श्रद्धा जगाती है सिद्धपीठों के संस्कारों को

July 1994

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सिद्ध संतों की समाधियों, कतिपय देवालयों एवं तीर्थ स्थलों के बारे में प्रायः कहा-सुना जाता है कि वहाँ जाते ही, मनौती मनाते ही बीमार और बीमारी ठीक ही गये। पहले जिनके बचने तक की उम्मीद नहीं थी, वे चमत्कारिक ढंग से स्वास्थ्य-लाभ करते हुए विज्ञान को चुनौती देते प्रतीत होते हैं। इस क्रम में कितने ही स्थल आये दिन साधारण से असाधारण और अद्भुत बनते पाये जाते हैं। कल तक जिनके बारे में कोई जानकारी तक नहीं थी, देखते-देखते उनकी प्रसिद्ध आकाश चूमने लगती है। विश्वभर में ऐसे कितने ही स्थान हैं, जिनकी अलौकिक महिमा को उजागर करने वाले अगणित प्रसंग हैं।

एक घटना सेण्टी चैपेली की है। उक्त चर्च का निर्माण पेरिस में संत लुईस ने काँण्स्टैण्टीनोपल से प्राप्त “क्राउन ऑफ थाँर्न्स” के सम्मान में करवाया था। आज भी काँटों का वह ताज सेण्टी चैपेली की शोभा बढ़ा रहा है, न सिर्फ उत्कृष्टता की दृष्टि से, वरन् अद्भुतता के विचार से भी।

प्रसंग पुराना है और मारगुएराइट पेरियर से संबद्ध है। यह महिला फ्राँस के विख्यात दार्शनिक और गणितज्ञ ब्लैसे पास्कल की संबंधी थी। नोट्री डेम स्थित सैण्टी चैपेली में वह नन का कार्य करती थी, पर पिछले तीन वर्षों से बहुत दुःखी थी। उसे डर था कि उसके आँख का व्रण कहीं उसकी नेत्र ज्योति न ले जाय। जब घाव में कोई सुधार होता नहीं दिखाई पड़ा, तो एक दिन वह अधीर हो उठी और जिस पीठिका पर ताज प्रतिष्ठित था, उसके निकट जाकर विषण्ण भाव से बैठ गई। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। वह आँखों से आँसू बह रहे थे। वह आँखें मूँदे न जाने क्या बुदबुदा रही थी। इसी समय चर्च की प्रधान नन वहाँ से गुजरी। पेरियर को इस अवस्था में देख कर अचानक उसे उसकी आँख की गंभीर दशा का भान हो आया। वह एक झटके से आगे बढ़ी और फोड़े युक्त आँख को ताज का स्पर्श करा दिया। करीब एक घंटे के बाद उसकी आँख से मवाद निकलना बंद हो गया। धीरे-धीरे तकलीफ घटती गई और कुछ दिनों में घाव सूख गया। इसके साथ ही आँख भी स्वस्थ हो गई।

इस घटना से पास्कल इतना प्रभावित हुआ कि अपनी विशेष पोशाक में काँटों के ताज से घिरी हुई एक आँख अंकित करवा ली और लैटिन में एक वाक्य लिखवा लिया, जिसका अर्थ होता था, जिसे मैं पहले मानता था, अब भलीभाँति जान गया हूँ।”

वहाँ स्थापित “क्राउन ऑफ थार्न्स” के बारे में मान्यता है कि वह ईसामसीह से संबद्ध है। इस घटना के बाद से अब प्रतिवर्ष वहाँ लाखों की संख्या में लोग आते और स्वस्थ होकर लौटते हैं। ईसाई समाज में जो आदर और सम्मान आरंभ के वर्षों में प्रभु ईशु को मिला था, वैसी श्रद्धा मरियम के प्रति नहीं दिखाई पड़ती थी, किन्तु चौथी शताब्दी आते-आते मदर मेरी को भी पूजने लगे। इस क्रम में कई बार ऐसा जान पड़ता, मानों मरियम जन श्रद्धा की दृष्टि से ईसा को भी पीछे छोड़ गई। यही वह काल था, जब मरियम के सम्मान में विश्व भर में असंख्य चर्च विनिर्मित किये गये। इन्हीं में से एक है - स्पेन में वार्सिलोना के समीप मोण्टसिरेट में स्थापित काले पत्थरों से बनी मैडोना (मरियम) की मूर्ति जो आज भी बीमारों और विकलाँगों को अपनी ओर आकर्षित करती है, किंतु जो सर्वाधिक प्रसिद्ध है, वह लार्डिस, फ्राँस में स्थित हैं।

