विनाश नहीं, सतत् विकास ही एकमात्र नियति

July 1994

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विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों के बीच इन दिनों प्रायः यह विवाद छिड़ा रहता है कि वर्तमान परिस्थितियों, पर्यावरण अध्ययनों और खगोलीय से क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि सृष्टि विनाश के कगार पर है ? सूर्य की ऊर्जा चुकती चलती चली जा रही है और पृथ्वी भी अपनी आयु पूरी करती दृश्यमान हो रही है ? मानवी दुर्बुद्धि के कारण क्या यह धरती धूल में नहीं मिल जायेगी ?

इन समस्त आशंकाओं का समर्थन भौतिकी विज्ञान का प्रसिद्ध सिद्धाँत भी करता है। थर्मोडायनामिक्स के दूसरे नियम के अनुसार विश्व, व्यवस्था से अव्यवस्था की ओर निरंतर प्रवाहमान है। विराट से विराट और सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर यह नियम समान रूप से लागू है। इस दृष्टि से विचार करें, तो इन दिनों हम जिस मानसिक अराजकता के दौर से गुजर रहे हैं, वह उसका एक हिस्सा है, ऐसा माना जा सकता है। ऋषिकाल में एक समय वह था, जब समाज मानसिक दृष्टि से अत्यंत सुव्यवस्थित , सुविकसित और श्रेष्ठ था, जबकि आज चिंतन की दृष्टि से वह उतना ही निकृष्ट है। दूसरे शब्दों में कहा जाय, तो विज्ञान का यह दूसरा नियम अक्षरशः इस स्तर पर भी काम कर रहा है। तथ्य यह भी है कि मानसिक अस्थिरता ही सामाजिक विपन्नता पैदा करती है। अशाँत और अव्यवस्थित मानस सुव्यवस्था बने रहने देगा, ऐसा भी नहीं समझा जा सकता। तो क्या आज की मानसिक अराजकता विश्व-विनाश को जन्म नहीं दे देगी ? क्या हमारा भाग्य विधान इन दिनों अभागों जैसा बनता नहीं दिखाई पड़ रहा है ? भावनात्मक पतन से उत्पन्न अस्तित्व संकट को क्या टाला जा सकता संभव है।

उत्तर ताप-गति का पहला नियम देता है। उक्त नियम के अनुसार इस विश्व-ब्रह्माँड के समस्त पदार्थ और सारी ऊर्जा की मात्रा स्थिर है। दूसरी ओर विज्ञान वेत्ताओं का यह भी कहना है कि सूर्य के अन्दर जो गैसें हैं, वह सब चुकती चली जा रही हैं। हाइड्रोजन हीलियम घटती जा रही है ऐसी स्थिति में उसका अंत निकट ही माना जा रहा सकता है। वैज्ञानिकों के हिसाब से अपनी पृथ्वी की आयु पाँच अरब वर्ष है। खगोलविदों का कहना है कि बहुत पहले अपना ग्रह सूर्य का एक अंग था । बाद में वह टूट कर पृथक् हो गया। जब इस विशाल अवधि में इस ग्रह में अनेकानेक प्रकार के परिवर्तन हो गये। पहाड़ जलमग्न हो गये और जल की जगह हिमालय खड़ा हो गया, तो फिर पृथ्वी के जनक सूर्य को अपने अब तक के विशाल जीवन में खण्ड-खण्ड होकर बिखर जाना चाहिए अथवा जल कर नष्ट हो जाना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। क्यों ?

