विशेष धारावाहिक लेखमाला-16 परमपूज्य गुरुदेव पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य - जो ब्राह्मणत्व का आदर्श निभाने, इस धरित्

July 1994

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“ब्राह्मण बीज ही इस धरती पर से समाप्त हो गया है। मेरे बेटो ! तुम्हें फिर से ब्राह्मणत्व को जगाना और उसकी गरिमा का बखान कर स्वयं जीवन में उसे उतार कर जन-जन को उसे अपनाने को प्रेरित करना होगा। यदि ब्राह्मण जाग गया तो सतयुग सुनिश्चित रूप से आकर रहेगा।” ये शब्द परम पूज्य गुरुदेव ने अपनी अंतरंग गोष्ठी में अपनी वेदना व्यक्त करते हुए परिजनों के समक्ष कहे थे। आज जब मनुवादी-अम्बेडकर वादी संतानों में द्वंद्व छिड़ा है तब यह अनिवार्य हो जाता है कि जन-जन को समझाया जाय कि हर वह व्यक्ति ब्राह्मण है जिसने ब्राह्मणत्व के आदर्शों को जीवन में उतारा हो एवं जन्म से ही नहीं, कर्म से व्यक्ति ब्राह्मणत्व अर्जित करता है। इस दृष्टि से महात्मा गाँधी एवं संविधान का सृजन करने वाले श्री भाऊ साहब अम्बेडकर दोनों ही ब्राह्मण थे, यह समझने व मानने में किसी को कोई संशय नहीं होगा। तब सभी को लेगा कि परिभाषा समझे बिना एक निराधार वितंडावाद खड़ा कर दिया गया।

परम पूज्य गुरुदेव के जीवन के उत्तरार्द्ध की अवधि में 4 अप्रैल 1990 को प्रातः उनके द्वारा, अभिव्यक्त कुछ विचारों को “ ब्राह्मणत्व” के स्पष्टीकरण के संबंध में कहने का मन है। वे 5-6 परिजनों की एक कार्यकर्ता गोष्ठी में बता रहे थे कि “यह जो कलियुग दिखाई देता है, मानसिक गिरावट से आया है। मनुष्य की अधिक संग्रह करने की संचय की वृत्ति ने ही वह स्थिति पैदा की है जिससे ब्राह्मणत्व समाप्त हो प्रत्येक के अंदर का वह पशु जाग उठा है जो उसे मानसिक विकृति की ओर ले जा रहा है। आवश्यकता से अधिक संग्रह मन में विक्षोभ, परिवार में कलह तथा समाज में विग्रह पैदा करता है। कलियुग मनोविकारों का युग है एवं ये मनोविकार तभी मिटेंगे जब ब्राह्मणत्व जागेगा।

आगे ब्राह्मण की परिभाषा करते हुए पूज्यवर ने कहा कि “ ब्राह्मण सूर्य की तरह तेजस्वी होता है, प्रतिकूल परिस्थितियोँ में भी चलता रहता है। वह कहीं रुकता नहीं, कभी आवेश में नहीं आता तथा लोभ मोह पर सत्त नियंत्रण रखता है। ब्राह्मण शब्द ब्रह्मा से बना है तथा समाज का शीर्ष माना गया है। कभी यह शिखर पर था तो वैभव गौण व गुण प्रधान माने जाते थे। जलकुम्भी की तरह छा जाने वाला यहीं ब्राह्मण सतयुग लाता था। आज की परिस्थितियाँ इसलिए बिगड़ी कि ब्राह्मणत्व लुप्त हो गया। भिखारी बनकर, अपने पास संग्रह करने की वृति मन में रख उसने अपने को पदच्युत कर दिया है। उसी वर्ण को पुनः जिंदा करना होगा एवं वे लोकसेवी समुदाय में से ही उभर कर आयेंगे चाहे जन्म से वे किसी भी जाति के हों।”