इस संबंध में प्रथम जानकारी बर्नाडेट सोबिरस नामक एक लड़की को मिली। एक बार बर्नाडेट जब लकड़ी बीनने समीपवर्ती नदी तट पर गई, तो किनारे स्थित एक छोटी-सी गुफा में उसे एक दिव्य स्त्री दिखाई पड़ी, पर जब तक वह कुछ समझ पाती, इसके पूर्व ही वह अदृश्य हो गई। उसने इसे आँखों का भ्रम मान लिया और लकड़ी बीन कर अन्य लड़कियों के संग वह वापस लौट गई।

दूसरे दिन जब वह पुनः नदी किनारे पहुँची, तो कल की घटना भूल चुकी थी। अकस्मात उसकी दृष्टि कंदरा की ओर चली गई। उसे पुनः वही महिला दिखाई पड़ी। इस बार भी वह कुछ ही क्षण में ओझल हो गई।

पुनरावृत्ति कई महीनों तक चलती रही, किंतु लड़की यह समझने में किसी भाँति सफल न हो सकी कि वह नारी आखिर है कौन और क्यों बार-बार दिखाई पड़ती है ? एक दिन उस दिव्य आकृति ने स्वयं ही अपना परिचय देते हुए बताया कि वह मरियम है। इसके बाद वह बर्नाडेट को गुफा के पीछे स्थित एक गुप्त झरने के पास ले गई। बाद में यही जल-स्रोत स्वास्थ्यकारी सिद्ध हुआ।

जैसे-जैसे इसकी ख्याति फैलती गई, वहाँ आने वाली भीड़ भी तदनुसार बढ़ती गई। कुछ ही समय में यह असाधारण रूप से अधिक हो गई। इसके उपरांत वहाँ एक बड़े चर्च का निर्माण कराया गया और गुहा के अन्दर बर्नाडेट को जहाँ मरियम के दर्शन हुए थे, वहाँ संगमरमर की एक मूर्ति प्रतिष्ठित कर दी गई।

आज भी वहाँ प्रति वर्ष लाखों की संख्या में लोग आते और ठीक होकर लौटते हैं। एक आइरिश व्यक्ति से संबंधित वहाँ की एक घटना निम्न है।

चार्ल्स मैकडोनल्ड क्षय रोग का मरीज था। पिछले एक वर्ष से उसका चलाना-फिरना बिल्कुल बंद हो चुका था और बिस्तर पर पड़ा-पड़ा अपने मौत के दिन गिन रहा था। जब उसकी आयु 20 वर्ष थी, तभी उसे यह बीमारी हुई थी और जब अब जबकि वह 31 वर्ष का हो चुका था, व्याधि का आक्रमण फेफड़ों से बढ़ कर कंधे, वृक्क एवं अन्य अंगों तक पहुँच चुका था। इस गंभीर और मरणासन्न स्थिति में उसे डबलिन के एक आश्रम में भर्ती कराने का निश्चय किया गया, किंतु मैकडोनल्ड ने वहाँ भर्ती होने से पूर्व लार्डिस की यात्रा करने की इच्छा प्रकट की।

दूसरे दिन ही वहाँ के लिए प्रस्थान कर दिया गया। मैकडोनल्ड जब वहाँ पहुँचा, तो विशेष रूप से निर्मित स्ट्रेचर में उसे बिठा कर स्नान के लिए ले जाया गया। प्रार्थनादि के उपरान्त जब उसे नहलाया गया, तो बड़ी विचित्र अनुभूति हुई। ऐसा प्रतीत हुआ मनों संपूर्ण शरीर में बिजली प्रवाहित हो गई हो। इसके पश्चात् जब उसे दूसरे स्ट्रेचर में रखा जाने लगा, तो वह अपने वर्षों पुराने दर्द से छुटकारा पा चुका था। दूसरे दिन जब स्नान की बारी आयी, तो उस समय तक वह काफी स्वस्थ हो गया था, अब वह चल-फिर सकता था। उसने बिना किसी की सहायता के स्वयं स्नान किया और दो दिन के भीतर इतनी समर्थता अर्जित कर ली, कि अकेले डबलिन लौट सके।

नियमानुसार अंत में पुनः उसकी स्वास्थ्य परीक्षा की गई। चिकित्सकों को यह देख कर अचरज हुआ कि अब उसमें रोग का कोई लक्षण नहीं था। परंपरा के अनुसार पुनः जाँच के लिए उसे एक वर्ष बाद बुलाया गया। मैकडोनल्ड बिल्कुल स्वस्थ था। चिकित्सकों ने इसे एक चमत्कार घोषित करते हुए कहा कि वर्तमान चिकित्साशास्त्र घटना की व्याख्या करने में पूर्णतः असमर्थ है अतः यह उस श्रेणी में गिने जाने योग्य है, जिसकी अलौकिकता की चर्चा अक्सर होती रहती है।