इस संबंध में विश्व उत्पत्ति संबंधी अध्यात्म अवधारणा की तनिक चर्चा कर लेना अनुचित न होगा। सृष्टि उत्पत्ति संबंधी अध्यात्म मान्यता है कि भगवान ने एक से अनेक होने की इच्छा प्रकट की और सृष्टि बनकर तैयार हो गई, चित्र विचित्र जीव और जंतु पैदा हो गये, वनस्पतियाँ पैदा हो गई। उनके जीवन धारणा करने में सहायक तत्व भी साथ ही साथ उद्भूत हुए। विज्ञान जिस सृष्टि को तत्वों के संगठन-विघटन से विनिर्मित मानता और जिनके न रहने से विनाश की संभावना प्रकट करता है, उस बारे में अध्यात्म मान्यता दूसरी है। उसका कहना है कि यहाँ सब कुछ ईश्वरीय संकल्प के कारण उत्पन्न हुआ , तत्वों के मिलन -संयोग के फलस्वरूप नहीं। यह ठीक है कि सृष्टि में भौतिक स्तर पर रासायनिक प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं, पर स्रष्टा का अद्भुत सृजन भौतिक प्रक्रिया का परिणाम है - ऐसा नहीं कहा जा सकता। अब यहाँ एक प्रश्न पैदा होता है- जिसका निर्माण भौतिक संयोग-वियोग के कारण नहीं हुआ, उसके नाश का निमित्त भौतिक कैसे हो सकता है ? जो अलौकिक आकाँक्षा का परिणाम है, उसका अंत लौकिक गतिविधियाँ कैसे कर सकती हैं ? निष्कर्ष यह निकल कर सामने आता है कि यह विश्व विनष्ट हो नहीं सकता । होता भासता लग सकता है , पर वस्तुतः ऐसा होता नहीं। इस बिंदु पर विज्ञान और अध्यात्म परस्पर सहमत होते प्रतीत होते हैं । विज्ञान के हिसाब से सृष्टि जो आदि में थी, वही अब है ( ताप-गति का पहला नियम )। परिवर्तन भले ही उसमें हो रहे हों , पर मूल तत्व अपरिवर्तनीय और अक्षुण्ण बने हुए हैं। इस स्थिति में ही पदार्थ और ऊर्जा की मात्रा स्थिर रह सकती है। अध्यात्म का भी ऐसा ही मत है। उसके अनुसार यदि संसार नाश की ओर ( व्यवस्था से अव्यवस्था की ओर ) आरंभ से ही अग्रसर हो रहा होता, तो यह सृष्टि कब की समाप्त हो गई होती , पर उत्पत्ति काल से अब तक यह बनी हुई है, यही इसकी अक्षुण्णता का सबसे बड़ा प्रमाण है। सच्चाई तो यह है कि जहाँ नाश जैसा दृश्य उपस्थित हो रहा होता है वहाँ दूसरी ओर निर्माण की संभावना भी फलवती होती रहती है। गर्भवती स्त्री गर्भकाल में बहुत भारीपन महसूस करती है, उदासी, उबकाई , अरुचि, उल्टी होती रहती है। भोजन ठीक नहीं मिलने पर दुबली भी होती दिखाई पड़ सकती है। इतने पर भी यह सच है कि वह बीमार नहीं होती, उसके रस-रक्त नष्ट नहीं हो रहे होते, वरन् नवनिर्माण की एक विशिष्ट भूमिका संपन्न कर रही होती है। वही रस - रक्त एक अभिनव सृजन के रूप में बाद में बाहर आते हैं। सूक्ष्मता पूर्वक विचारा जाय, तो ज्ञात होगा कि इसमें न तो कुछ नष्ट हुआ है, न विनिर्मित, वरन् परिवर्तन की एक क्रिया घटित हुई है। माता का रक्त एक स्थूल पिण्ड का आकार ग्रहण कर उससे अलग हो गया। जो पहले तरल और ला था, अब उसका रूपाकार कुछ और है। स्वर्णाभूषणों के निर्माण में मात्र रूप और आकार को ही गलाया-ढाला जाता है। मूल स्वर्ण तत्व तो यथावत् बने रहते हैं।

यही क्रिया विश्व -ब्रह्माँड में चलती रहती है। बज-जब, जहाँ-जहाँ निर्माण की घटना घटित होती है, वहाँ दृश्य ऐसे ही उपस्थित होते हैं। प्रत्यक्ष आँखों को ऐसा मालूम हो सकता है कि विध्वंस हो रहा है, पर यह उसका धोखा है। कोई अपने सड़े अंग को ही ढोते रहने का दुराग्रह करे तो चिकित्सक इसे कैसे स्वीकार कर सकता है। वह तो अपने हिसाब से उसे काट-छाँट कर पृथक् करेगा और रोगी को नवीन जीवन प्रदान करने का प्रयास करेगा, भले ही देखने में यह कितना ही नृशंस और क्रूरतापूर्ण क्यों न लगे, पर इतने से ही वह अपने कर्तव्य को त्याग तो नहीं देता।

ब्रह्माँड के संबंध में भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। यहाँ नाश - निर्माण जैसे दृश्य चलते रहते हैं। जीर्ण-शीर्ण मकान को ढहा कर नये निर्माण करने पड़ते हैं। पुरानी मशीनें भी कहाँ काम आती ! टूटे बर्तन, फूटे भाँड भी किसी काम के नहीं होते। उन्हें गला-जला कर अभिनव सृजन करना पड़ता है। इन सबकी देख-भाल , साज-संभाल मनुष्य को नियमित रूप से करनी पड़ती है। यंत्र के कल-पुर्जे टूट जाने पर वह उसे बदलता है। घर की दीवार कमजोर होने पर उसकी मजबूती का इंतजाम करता है। ऐसा कहाँ देखा जाता कि दीवार टूट रही और वह बेखबर सोया पड़ा हो, छत गिरने वाली हो और वह निश्चिंत बैठा हो। इसके पूर्व ही वह सतर्क होता और बरबादी से पहले सब कुछ ठीक कर लेता है।

