धरती की ऊपरी परत ही मनुष्यों के उचित जीवन यापन के लिए पर्याप्त है। धरती अपने ढंग से अपनी भीतरी ऊर्जा को नियंत्रित और व्यवस्थित करती रहती है। हमें अपनी आवश्यकताएँ सीमित करनी चाहिए। जनसंख्या-वृद्धि रोकनी चाहिए। यह प्रयत्न नहीं करना चाहिए कि गहराई में उतर पृथ्वी की खनिज संपदा का दोहन किया जाय । हमारे लिए इतना ही संतोषजनक होना चाहिए कि धरती की बाहरी परतों पर जो उपलब्ध है, उसी से व्यवस्थापूर्वक का चलायें, अन्यथा पृथ्वी का गर्भ काटने का प्रयत्न करने पर हम बिच्छू के बच्चों जैसा प्रयास ही कर रहे होंगे। इसका परिणाम ज्वालामुखियों और भूकंपों की अभिवृद्धि के रूप में सामने आकर अतिक्रमण का दंड भुगतने के लिए तैयार रहने की घोषणा करेगा।
ज्वालामुखी जब प्रचंड वेग से फटते हैं, तो गजब ढाते हैं। कोलंबिया का मुद्दतों से सोया हुआ ज्वालामुखी पर्वत नेवादोडेन रुर्ठज कुछ वर्ष पूर्व फटा, तो उसने हाहाकार उपस्थित कर दिया। उस आग ने म्यूरिल, करावियंका, लिबोनी आदि क्षेत्रों को अपने अंचल में लपेट लिया और कहते हैं कि 20 से लेकर 50 हजार तक की आबादी लुप्त हो गई। बर्फीले पहाड़ पिघल गये।
ज्वालामुखियों का अधिक प्रकोप इन्डोनेशिया क्षेत्र में होता रहा है। इस क्षेत्र में 170 के करीब ज्वालामुखी पर्वत विद्यमान हैं, जिनमें से 80 अभी भी आग की नदी बहा रहे हैं।
गत शताब्दी में इंडोनेशिया का सुँवावा द्विप का तंवेरा पर्वत फटा था। उसके कारण 56 हजार व्यक्ति एक ही झटके में समाप्त हो गये । दूसरा विस्फोट जावा-सुमात्रा के बीच क्रोकातोआ में हुआ था। उसकी गर्जना इतनी भीषण और भयंकर थी कि 3 हजार मील तक सुनी गई थी, साथ ही समुद्री तूफान भी आया, जिसमें 36 हजार लोगों की देखते-देखते मौत हो गई। समझा जाता है कि उसमें 26 हाइड्रोजन बमों जितनी शक्ति का उद्भव हुआ था। इसका गहरा धुँआ मोतान, और व्योकिंग राज्यों पर मुद्दतों छाया रहा।
विस्फोट होने पर यदि गैस मिश्रित धुँआ धरती के समीपवर्ती वायोस्फीयर और ट्रोपोस्फीयर तक बना रहता है, तो बादलों के साथ बरस कर जमीन पर आ जाता है और उसका प्रभाव जल्दी ही धरती पर दीख पड़ता है, । किन्तु यदि वह 20 किलोमीटर से ऊपर जा पहुँचता है, तो धूल आकाश में ही कई सालों तक छायी रहती है और पृथ्वी पर सूर्य ताप को आने से रोकती है। इससे धरती के मौसम पर असर पड़ता है। गर्मी कम हो जाती है, असमय वर्षा होते लगती है और घुटन अनुभव होती है।
वाशिंगटन राज्य के सेण्ट हेलेना क्षेत्र में फटे ज्वालामुखी की धूल लंबे समय तक आकाश में उड़ती देखी गयी और सबेरे-शाम पूर्व-पश्चिम में लालिमा दीखती रही। इन गैसों में गंधक की मात्रा अधिक होती है। गंधक एक जहर है। जब धरती पर हवा या पानी के साथ नीचे उतरता है, तो प्राणियों और वनस्पतियों को निश्चित रूप से हानि पहुँचाता है।
जब-जब संसार में बड़े ज्वालामुखी फटे हैं, तब-तब उनसे प्रभावित क्षेत्रों में मौसम संबंधी भारी उथल-पुथल हुई है। लोग आश्चर्यचकित रह गये हैं कि ऋतुओं ने अपनी परंपरा एकदम कैसे बदल दी ?
भूकंप के झटके पिछले दिनों दक्षिण अमेरिका , अफ्रीका और एशिया में विशेष रूप से आये हैं। वैसे उसने धरती का कोई कोना ऐसा नहीं छोड़ा, जो प्रकाशित न हुआ हो और जहाँ जान माल की भारी क्षति न उठानी पड़ी हो। महाराष्ट्र, कैलीफोर्निया, पेरु, निकारागुआ आदि के झटके को इस सदी का बड़ा हादसा माना जाता है। महाराष्ट्र में पिछले दिनों आये भूकंप में 40 से 50 हजार लोगों के मारे जाने की आशंका है। उत्तरकाशी में आये झटके में भी काफी लोग जान से हाथ धो बैठे। नेपाल में इस प्राकृतिक आपदा के कितने ही लोग शिकार हुए। पेरु में करीब 60 हजार मरे थे। निकारागुआ में 7 हजार , ग्वाटेमाला में 23 हजार, दक्षिण चीन में 20 हजार , बीजिंग झटके में 8 लाख, तुकीश् में 3 हजार, इटली में 3 हजार व्यक्ति मरे। इसके अतिरिक्त जापान, इण्डोनेशिया, चिली आदि के भूकंपों में भी भारी क्षति हुई।
विशेषज्ञों के अनुसार इस सदी के अंत तक विश्व भर में ऐसे कुछ और महा विनाशकारी झटके आ सकते हैं, जिनमें जन-जीवन की भारी हानि की संभावना व्यक्त की जा रही है। अमेरिकी पत्रिका “उनोवियर” ने भी ऐसी ही आशंका प्रकट की है और कहा है कि यदि ऐसा हुआ तो वह मनुष्य जाति के लिए बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
कुछ भी हो, इस प्रकार के भयावह उत्पातों में प्रकृति की अनगढ़ता और अव्यवस्था नहीं खोजनी चाहिए, वरन् यह देखना चाहिए कि कहीं अपनी ही कुछ उच्छृंखलताएँ पृथ्वी का कुपित तो नहीं कर रही हैं ? जिस डाली पर हम बैठे हैं, उसी के काटने की अदूरदर्शिता तो हम नहीं कर रहे ? फिर हम दैवी प्रकोपों को अपनी आज की परिस्थितियाँ के लिए जिम्मेदार न ठहराकर स्वयं अपनी परिस्थितियाँ हितकर व पारस्परिक साहचर्य पर आधारित विनिर्मित करने लगेंगे यही स्रष्टा चाहता भी है।