न्यूनतम में निर्वाह व सारे अपने समाज को समर्पित करने की ललक जो एक ब्राह्मण में होती हैं, वह हम सब ने अपनी गुरुसत्ता के जीवन में देखी । मात्र दो जोड़ी खादी के धोती कुर्ता तथा हाथ में लिखने की एक दो रुपये लागत की कलम यही उनकी जीवन भर की जमा पूँजी थी जो अंत तक उनके पास रही । ऐसे ही व्यक्ति औरों के लिए आदर्श बनते हैं । इन पंक्तियों का लेखक आज से बीस वर्ष पूर्व मलेशिया-सिंगापुर की यात्रा पूरी कर दिल्ली हवाई अड्डे पर उतर कर सीधा शाँतिकुँज गुरुसत्ता को यह हर्ष से भरा समाचार सुनाने पहुँचा था कि वह अमेरिका जाने वाली परीक्षा में पास हो गया है। साथ में वह गुरुदेव के प्रति श्रद्धा स्वरूप कुछ देने के लिए विदेशी “जिलेट” रेजर भी ले गया था। हर्षोल्लास के साथ उसने समाचार सुनाया व उनके ऊपर वाले कक्ष में 3-4 संभ्राँत व्यक्तियों समक्ष वह भेंट उन्हें व्यक्तिगत उपयोग के लिए दी। बड़ी रुचि के साथ वह उसका उपयोग समझते रहे, फिर बोले कि “बेटे ! हम तो ब्राह्मण हैं। हमारी यह देशी ब्लेड व रेजर की हमारे लिए काफी ठीक है। इसी से रोज दाढ़ी बनाते हैं, इसे तुम्हीं रख लो। “सामने वाले का मन दुखी होता देख उनने कहा- “अच्छा रख जाओ, पर देखो अभी-अभी एक और सज्जन में यह बैटरी वाला शेवर (स्द्धड्डक्द्गह्) दे गए हैं, अब पास होने की खुशी में तुम यह ले लो।” प्रसन्नता पूर्वक ले लिये, यह सोचकर कि चलो हमारा रेजर पूज्यवर के काम आएगा तो सही व उनके दिये उपहार का प्रयोग हम करेंगे किंतु अगले ही दिन हमने अपना दिया “गिफ्ट” जन्मदिवस का लित कराकर आ रहे एक सज्जन के हाथ में देखा तो समझ में आया कि उस फक्कड़ औघड़ दानी के पास सब कुछ होते हुए भी सबको देने का, ब्राह्मणत्व से भरा इतना बड़ा जो विशाल हृदय है, वही उसकी सिद्धि का मूल है।

भयंकर गर्मी में भी 1971-72 में कभी शाँतिकुँज में पंखे चलाने की ब्राह्मण होने का प्रमाण अपनी विरासत में मिली जायदाद जो 2000 बीघा से अधिक थी तथा परम वंदनीया माताजी के सभी जेवर बेचकर गायत्री तपोभूमि विनिर्मित करने के रूप में दिया, वहीं उनका बोया-काटा सिद्धाँत फलित होता चला गया। जितना उनने समाज के खेत में बायो-अनगिनत गुना उन्हें मिलता चला गया। प्रेम दिया तो अपार स्नेह मिला - बुद्धि समाज के लिए लगायी पायी। अनगिनत ईर्ष्यालु व्यक्तियों ने कहा कि यह अपने आपको ब्राह्मण क्यों कहते हैं - यह तो लकड़ी की राजगीरी का काम करने वाले बढ़ई हैं, ब्राह्मण नहीं। न जाने कहाँ-कहाँ किन-किन रूपों में इसका प्रचार हुआ पर उनने एक ही बात कही कि चलो हमें बढ़ई ही मान लो पर हमारे जीवन को जो पारदर्शी आइने की तरह है, देखकर-कर्म से हमें ब्राह्मण मानते हुए स्वयं को खराद पर चढ़ाने की तैयारी तो कर लो। यदि जन साधारण इस तथ्य के आश्वस्त न होता तो इस ब्राह्मण के पीछे करोड़ों समर्पित व्यक्तियों की सेना आज न होती। गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है, उस तथ्य का उनने जीवन भर-हर क्षण मनन किया - हृदयंगम किया व उसे अपनी करनी में उतारा प्रतिफल गायत्री परिवार के रूप में देखा जा सकता है।

