जीवन चलने का नाम - चलते रहो सुबह - शाम

July 1994

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ऋचाकार का कथन है- “ चलते रहो-चलते रहो” चरैवेति-चरैवेति ! वे कहते हैं कि सोने वाले का भाग्य सो जाता है और चलने वाले का जग जाता है। निःचेष्ट रहना ही कलियुग है। जिसने तनकर चलना आरंभ कर दिया, उसके लिए सर्वत्र सतयुग ही सतयुग है। यह कथन अध्यात्म जीवन का प्राण है और भौतिक जीवन का एक तथ्य । गतिशीलों को सफलताएँ मिली है और पाषाणवत् जड़ बनकर जो बैठे रहे, उनको निस्तब्धता, निराशा के अतिरिक्त कुछ हाथ लगा नहीं।

शरीर के कण-कण में वायु का आवागमन होता रहता है और रक्त का प्रवाह अनवरत गतिशील रहता है। पैर एक स्थान छोड़कर दूसरे तक चलने के लिए सतत् गतिशील रहते हैं। यदि स्थिरता की जकड़न जोड़ों को पकड़ ले तो समझना चाहिए कि संधिवात या पक्षाघात जैसी अपंगता का आक्रमण हुआ है। सूर्य, चंद्र से लेकर ब्रह्माँड में अधर टँगे नक्षत्र स्थिर दीखते भर हैं। उनकी गतिशीलता असाधारण है। अचल दीखने वाली पृथ्वी तक अपनी धुरी पर, सूर्य की परिक्रमा पर व सूर्य, महासूर्य की महा परिक्रमा पर द्रुतगति से दौड़ते दिखाई देते हैं। गतिशीलता की इस प्रक्रिया का जो भी परित्याग करेगा, उसे मृतकों में न सही, अपंगों-मूर्च्छितों के घूरे कबाड़े के किसी कोने में ही जगह मिल सकेगी।

नदियाँ चलती हैं, झरने बहते हैं, पक्षी उड़ते हैं, हिरन फुदकते हैं। यहाँ तक कि तितली , चींटी, दीमक, मधुमक्खी तक को चैन नहीं। बैठे रहने का आलस्य-अवसाद यदि इनने किसी ने अपनाया होता तो उनकी गणना निर्जीवों में हुई होती। समुद्र भी कहाँ शाँत रहता है ? उसमें निरंतर ज्वार-भाटे उठते रहते हैं, तूफान मचलते हैं और वाष्प बादल उसके अंग अवयव के रूप में आकाश में उड़ान भरने का आनंद चखते हैं। गति ही जीवन है। प्रगति ही प्रशस्ति का मार्ग है जो गन्तव्य की ओर ले जाता है। अगति और मरण में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है। हम भी योजना बद्ध परिभ्रमण का उपक्रम अपनाकर स्वयं को सतत् गतिशील बनाये रखें। उसी में जीवन की सार्थकता है।


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