भगवान की रीति-नीति भी ऐसी ही है। वह ‘प्वाइण्ट ऑफ नो रिटर्न’ पहुँचने से पूर्व ही कमान अपने हाथ में लेता और सब कुछ ठीक कर देता है। इन दिनों हम जिस उथल-पुथल के दौर से गुजर रहे हैं, वह वास्तव में प्रसवकाल जैसी ही प्रक्रिया है , जिसमें मनुष्यों का - विश्व का कायाकल्प जैसा बदलाव होना है। इस संबंध में एन॰ कार्टराइट अपनी पुस्तक “एन इटरनल गॉड ऐज दि काउज ऑफ दि युनिवर्स “ में लिखते हैं कि वैज्ञानिकों ने कुछ रासायनिक क्रिया प्रक्रियाओं द्वारा कुछ एक पदार्थों की रचना कर ली, तो विज्ञानविद् यह मानने लगे कि यह विश्व ऐसी ही भौतिक प्रतिक्रिया की परिणति है, जबकि सत्य यह है कि यह किसी भौतिक क्रिया का परिणाम नहीं है। यदि ऐसा माना गया, तो अनेक ऐसे प्रश्न उठ खड़े होंगे, जिनका सहज में जवाब दे पाना कठिन होगा , यथा इतने कम समय में एक अमीबा से इतने प्रकार के जटिल जीवों का उद्भव कैसे हो गया ? और फिर अमीबा, अमीबा ही बना क्यों रह गया ? वे कहते हैं कि यदि कुछ क्षण के लिए यह मान भी लिया जाय कि यह सब विकासवादी प्रक्रिया के अंग हैं , तो फिर दूसरा सवाल पैदा होगा कि इस प्रक्रिया को प्रेरित करने वाला बल कौन था ? कैसे इतने सामान्य जीव से बुद्धि को आर्श्चय में डालने वाले प्राणी प्रकट हो गये ? मनुष्य के एक-एक अंग और तंत्र का गहराई से अध्ययन करने पर जो तथ्य सामने आते हैं , उनसे तो यही स्पष्ट होता है कि बारीक इंजीनियरिंग युक्त कौशलपूर्ण संरचना का निर्माण महज संयोग का परिणाम नहीं हो सकता। इसमें किसी कुशल अभियन्ता का हाथ होना चाहिए। फिर विज्ञान भी इस बात को स्वीकारता है कि भौतिक जगत में कोई भी क्रिया बिना किसी कारण या बल के संभव नहीं। कुछ देर के लिए यदि इसे मान भी लें कि मनुष्य किसी संयोग का नतीजा है, तो तर्कवादी पुनः यह दलील दे सकते हैं कि संयोग सैंकड़ों में एकाध घटित हो सकता है, पर हर मामले में संयोग का सिद्धान्त काम करेगा-यह किसी के गले कैसे उतरे ?

ऐसे में ईश्वरीय अवधारणा को मान लेने पर सारी मुश्किलों का समाधान सरलतापूर्वक हो जाता है। यदि यह स्वीकार लिया जाय कि भगवान इस सृष्टि की सर्वोपरि सत्ता है, उसी ने इसकी संरचना सुनियोजित ढंग से की है और कुशल माली की तरह इसकी देख-रेख करता है। झाड़-झंखाड़ उग आने पर संसार रूपी उद्यान की सफाई करता उनकी उखाड़-पछाड़ करता है और गुलाब जैसे पुष्पों को आरोपण कर मलयानिल की सुगंधित बयार बहाना और उसे सुवासित बनाये रखना भी उसी का काम है तो फिर संसार के समाप्त हो जाने जैसे असमंजस की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। भला कौन माली अपने बाग को वीरान बनते देख सकता है ! यदि कभी दृश्य ऐसा दिखाई पड़े भी तो इसके पीछे उसकी कोई विशेष योजना ही समझी जानी चाहिए, जिसमें रुग्णों , बीमारों और अनुत्पादक वृक्षावलियों की जगह विशेष किस्म की उन्नत और आकर्षक पौधों को उगाने और लगाने की उसकी मंशा हो। इस मान्यता का मंडन “ क्रियेशन रिसर्च- इन्स्टीट्यूट, सैनडियागो , कैलीफोर्निया “ के एसोसियेट डायरेक्टर डूने टार्ल्वट गिश ने भी जोरदार शब्दों में किया है।

प्रत्यक्ष जितना, जो कुछ, जैसा भी दिखाई पड़े , पर यह सच है कि मनुष्य का भविष्य आकाश में चमचमाते गोले की तरह प्रकाशवान और उज्ज्वल है। आँखें जो कुछ देखती और बुद्धि जितना कुछ समझ पाती है, वह सब सर्वदा यथार्थ नहीं होते। इन दिनों दिखाई पड़ने वाली विनाश की संभावना भी मिथ्या साबित होकर रहेगी ऐसी आशा की जानी चाहिए।


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