विद्या विस्तार बनाम – सद्ज्ञान संवर्धन

July 1994

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व्यक्तित्व परिष्कार का गहन पक्ष उपासना , साधना और आराधना के साथ जुड़ा हुआ है। संचित पशु-प्रवृत्तियों के उन्मूलन के लिए अपने दोष-दुर्गुणों की बारीकी से परीक्षा करनी पड़ती है और जहाँ जो जितनी मात्रा में खोट दिखाई दे उसे बुहार फेंकने के लिए उसी प्रकार उद्यत रहना पड़ता है जैसा कि शरीर की, कपड़ों की, घर के वस्तुओं की सफाई पर निरंतर ध्यान देते रहने और तत्पर रहने के संबंध में सतर्कता बरती जाती है। सुसंस्कारिता का अभिवर्धन दूसरा पक्ष है। इसके लिए चिंतन, चरित्र और व्यवहार को मानवी गरिमा के अनुरूप बनाना पड़ता है। सेवा-साधना को भी नित्यकर्म में सम्मिलित करना पड़ता है। सुविस्तृत सामाजिक सहयोग के बलबूते ही मनुष्य आदिमकाल की अनगढ़ परिस्थितियों को पार करते हुए वर्तमान प्रगतिशीलता के उच्च शिखर पर पहुँचा है। सृष्टि का मुकुटमणि बनने का अवसर उसके एकाकी प्रयत्नों ने ही संभव नहीं किया है। इसके लिए मानवजाति की चिर-संचित उपलब्धियों का लाभ हस्तगत करने का अवसर उसे मिलता रहा है। यदि वह सब न मिल सका होता तो अभी भी कबीलों में रहने वाली जन-जातियों से अधिक अच्छी स्थिति उसकी न बन पाई होती।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसकी भूतकालीन प्रगति, वर्तमान सुयोग और भावी संभावनाओं का समूचा आधार जन सहयोग पर ही निर्भर है। इसके बिना तो उसकी स्थिति नर-बानर से तनिक भी अच्छी न रही होती। समाज-ऋण चुकाना भी उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार कि बैंक से लिया हुआ ऋण ब्याज समेत वापस करना पड़ता है। इस वापसी को ही सेवा-साधना के नाम से निरूपित किया गया है। उसे आवश्यक बताया गया है और अनिवार्य भी। मिल-जुल कर प्रगति करने और कठिनाइयों तथा अवरोधों से उबरने का अवसर इसी आधार पर मिलता है। दैनिक कर्तव्यों को जीवनचर्या के क्रिया-कलापों में सेवा-साधना का महत्वपूर्ण स्थान रहना ही चाहिए। इसके बिना किसी को भी आत्म-संतोष , जन सम्मान और प्रगति के विशिष्ट अवसरों के रूप में मिलने वाला दैवी अनुग्रह किसी को भी हस्तगत नहीं हो सकता। इसलिए अनिवार्य आवश्यकताओं में सेवा-साधना के लिए प्रयत्नरत रहने के उत्साह को सर्वत्र साहा जाता है।

मानवी गरिमा को बढ़ाने वाले परिष्कृत व्यक्तित्व संपन्न नर रत्नों का उत्पादन संसार की सब से बड़ी सेवा है। इसके लिए सर्व-प्रथम आत्मनिर्माण करना पड़ता है, ताकि उस साँचे के संपर्क में आकर अन्यान्यों को भी उपयुक्त स्तर का विनिर्मित होने वाला अवसर मिलता रहे। इस निमित्त समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी की चार कसौटियों पर अपने को निरंतर कसते रहना पड़ता है और देखना पड़ता है कि कहाँ चूक तो नहीं हो रहीं । कहीं त्रुटि तो नहीं रह गयी।

मेंहदी पीसने वाले के हाथ स्वयं ही रंग जाते हैं। इत्र बेचने वाले के कपड़े से सहज सुगंध जाने लगती है। सेवा धर्म में रुचि रखने वाले के गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता की अनायास ही अभिवृद्धि होने लगती है। इस संदर्भ में उपेक्षा करने वालों के गले में संकीर्ण स्वार्थपरता की लानत बंधती है और वे अपनी तथा दूसरों की दृष्टि में हेय बनते जाते हैं। क्रियाएँ भी उनकी बेतुकी होने लगती है। आदतों में अवाँछनीयता बढ़ती जाती है। इसी को पतन-पराभव का नाम दिया जाता है। अनगढ़ता से भरी कुसंस्कारिता भी इसी को कहते हैं।

युग दायित्वों को देखते हुए लोक सेवियों का उत्पादन प्रथम कार्य है। इसे अपने से आरंभ किया और दूसरों तक इसकी प्रेरणा देते रहा जाय। सामाजिक दृष्टि से शिक्षा को प्रथम स्थान दिया जाता है। इसके बिना व्यक्ति आत्मचेतना के बहुमूल्य पक्षों से वंचित ही रहता है। इसलिए शिक्षा संवर्धन के लिए वैयक्तिक एवं सामूहिक प्रयत्नों को निरंतर गतिशील रखा जाना चाहिए। बालकों के लिए स्कूली सुविधा हो, प्रौढ़ नर-नारियों के लिए यह कार्य प्रौढ़ शिक्षा के साधन जुटाने से संभव हो सकता है। साक्षरता प्रथम चरण है और उसका अगला कदम उपयोगी पुस्तकों के माध्यम से जीवन समस्याओं में उपयोगी मार्गदर्शन करने वाले पुस्तकों का निरंतर स्वाध्याय आवश्यक बना रहता है। इसके लिए पाठशालाओं की तरह ही सद्ज्ञान संवर्धक पुस्तकालयों की भी स्थापना होनी चाहिए। इस संदर्भ में जनसाधारण की अपेक्षा को देखते हुए ऐसा प्रबंध करना चाहिए कि हर शिक्षित को घर बैठे सत्साहित्य पढ़ने की निःशुल्क मिलता रहे और वे अपने से संबंधित निरक्षरों को भी पढ़ कर सुनाया करें। साक्षरता के उपराँत सद्ज्ञान संवर्धन का यही प्रमुख कार्य हो। यों स्वाध्याय, सत्संग के माध्यमों से भी व्यक्तित्व विकास का मार्ग प्रशस्त होता है, किन्तु सद्ज्ञान के बिना पूर्णता तक पहुँच सकना कठिन है।


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