आत्म-कल्याण के मार्ग में इंद्रियों की प्रबलता को प्रमुख शत्रु माना है। इंद्रियों से प्राप्त होने वाले सुखों के प्रति राग और द्वेष मिलकर मनुष्य को दिग्भ्राँत करते रहते हैं। यही कारण है कि वाह्य-जीवन की नश्वरता को स्वीकार करते हुए भी वह आत्मा के उद्धार की बात तक नहीं सोच पाता है। शास्त्रों में इस विषय में अधिक जोर दिया गया कि मनुष्य शरीर रहते हुये अपने स्वरूप का ज्ञान कर लेना चाहिये अन्यथा पुनः युग युगांतरों तक अनेकों घृणित योनियों में विचरण करना पड़ता है तब तक कहीं दुबारा मानव -शरीर प्राप्त करने का संयोग मिलता है। इस दुर्लभ संयोग को यों ही बरबाद कर देना बुद्धिमानी की बात नहीं है।
अग्नि के तेजस्वी स्वरूप को देखने के लिए ऊपर की सारी राख हटानी पड़ती है। अंधकार फैल रहा हो तो किसी भी वस्तु का साफ-साफ स्वरूप नहीं दिखाई पड़ता। उसी प्रकार अंतःकरण के मल, विक्षेप बने रहें तो आत्म-ज्ञान प्राप्त करना संभव न होगा। मानसिक चंचलता और आँतरिक मलिनता का उदय इंद्रियों के असंयम से होता है। इसलिए गीताकार ने लिखा है --
इन्द्रियस्येन्द्रियस्याथें रागद्वेषौ। तयोर्न वशमागच्छेतौहास्य परिवन्थिनौ॥
अर्थात्-- मनुष्य को चाहिये कि इंद्रियों के अर्थ व उनमें सन्निहित जो राग और द्वेष हैं उन दोनों के वश में नहीं होवे, क्योंकि आत्म - कल्याण के मार्ग में विघ्न करते वाले ये दोनों ही प्रबल शत्रु हैं।
जिन इन्द्रियों को आत्म-विकास की रुकावट मानते हैं यथार्थ में हमारे आत्म-कल्याण का कारण भी वही हैं। शत्रु के रूप में तो वे अपने बहिर्मुखी स्वभाव के कारण परिलक्षित होती हैं। जब तक इनका उपयोग बाह्य-जीवन के सुखोपभोग में करते हैं तब तक वह शत्रु है , किन्तु जैसे ही इन्हें आत्म-ज्ञान व आत्म-विकास की ओर मोड़ देते हैं इनके सत्परिणाम भी दिखाई पड़ने लगते हैं। परेशानी तभी तक रहती है जब तक ये अपने अर्थों में पूर्ण स्वच्छंद होती हैं। सदुपयोग करने लगें तो इन्हीं से महत्वपूर्ण आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि इनकी स्वतंत्र विचरण की बहिर्मुखी प्रवृत्ति पर अंकुश बनाये रहें। किसी घोड़े की बेलगाम छोड़ दें तो वह अपने सवार को खड्डे में गिरा कर ही रहेगा। सवार की सुरक्षा सदैव इस बात पर निर्भर रहती है कि वह घोड़े के नियंत्रण को ढीला न करे। इससे जिस दिशा में जितनी दूर जाता चाहेंगे वही घोड़ा सुरक्षा-पूर्वक आपको पहुँचा देगा। जिह्वा-इन्द्रिय को ही लीजिये। भाँति-भाँति के स्वाद युक्त व्यंजनों की उसे सदैव लालसा बनी रहती है। चटोरेपन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण वह स्वास्थ्य को बरबाद करती है। जिह्वा का उपयोग वस्तुतः इसलिए है कि उससे खाद्य या अखाद्य की पहिचान करते रहें। अधिक कड़ुवा खा लेने पर जीभ छटपटाने लगती हे यह उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति है कि वह अखाद्य है , उदरस्थ कर जाने का दुष्परिणाम तो बाद में मिलेगा। पाचन संस्थान की खराबी से होने वाले दुष्परिणाम से बचाने के लिए ही जीभ की तड़फड़ाहट उठी थी। किन्तु इसका लाभ तभी है जब हम खाद्य और अखाद्य के भेद को स्वीकार करें, उस पर नियंत्रण करें।
आँखों का कार्य है सौंदर्य-दर्शन । आत्मा के उद्गम परमात्मा के सौंदर्य को अन्यतम कहा जाता है। उस आँतरिक सौंदर्य के साक्षात्कार की लालसा स्वाभाविक है। हर किसी को सुन्दर वस्तुयें देखने की इच्छा बनी रहती है। किन्तु अधिकाँश होता यह है कि लोग वाह्य रूप रंग, चमक-दमक को ही सौंदर्य मानते हैं।
