युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष-5 - भ्रान्तियों के घटाटोप में रह रहे हम सब

October 1998

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कसाई के खूँटे से बंधा हुआ बकरा तब तक घास खाता और मस्ती करता है तब तक उसकी गरदन कड़क्के में फँसा नहीं दी जाती। पिंजड़े में घुसते समय तक चूहे भी सह कहाँ सोच पाते है कि अगले ही क्षण उन पर क्या बीतने वाली है। अदूरदर्शिता को एक अभिशाप ही कहना चाहिए, तो तात्कालिक लाभ के ही सब कुछ मानती है और यह सोच नहीं पाती कि जो किया जा रहा है, उसका कुछ अनिष्टकर परिणाम तो नहीं होने जा रहा है। पिछली कुछ शताब्दियों से एक पर नहीं, समुदाय के विशिष्ट माने जाने वाले वर्ग पर ऐसा उन्माद चढ़ा है, जिसमें एक सोने का अण्डा रोज़ देने वाली मुर्गी का पेट चीरकर एक ही दिन में सारे अण्डे निकाल लेने और देखते-देखते धन कुबेर बन जाने की ललक ही चरितार्थ होती देखी जा सकती है।

इसी शताब्दी में दो बड़े विश्वयुद्ध हुए हैं और सैकड़ों स्थानीय क्षेत्रीय। इनके कारण बताने में बहाने जो भी बनाये जाते रहे हो, कटु अनुभवों के बाद भी समझदारी वापस कहाँ लौट रही है? मिल जुलकर रहने और मिल बाँटकर खाने लिए समर्थता कहाँ सहमत हो रही है? उसने आक्रमण की नीति अभी भी छोड़ी नहीं है। एक से एक भयंकर प्रलयंकर अस्त्र धड़ाधड़ बनते चले जा रहे है। वे इतने अधिक जमा हो गये है। कि कोई पगला इस बारूद में एक चिनगारी फेंक दे तो इस धरातल का सारा वैभव आतिशबाजी की तरह जलकर भस्म हो सकता है। संसार के अधिकाँश लोगों को अभावग्रस्त एवं पिछड़ेपन की स्थिति में रहना पड़ रहा है, पर सब सब बन कैसे पड़े? समझदारी तो वापस लौटने का नाम ही नहीं लेती। छिटपुट आक्रमण भी कहाँ कुछ कम भयंकर इससे भी विद्वेष की विषाक्तता दिनोंदिन बढ़ रही है।

अणु शक्ति का नया उद्भव अगले दिनों क्या कुछ करने जा रहा है, इसका अनुमान लगाने से ही दिल दहलने लगता है। जापान पर गिरे दो छोटे बमों का दृश्य ऐसा है जिसे मनुष्य कभी भुला न सकेगा। वैज्ञानिक कहते हैं कि अब तक जितना रेडियोधर्मी विकिरण फैल चुका है और जितना खतरनाक कचरा जमा हो चुका है, उससे भुगतना भी टेढ़ी खीर है। फिर इस उपक्रम के चलते आगे क्या कुछ होकर रहेगा, उसकी तो कल्पना भी दहला देती है।

विज्ञान का अर्थ क्षेत्र में प्रवेश हुआ तो उसने औद्योगीकरण के सब्जबाग दिखाये। विशालकाय कारखाने लगे। सुविधा की दृष्टि से उनके लिए बड़े शहर चुने गये। एक ओर शहर गाँव से उमड़ते जन प्रवाह का बोझ सहन नहीं कर पा रहे है। उनकी स्वास्थ्य, सफाई, आवास समस्या बुरी तरह चरमरा रही है। इच्छा होते हुए भी विकास की दिशा में वे उतना कुछ नहीं कर पा रहे हैं जितना कि सुयोग्य प्रतिभाओं द्वारा वहाँ बसे रहने पर हो सकता था। प्रगति की आकांक्षा कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, तो अवगति से तो पहले पल्लू छूटे? प्रदूषण अपने समय की ऐसी समस्या है, जिसे औद्योगीकरण की, अतिशय सुविधा पाने की अदम्य लालसा का प्रतिफल ही कहा जा सकता है। फिर भी अन्यत्र घटित होने वाले प्रभावों से एक जगह बैठा रहने वाला सुरक्षित भी कहाँ रह पाता है? सदी, गर्मी, वर्षा के कारण जो भी हो, उनका मूल सिलसिला जहाँ से भी चलता हो, पर उसका प्रभाव तो हर किसी पर पड़ता है। वातावरण के साथ छेड़खानी का परिणाम वैसा ही हो सकता है। जैसा कि बर्र के छत्ते में हाथ डालने का।

