गूढ़ वार्तालाप

October 1998

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उस दिन बाल मुनि श्वेतकेतु एक गृहस्थ के यहाँ भिक्षा लेने के लिए पहुँचे। घर में एक वृद्ध पुरुष व उसकी पुत्रवधू दो ही व्यक्ति थे। वृद्ध पुरुष को धर्म-कर्म में कोई अभिरुचि न थी, जबकि पुत्रवधू विदुषी होने के साथ धर्मशील भी थी। पुत्रवधू ने सभक्ति साधु को प्रणाम किया। बालमुनि श्वेतकेतु की छोटी अवस्था व चेहरे के तेज ने उसके मन में कई सवाल उभार दिए। युवती ने पूछा-मुनिवर अभी तो सवेरा ही है?

बालमुनि ने उत्तर दिया-बहिन मुझे काल का पता नहीं।

मुनि ने पूछा- तुम्हारा पुत्र कितने वर्ष का है?

सोलह वर्ष का।

और तुम्हारा पति?

आठ वर्ष का।

तुम्हारे घर क्या आचार-विचार है?

हम तो हमेशा बासी ही खाते हैं।

तुम्हारे श्वसुर कितने वर्ष के है?

वह पालने में झूल रहे है?

वृद्ध पुरुष उनके इस वार्तालाप को सुन-सुनकर आगबबूला हो रहा था। एक-एक प्रश्न उसके हृदय में चुभन पैदा कर रहे थे। युवती और मुनि के प्रश्नोत्तर समाप्त हो गए। मुनि भिक्षा ग्रहण कर चले गये। उनके चले जाने के तुरन्त बाद वृद्ध पुरुष झल्लाते हुए अपनी पुत्रवधू से बोला, ऐसा ही बेवकूफ ये साधु और ऐसी ही घर की इज्जत को धूल में मिलाने वाली तुम। खबरदार यदि कभी ऐसा अवसर आया।

पुत्रवधू शाँत स्वर में बोली-पिताजी आप मुझे कोई आदेश दें, मुझे स्वीकार होगा। किन्तु, साधु को भिक्षा लेने आने के लिए मैं कैसे रो सकती हूँ। इससे तो अच्छा है, आप मुनि के आश्रम पर जाएँ, वहाँ बालमुनि के गुरु होंगे। आप उनके सामने सारी घटना बताकर मुनि को अपने घर आने के

लिए मना कर आइए।

वृद्ध पुरुष को बात जँच गयी। उसने सोचा मैं बहुधा विचार ही करता था, कभी इन साधुओं को डांटूं पर कभी ऐसा अवसर आया ही नहीं। आज सही मौका हाथ आया है। जिन्दगी में पहली बार वह वृद्ध साधुओं के स्थान पर पहुँचा उसने गुरु के समक्ष बालमुनि की शिकायत करते हुए कहा-आज आपका शिष्य मेरे घर भिक्षा लेने आया था, उसने वहाँ बहुत हो अशोभनीय बातें कहीं। गुरु ने बालमुनि को बुलाया, बालमुनि ने प्रार्थना की-इनसे पूछा जाए, मैंने आज क्या अशिष्ट आचरण किया?

गुरु का संकेत पाकर वृद्ध बोला- मेरी पुत्रवधू ने इस बालमुनि से कहा अभी तो सवेरा ही हुआ है और इसने उत्तर दिया, मैंने काल को नहीं जाना है। क्या ये दोनों गँवार है कि आसमान में चढ़ते सूर्य को देखकर भी इन्हें काल का पता नहीं चला?

गुरु के पूछने पर बालमुनि बोला-भगवान यह वार्तालाप सत्य है, हम दोनों, में यह बात हुई थी। बहिन के मन में जिज्ञासा थी, सांकेतिक भाषा में उसने पूछा था, अभी आपने इस उभरती हुई अवस्था में ही संन्यास जैसे कठोर मार्ग का अनुसरण कैसे कर लिया? मैंने उत्तर दिया, बहिन काल (मृत्यु) का कोई भरोसा नहीं है। भगवान्! इसमें उस बहिन का क्या अशिष्ट प्रश्न था और मेरा क्या अनुचित उत्तर?

वृद्ध पुरुष बीच में ही टोकते हुए बोला-महाराज इस बात को जाने दीजिए, किन्तु जरा यह बताइए, आपके इस साधु ने पूछा तुम्हारे घर क्या आचार-विचार है, तो मेरी पुत्रवधू ने उत्तर दिया, हम तो बासी ही खाते है, इस प्रकार की बातें करने की क्या आवश्यकता थी।

बालमुनि ने कहा-गुरुदेव जब मैंने उस बहिन का

तत्वभरा प्रश्न सुना, तो मेरे मन में भी धार्मिक जिज्ञासाएँ उभर आयी। मैंने भी उनसे पूछा लिया, तुम्हारे घर क्या आचार है अर्थात् तुम्हारे यहाँ धार्मिक विचारों का चलन कैसा है? यानि कि क्या तुम वर्तमान में भी पुण्यकर्मों में निरत हो या सिर्फ पिछले जन्म के पुण्यों का भोग कर रहे हो? तो उस बहिन ने कहा, हम तो बासी ही खाते है। अर्थात् हमारे यहाँ वर्तमान में पुण्यकर्मों का चलन नहीं है, सिर्फ पिछले पुण्यों का भोग कर रहे है। इसमें मैंने और उस बहिन ने कौन-सा अभद्र वार्तालाप किया?

वृद्ध ने कहा, यह तो ठीक है, पर जरा इससे यह तो पूछिए-मेरे पुत्र व पौत्र की अवस्था पूछने का इसका क्या प्रयोजन था। इस प्रश्न का उत्तर मेरी पुत्रवधू ने भी तो सर्वथा ही असंगत दिया है। मेरा लड़का आठ वर्ष का और पौत्र सोलह वर्ष का और मैं जो कि बूढ़ा हो चला हूँ, दाँत टूट गए है, केश सफेद हो गए है, मैं अभी पालने में ही झूलता हूँ।

बालमुनि ने कहा- जब मैंने उस बहिन को इतना धर्मपरायण व तत्त्वज्ञ जाना, तो सहसा मेरे हृदय में आया कि इसके घर में और कोई धर्मज्ञ है या नहीं, यह भी जानना चाहिए। इसी उद्देश्य से मेरा प्रश्न था। उसने मुझे बताया मेरा लड़का तो जन्म से ही धर्म-कर्म को जानता है, क्योंकि वह मेरे ही संपर्क में रात-दिन रहता है, उसकी अवस्था सोलह वर्ष की है। मेरे पति धर्म में तनिक भी विश्वास नहीं करते थे, किन्तु मेरे बार-बार समझाने-बुझाने से वे धर्म के मर्म को धीरे-धीरे समझने लगे है और सच्चाई के मार्ग पर आठ वर्ष से अग्रसर है, जबकि मेरे श्वसुर पर अब तक मेरी धार्मिक बातों का असर नहीं है।

बालमुनि की तथ्यपूर्ण बातों ने अब तक वृद्ध पुरुष के ज्ञानचक्षु खोल दिए थे। उन्होंने विनम्रतापूर्वक क्षमा याचना करते हुए महागुरु के चरणों की सौगन्ध खाते हुए शपथ ली कि अब से वे भी धर्मपरायण परिवर्तन को देखकर बालमुनि के आनन्द का पारावार न रहा।


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