही एक वाक्य आबाल वृद्ध-वनिता की जिह्वा था। श्रेष्ठी स्वयं आश्चर्यचकित थे। वे सोचकर भी समझ न पाते कि अब उनका इस संदर्भ में क्या कर्तव्य है श्रेष्ठी श्रीदत्त पुत्री के समीप आए। उस के कृत्य की कठोर शब्दों में भर्त्सना की। कुमारी रोने लगी। श्रेष्ठी पत्नी ने इस समय दूरदर्शिता से काम लिया। वह पति का हाथ पकड़ कर एक ओर ले गयी। पति -पत्नी में परामर्श होने लगा। कुमारी कान लगाकर एक-एक शब्द सुन रही थी। जब श्रेष्ठी दम्पत्ति ने पुत्री के शीघ्र ही निकट भविष्य में पाणिग्रहण हेतु वर खोजने की बात चलायी तो वसन्त श्री आहत सर्पिणी की भाँति फुँकार उठी। वह खड़ी हो गयी और बोली - जीवन में परिणय एक बार ही होता है। मैं निर्जीव पण्य नहीं हूँ जो हाथों -हाथ बिकती फिरूंगी। जिसे मनोनीत कर लिया वही मेरा जीवन आराध्य हैं। समस्त लज्जा - संकोच दूर फेंककर कन्या ने स्पष्टीकरण का उचित अवसर हाथ से न जाने दिया। इसी में उसकी भावनाओं की सम्पूर्ण भविष्य की सुरक्षा भी निहित थी।
अब पति - पत्नी एकान्त में योजनाएँ बनाने लगे। प्रश्न था- ऋषि भला गृहस्थ जीवन में आना क्यों स्वीकार करेंगे? कुमारी के इस कृत्य की चर्चा से अवगत कौन-सा श्रेष्ठी सम्मानपूर्वक इसे अपनी पुत्रवधू बनाना स्वीकार करेगा। रात्रि को सभी सोये पर चैन किसी को न था। पिता -माता पुत्री अपने -अपने विचार व्यूह में इस प्रकार सिमटे हुए थे जैसे सर्प कुण्डली मारकर सिमट जाता है। किसी के पलक झपके ही नहीं कि बालरवि ने प्रातः काल की धूप श्रेष्ठी भवन पर बिखरे दी। प्रातः काल होते ही नगर -निवास उद्यान में एकत्रित होने लगे ऋषि की ध्यान समाधि भंग हो गयी। पुष्पहार निकट ही पड़ा था। उपेक्षित-सा मरे हुए सर्प जैसा और ऋषि राज विचारों में लीन थे। श्रेष्ठी श्री दत्त तभी समीप आकर उनके चरणों में गिर पड़ा। मुझे बचाओ स्वामी श्रेष्ठी ने जैसे करुण चीत्कार किया।
यह कैसे हो सकता है? ऋषि ने जैसे संक्षेप में ही अपनी अस्वीकृति का निर्णय सुना दिया। नगर के गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। घटना अपूर्व थी। समस्या विषम हो गयी थी।
शत-प्रतिशत व्यक्तियों को श्रेष्ठी के साथ सहानुभूति थी। वे सभी उसी के पक्ष में उसी के दृष्टिकोण से सोच रहे थे परन्तु उनमें से ही कुछ व्यक्ति ऋषि की स्थिति के प्रति भी सहानुभूतिशील थे। वे चाहते थे कि ऋषि के प्रति अन्याय न हो जाए कोई अप्रिय प्रसंग न आ जा। अनहोनी को न्यायप्रिय व्यक्ति क्यों चाहेगा?
यह एक ऐसा अवसर था, जिसमें बलप्रयोग की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। आग्रह-स्नेह-तर्क-प्रमाणों और दृष्टान्तों के द्वारा ही साहूकार को मनाया जा सकता था। श्रेष्ठियों ने स्वर में नम्रता का भरपूर पुष्ट देकर बतलाया कि उनमें से कई व्यक्ति स्वयं स्वेच्छा से कुमारी को अपनी पुत्रवधू बनाने को आज भी तैयार है। किन्तु कुमारी अपनी हठ पर दृढ़ है कि मैंने तो ऋषिराज का वरण कर लिया है। पाणिग्रहण होगा, तो उन्हीं के साथ। यदि नहीं होगा, तो प्राणों का आत्मघात के द्वारा उच्छेद कर दूँगी।
ऋषि आर्य ने कुमारी वसन्तश्री के कथन को ध्यान से सुना फिर उसे पास बुलाने की आज्ञा दे दी। सखियां वसन्त श्री को ऋषि के समीप ले आयीं। कई रातें न सोने के कारण वसन्तश्री कुम्हलाएं कमल के पुष्प-सी लग रही
थी। मलिन होने पर भी उसकी सुन्दरता अपूर्व थी। ऋषि ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा-देवी तुम्हें मेरे जिस सौंदर्य ने आकर्षित किया है वह तो यथार्थ की प्रतिच्छाया मात्र है। यदि तुम मुझे सचमुच ही पाना चाहती हों, तो उस यथार्थ को जानने और पाने का प्रयत्न करो।
ऋषि के इस कथन ने वसन्तश्री को चौका दिया। परन्तु वह अपने निर्णय पर दृढ़ थी। ऋषि ने उसे प्रबोध किया और अपने तपोबल से उसके अपने अन्तःकरण में आत्म सौंदर्य की झलक दिखा दी। श्रेष्ठी कन्या को अब मार्ग मिल गया। उस अब यह समझ में आ गया कि ऋषि आर्य का यथार्थ साहचर्य कैसे पाया जा सकता है। उसका तो जैसे जीवन ही बदल गया। उत्तरोत्तर तपस्या के द्वारा उसने अद्वय स्थिति प्राप्त की। अब वह अनगढ़ लोहे से पारस बन चुकी थी। ऋषि आर्य की तरह वह भी अपने तपःपूत विचारों से जन-जीवन में शान्ति एवं प्रसन्नता बिखरने लगी। ईरान और भारत में उपजे दो प्रसून अपने-अपने ढंग से अनूठी सुरभि फैलाने लगे।