विगत दिनों 16 अश्वमेध यज्ञ संपन्न हो चुके हैं। देव संस्कृति दिग्विजय के इस पावन अभियान में, संभव है कुछ समीक्षकों को इस विराट परिवार के वैभव के भी दर्शन हुए हों। उन्हें लगा हो कि अपनी शक्ति का प्रदर्शन यह संस्था करना चाहती है। उनके लिए हमारे पास एक ही उत्तर है। अगले दिनों राजकोट, बुलन्दशहर, हल्दीघाटी, जबलपुर, कोटा व इन्दौर के भी अश्वमेध यज्ञ संपन्न होंगे। वे उसमें भी सम्मिलित होकर देख लें। सेवाधर्म को सदुपयोग जिस गुरुसत्ता ने अपने शिष्यों को सिखाया है, उससे कहीं भी एक कदम पीछे हटकर काम न किया गया है, न किया जा सकेगा। यदि कोई कार्यकर्ता दुरुपयोग करता है, तथा अपने गुरु ही शान पर बट्टा लगाता है तो वह जनता के न्यायालय में खड़ा है। जनता न्याय करे एवं तथ्यों-प्रमाणों सहित उसका वास्तविक रूप सबके सामने प्रस्तुत करें। तभी तो हम गुरुसत्ता के क्रिया कलापोँ के वास्तविक निर्वाहकर्ता कहलायेंगे। पूज्यवर ने अपनी इस संस्था के कानूनी रख रखाव, खर्च की व्यवस्था आदि को जितना प्रमाणिक स्तर का बनाया है, उसमें किसी को गुजारिश ही नहीं है कि कोई पब्लिक ट्रस्ट-जनता के धन के साथ कोई हेरा−फेरी कर सके। यही इस मिशन का मूल प्रमाण है।

जुगल किशोर बिड़ला जो बिड़ला साम्राज्य के जनक कहे जाते हैं, ने बीस लाख रुपये प्रतिवर्ष गायत्री तपोभूमि के कार्य विस्तार के निमित्त देने रहने की पेशकश पूज्यवर से की थी व कहा था कि “आप घर-घर जाकर माँगना बन्द कर दें। यह आपका दस पैसे व एक मुट्ठी अन्न प्रतिदिन तथा एक घंटा समय देने वाली बात मेरी समझ में नहीं आती। क्यों नहीं। आप भारतीय संस्कृति के विस्तार के इस कार्य को त्वरित गति से करें व पैसा हमसे लेते रहें।” पूज्यवर ने कहा कि “यह जो धन हम जनता से लाते हैं, उसमें सबकी भागीदारी है। अच्छा आप बतायें। आपको धन कहाँ से मिलता है, जो आप हमें देंगे ?” वे बोले- “पण्डित जी ! भगवान देता है, वहीं हम आपको दे देंगे।” तो प्रत्युत्पन्नमति पूज्यवर ने विनम्रभाव से कहा कि” सेठ जी। भगवान आपको दे व हम आपसे लें, इससे तो अच्छा हम ही सीधे भगवान से माँग लें। लंबे रास्ते से तो यह शार्टकट ठीक है। हमारी भगवान जी से सीधी दोस्ती भी है। आप बुरा न मानो। हम इस मिशन को एक अद्वितीय मिशन मानते हैं जिसमें देव संस्कृति के निमित्त समय व धन का नियोजन करने वाले करोड़ों व्यक्तियों को अगले दिनों लाना हैं। इनमें गरीब अधिक होंगे व धनी कम। हम आध्यात्मिक समता का जमाना लाना चाहते हैं व उसमें कुछ लोगों के अधिक पैसों की नहीं, अधिक लोगों के कुछ पैसों की जरूरत मात्र से ही इसके उद्देश्य पूरे हो जायेंगे।” सेठ श्री जुगलकिशोर बिड़ला श्रद्धावनत हो गए व बोले-”मैंने आज पहली बार सही अर्थों में ब्राह्मण को देखा है। आपको मेरा शत-शत नमन।

परिजन स्वयं मूल्याँकन करें कि कितनी पुख्ता नींव लेकर यह मिशन खड़ा हुआ। यहाँ वाह्य बड़प्पन का नहीं, आँतरिक महानता का अधिक महत्व हैं ; दृश्य वैभव का नहीं सद्गुणों की संपत्ति - यज्ञीय जीवन जी कर देने की वृत्ति को अधिमान प्राप्त हैं। ऐसी स्थिति में सतयुग आने तक उस ब्राह्मण अपनी गुरुसत्ता के चरणों में हम सबकी भाव भरी श्रद्धाँजलि व पुष्प सुमन अर्पित हैं।


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