लार्डिंस से जुड़ा एक अन्य घटनाक्रम लुईस ओलिवरी नामक फ्राँसीसी व्यक्ति से संबद्ध है। लुईस एक बिजली मिस्त्री था। एक बार काम करते समय वह सीढ़ी से फिलस कर नीचे गिर पड़ा और उसे पक्षाघात हो गया। उसके शरीर का अर्धांग लकवाग्रस्त हो गया। अब वह हर समय बिस्तर पर ही पड़ा रहता। कई महीने बीत गये ।उसकी पत्नी ने जब लार्डिस की महिमा सुनी, तो पति को वहाँ जाने के लिए राजी कर लिया।

झरने में पहली डुबकी लगाते ही वह बेहोश हो गया। उसे पकड़ कर बाहर निकालना पड़ा। जब होश आया, तो उसका पक्षाघात ठीक हो चुका था। अब वह चल-फिर सकता था।

इस तरह की कितनी घटनाएँ अब तक वहाँ घट चुकी हैं। इनमें कितनी सच्ची और सही अर्थों में अलौकिक हैं ? इसे परखने के लिए एक चिकित्सा दल वहाँ क्रियाशील है। आगंतुकों को सबसे पहले यहाँ अपना स्वास्थ्य परीक्षण कराना पड़ता है, इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य विशेषज्ञ उन रिपोर्ट का भी गहराई से अध्ययन करते हैं, जिसे रुग्ण अपने साथ लाये होते हैं। दिनों परीक्षणों के आधार पर वे एक सुनिश्चित निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। इसके बाद स्नान की अनुमति मिल जाती है। व्याधि ठीक होने की स्थिति में फिर शरीर-परीक्षा होती है, जिसमें यह देखा जाता है कि मर्ज कितना प्रतिशत ठीक हुआ ? ठीक हुआ या नहीं ? स्वास्थ्य - सुधार के संकेत मिलने पर बीमार को एक साल बाद फिर बुलाया जाता है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि मर्ज और मरीज की अब क्या स्थिति है ? इस बार यदि सेहत और उन्नत पायी गई एवं जाँच दल यह महसूस कर सका कि सुधार स्थायी और अलौकिक है, तो मामले को पेरिस में वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। इसके पश्चात् इसे चर्च पदाधिकारियों के सन्मुख रखा जाता है, जहाँ उसकी विधिवत् घोषणा होती है, और आधिकारिक रूप से चमत्कारिक करार दिया जाता है।

लार्डिस के सौ वर्ष के इतिहास में मात्र 60 घटनाएँ ही ऐसी है, जिन्हें अधिकारियों ने अद्भुत और आश्चर्यजनक घोषित किया है, शेष 6 हजार मामले ऐसे हैं, जिनके बारे में उनका कथन है कि वह सत्य तो हैं, पर उनका आधार अभौतिक ही निमित्त है पर वह कारण क्या है ? इसे नहीं जाना जा सका।

विश्वास यदि सुदृढ़ हो और श्रद्धा प्रगाढ़ हो, तो ऐसी घटनाएँ सर्वत्र घटती देखी जा सकती है, पर मानवी अंतराल की संरचना ही कुछ ऐसी है कि उसकी आस्था चाहे जहाँ, जिस किसी पर सहजता से नहीं जम पाती। जहाँ जमती हैं वहीं चमत्कार पैदा करने लगती है। पवित्र स्थलों के संबद्ध में देखी-सुनी जाने वाली अलौकिकताएँ इसी की परिणति हैं। यो सूक्ष्म शरीरधारी दिव्य आत्माएँ भी अपनी कृपा बरसाती और ऐसा कुछ उत्पन्न करती हैं, जिसे अद्भुत कहा जा सके, पर श्रद्धा तत्व की आवश्यकता यहां भी अनिवार्य है। बिना इसके वैसा कुछ भी हस्तगत नहीं किया जा सकता, जिसे अनुपम - अद्वितीय के नाम से पुकारा जाता है। तीर्थों देवस्थलों पर ये चमत्कार जो देखे जाते हैं, उसके पीछे उन संस्कारों का विशिष्ट महत्व है जो जन श्रद्धा ने उस स्थान के अन्दर से जगा दिए हैं। हमारे यहाँ की उत्तराखण्ड के चारों धाम, वैष्णोदेवी, हरिद्वार में शाँतिकुँज - सप्तसरोवर, तिरूपति रामेश्वरम्, श्रंगेरी, पुरी, आदि स्थानों की महत्ता है। इसे किसी भी स्थिति में तर्क-तथा तथ्य की कसौटी पर नकारा नहीं जा सकता।


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