ऊर्जा का अतिशय उपयोग और बढ़ते प्रदूषण के दबाव से अंतरिक्षीय तापमान बढ़ रहा है। उसने ध्रुवों के पिघल जाने और समुद्र में भयंकर बाढ़ आने से जलप्रलय की चेतावनी समय से पहले ही भेज दी है। यह सब प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़खानी करने कर प्रतिक्रिया भर है।

कोढ़ में खाज की तरह बढ़ती आबादी की अपनी अलग समस्या है, जिस अकेली को ही प्रकृति रूपी शेरनी की पूँछ मरोड़ने से कम भयंकर नहीं समझा जा सकता। ऐसी दशा में बहुप्रजनन का बाँध टूटे तो आश्चर्य ही क्या? इन दिनों जनसंख्या की अभिवृद्धि वैसा ही संकट बनकर सामने आई है, जैसा कि विज्ञान ने उद्योगों के साथ साझेदारी गाँठ कर विपत्ति के बादल खड़े किए है।

बढ़ती जनसंख्या व उद्योगों से निवास, कृषि, ईंधन आदि से जुड़ी समस्याएँ भी बढ़ी और वन वृक्ष बुरी तरह कटते चले आ रहे है। इससे वायु शोधन की प्रक्रिया तो रुकी ही है, साथ ही भू क्षरण की नई विपत्ति सामने आई है। जो सर्वनाश की पूर्व भूमिका के रूप में प्रस्तुत होते और पुरानी फसल को काटकर नये सिरे से जोतने की आवश्यकता बताकर नई सृष्टि का सृजन करते है।

उपर्युक्त विपत्तियों प्रकृति के साथ दुराचरण करने की परिणतियाँ है। इससे भी बड़ी बात यह है कि

मनुष्य ने अपनी गरिमा को भुला दिया है। सम्मिलित कर लिया गया है। इतना ही नहीं, अनाचारी उच्छृंखलताओं को बरतते हुए लोग अपनी शेखी भी बघारते हैं और कुकृत्यों पर शर्माने के स्थान पर मूँछें ऐंठते देखे जाते है।

असंयम अपनाकर अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने का उन्माद न जाने लोगों ने क्या भलाई सोचकर अपना लिया है। फिर भी लोग उसे अपनाने के लिए इस बुरी तरह आतुर है, मानो मरते समय चींटी के पंख उग रहे हों।

चटोरेपन ने स्वास्थ्य खा लिया कामुकता ने मानसिक विशिष्टता को समाप्त कर दिया गरीबी के कारणों में मात्र आलस्य अकर्मण्यता ही नहीं अपव्यय भी एक बड़ा कारण बना हुआ है। ऐसे जीवनों को यदि प्रेत-पिशाच के स्तर का कहा जाए तो कुछ अत्युक्ति न होगी। नरक ढूँढ़ना हो तो उसे अपने ही इर्द गिर्द बहुलता के साथ फैला बिखरा देखा जा सकता है।

ये है। बढ़ती सभ्यता के अभिशाप, जिन्हें भौतिक क्षेत्र में असीम लिप्साओं ने और आत्मिक क्षेत्र में उस चिंतन न उत्पन्न किया है जो प्रत्यक्षवाद की दुहाई देता और मात्र आज के लाभ को देखता है। यही है वह महाव्याधि, जिससे व्यक्ति और समाज को किसी भी कीमत पर छुड़ाया जाना चाहिए। मात्र आत्मिकी ही यह चिकित्सा उपचार कर सकती है।


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