बात यहीं तक रहती तब भी गनीमत थी किन्तु स्वार्थपूर्ण और वासनात्मक दृष्टिकोण के द्वारा लोग आँतरिक सौंदर्य पर पर्दा डाल देते हैं। विराट का सौंदर्य इतना अभूतपूर्व और आह्लादमय है कि एक बार उसकी अनुभूति कर पायें तो आँखें सदैव उसे पाने के लिए ही तरसती रहेंगी। इसी दृष्टिकोण से इनकी उपयोगिता भी है।
इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब विधिवत, वैज्ञानिक तथ्य पर सन्निहित है। इस विज्ञान को समझने के लिये इन्द्रियों के विषय-विकारों से विज्ञान की ओर उन्मुख नहीं हो सकता। उसकी सारी चेष्टायें इन्हीं कुत्सित, घृणित, अदूरदर्शी, क्षणिक सुखोपभोग के के आसपास ही चक्कर लगाया करती है। फलतः विराट के साथ आत्मीयता स्थापित करने की कभी भावना तक नहीं बन पाती। तुलसी दास जी ने मानस में लिखा है -
इन्द्रिय द्वार झरोखा नाना, तहँ-तहँ सुर बैठे करि थाना।
आवत देखहिं विषय बयारी, ते हठि देहिं कपाट उधारी।
जब सो प्रभंजन उन गृह जाई, तबहि दीप विज्ञान बुझाई ।
इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सोहाई , विषय भोग पर प्रीति सदाई।
अर्थात्-- अनियंत्रित इन्द्रियाँ बलात् विषयों की ओर ले जाती हैं। ज्ञान-विज्ञान की बातें तो यों ही रखी रह जाती हैं। विषयों में राग और द्वेषों में स्वच्छंद विचरण करती हुई इन्द्रियों पर विचार व विवेक द्वारा ही नियंत्रण रखा जा सकता है। भोग से कभी तृप्ति नहीं होती , इससे मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य से भटककर दुःख क्लेश तथा त्रासदायक परिस्थितियों में जा फँसता है। इस विचार को गहराई तक अपने अंतःकरण में प्रवेश कर लेने से और इस पर निरंतर चिंतन मनन करते रहने से भोग के दुर्भाग्य पूर्ण परिणाम दिखाई दे जाते हैं। धीरे-धीरे इनसे घृणा उत्पन्न होने लगती है।
इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि इन्द्रियाँ आपके वश में आ गयीं। जब कभी अनुकूल परिस्थिति बन जाती है तो इनमें प्रबल उत्तेजना उठे बिना नहीं रह पाती। ऐसी अवस्था में सारी विचार-शक्ति लड़खड़ा जाती है और एक आवेश के साथ लोग बुरे कर्मों की ओर बलात् खिंचे चले जाते हैं। यह परिस्थिति विचारों की क्षीण शक्ति के कारण उपस्थित होती है, इसलिए अपने प्रत्येक विचार को एक संकल्प का रूप दे देना चाहिए। इसी से इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखा जा सकता है।
अपनी आँतरिक निर्मलता बनाये रखने से इन्द्रियाँ अपने आप संयमित होने लगती है। इस व्यवस्था का आधार सदाचरण है द्वेष घृणा, ईर्ष्या, क्रोध आदि से ही अंतःकरण मलिन व अपवित्र बनता है। अपनी भावनाओं में प्रेम, स्नेह, आत्मीयता , सौजन्य और सहानुभूति के बाहुल्य से ही आँतरिक श्रेष्ठता स्थिर रहती है जब तक ऐसी स्थिति बनी रहती है तब तक दूषित विकार उत्पन्न नहीं होते और इन्द्रियाँ नियंत्रित बनी रहती हैं।
अपनी आँतरिक निर्मलता बनाये रखने से इन्द्रियाँ अपने आप संयमित होने लगती है। इस व्यवस्था का आधार सदाचरण है द्वेष घृणा, ईर्ष्या, क्रोध आदि से ही अंतःकरण मलिन व अपवित्र बनता है। अपनी भावनाओं में प्रेम, स्नेह, आत्मीयता , सौजन्य और सहानुभूति के बाहुल्य से ही आँतरिक श्रेष्ठता स्थिर रहती है जब तक ऐसी स्थिति बनी रहती है तब तक दूषित विकार उत्पन्न नहीं होते और इन्द्रियाँ नियंत्रित बनी रहती हैं।