दूषित अन्न कराता है दुर्गति

October 1998

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महाभारत विजयोपरान्त धर्मराज युधिष्ठिर को शासन सँभालना था। किन्तु सैकड़ों प्रियजनों के मारे जाने से युधिष्ठिर का हृदय व्यथित था। वे बोले-सैकड़ों लोगों के मारे जाने से मिला यह सिंहासन मुझे नहीं चाहिए।

पर तुम इस नरसंहार के लिए दोषी नहीं हो। तुमने तो धर्मनीति अपनाई है, जो धर्मानुसार कार्य करता है, जीत उसकी होती है। अब राजधर्म का पालन करना चाहिए। लेकिन युधिष्ठिर का हृदय अशान्त ही रहा, तो श्री कृष्ण ने कहा-अभी तो पितामह भीष्म जीवित है। चलकर युधिष्ठिर, अर्जुन, द्रौपदी और भी सगे-संबंधी इकट्ठे होकर पितामह के पास गए। चरण स्पर्श कर युधिष्ठिर ने अपने मन की व्यथा सुनायी।

युधिष्ठिर! युद्ध में जो लोग मारे गए, तुम्हें उनके लिए दुःखी नहीं होना चाहिए। कौरव तो अधर्म के मार्ग पर जा रहे थे, उन्हें इसी तरह मरना था। हरेक मानव को अपने किए कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पितामह बोले-तुम्हारा मार्ग धर्म का था, तभी तो तुम जीते। अब तुम्हें धर्मानुसार राजगद्दी पर बैठकर प्रजा की भलाई, राज्य की उन्नति के कार्य करने चाहिए। यदि कोई अपने सामने हो रहे अधर्म और अन्याय का विरोध न करे, तो देखने वाले मनुष्य पर भी दोष लगता है। इस पर द्रौपदी को बहुत हँसी आयी, फिर उसके चेहरे पर उदासी छा गई।

द्रौपदी को इस तरह हँसने और अनमनी होने का कारण समझते हुए पितामह बोले, तुम्हारी वेदना मैं जानता हूँ, बेटी द्रौपदी! कौरवों के उस भरे दरबार में तुम्हारा चीरहरण होते समय मैं गूँगे की भाँति बैठा देखता रहा, अपमान सहता रहा। न मैंने दुर्योधन को रोका न दुशासन को टोका और न ही दरबार से उठकर गया। इसका कारण यह था कि तब इस प्रकार का ज्ञान मुझ में था ही नहीं। कौरवों के राज्य में उनका दूषित भोजन खाते रहने से मेरा ज्ञान नाश हो गया था। तभी तो मैं अन्यायी कौरवों की तरफ से लड़ा और इस दुःखदायी गति का भागी बना हूँ। यहाँ छप्पन दिनों से मैंने अन्न का दाना भी ग्रहण नहीं किया है। इस कारण मेरे शरीर में दूषित अन्न का कण भी न रहने से हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो गया है।

इतना कहने के बाद पितामह वहाँ उपस्थितजनों को एक कथा उदाहरण के लिए सुनाने लगे-

श्राजा शिवि की सभा में एक संत रहते थे। वे बहुत त्यागी और धार्मिक वृत्ति के थे। वह राज षिविष् को भी त्याग और भलाई की प्रेरणा दिया करते। राजा शिवि के राज्य में एक ब्राह्मण रहता था। उसने अपनी पुत्री के विवाह में देने के लिए नगर के सुनार को गहने बनाने की खातिर शुद्ध सोना दिया। सुनार बेईमान था। ब्राह्मण से शुद्ध सोना लेकर उसने पीतल के गहने बनाए और उन पर सोने की पालिश कर ब्राह्मण ने वे गहने पुत्री को विवाह में पहना दिए। ससुराल में बहुत जल्दी पता लग गया कि गहने पीतल के है। इस धोखाधड़ी से क्रोधित होकर लड़की के पति ने उसे पीहर भेज दिया।

बेटी से आपबीती सुनकर ब्राह्मण के दुःख की सीमा न रही। सोचते लगा मेरी बेटी के इस दुःख का जिम्मेदार वह कपट सुनार है। उसने राजा शिवि से उस सुनार की शिकायत की। राजा ने सुनार को हेरा-फेरी के आरोप में दण्ड देकर कारागार में बन्द कर दिया और ब्राह्मण की पुत्री को खरे सोने के गहने बनवाकर दिलाए और फिर ससुराल पहुँचा दिया। थोड़े दिन बाद सुनार का जो बेईमानी से जोड़ा धन राजा ने जब्त किया था, उसी धन से खाद्य-सामग्री खरीदकर सेवकों ने पाकशाला में भोजन बनाना शुरू कर दिया। सन्त भी उसी भोजन को खाते थे। कुछ दिन उस भोजन को खाते के बाद सन्त जी के विचार बदलने लगे। साँसारिक सुख पाने की लालसा उनके मन में भड़क उठी। एक दिन चालाकी से उन्होंने रानी का हार चुरा लिया और चलते बने। उनके यों अचानक लापता होने से राजा चिन्ता में पड़ गए। फिर सोचा-हो सकता है वे तीर्थयात्रा पर गए हो। उधर सन्त जी बड़े संकट में पड़ गए, वे सोचने लगे कहाँ पकड़े गए तो? इसी भय के मारे कई दिन कई खण्डहर में भूखे-प्यासे पड़े रहे। जब भूख न सह सके तब घर-घर से भिक्षा माँगकर भूख मिटानी पड़ी। लोभ-मोह जाते रहे। हृदय पवित्र हो गया। अब उन्हें अपनी गलती पर पश्चाताप होने लगा। उन्होंने झोली उठाई और चल पड़े। उन्हें आते देख राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। किन्तु परमहंस दुःखित स्वर में बोले महाराज। रानी का हार में ले गया था चुराकर। मुझे दण्ड दीजिए, चोरी के अपराध मे।

यह सुनकर राजा षिविष् चकरा गए। उन्होंने कहा-महात्माजी आप स्पष्ट बताने की कृपा करें।

परमहंस ने बेईमानी से उपार्जित खाद्य-सामग्री के उपयोग की बात बताई और कहा जब मेरे शरीर में वह अन्न नहीं रहा, तो सच्ची बात कहने का साहस पैदा हो गया।

यह सुनाकर पितामह बोले- धोखाधड़ी से कमाए धन के अन्न का कुछ ही दिन भोजन करने से परमहंस जैसे सन्त की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। मैं तो अधर्मी दुर्योधन के अन्न पर ही जी रहा था। अतः तुम्हारे अपमान के समय धर्म-अधर्म न्याय-अन्याय का विवेक मुझ में नहीं था। अब दुर्योधन के दूषित अन्न का कण भी मेरे शरीर में नहीं है, तभी मैं ज्ञान दे सकने की स्थिति में हूँ। पितामह की बात सुनकर पाण्डवों और द्रौपदी ने बहुत आदर-भाव से उनके चरण स्पर्श किए और द्रौपदी ने अपनी हँसी के लिए हाथ जोड़कर मन से क्षमा माँगी।


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