पंचतत्वों की इस काया को नीरोग ऐसे रखें

July 1994

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यह सृष्टि पंचतत्वों से बनी हुई है। प्राणियों के शरीर भी इन तत्वों के ही बने हुए हैं। मिट्टी , पानी, हवा, अग्नि और आकाश-इन पाँच तत्वों का ही सब कुछ संप्रसार है। जितनी वस्तुएँ दृष्टिगोचर होती हैं या इंद्रियों द्वारा अनुभव में आती हैं, उन सबकी उत्पत्ति पंच तत्वों द्वारा हुई है। वस्तुओं का परिवर्तन, उत्पत्ति, विकास तथा विनाश इन तत्वों की मात्रा में परिवर्तन आने से ही होता है। शारीरिक अस्वस्थता भी इन्हीं के असंतुलन के कारण उत्पन्न होती है। यदि इस असंतुलन को बराबर संतुलित बनाये रखा जाय, तो शरीर स्वस्थ और नीरोग बना रहता है।

शरीर ही नहीं, सृष्टि के जिस भी हिस्से में उक्त तत्वों के अनुपात में व्यतिरेक पैदा होता है, वहीं उस तत्व की प्रकृति की प्रधानता स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगती है। ध्रुव प्रदेशों में शीत की अधिकता है, वहाँ बर्फ जमी रहती है, वनस्पतियाँ नहीं उगती, कुछ गिने-चुने शीत प्रकृति के जीव ही वहाँ रहते हैं। इस विचित्रता का कारण प्रदेश में अग्नि तत्व की कमी होना है। दक्षिण अफ्रीका और दक्षिणी अमरीका में अत्यंत गर्मी पड़ती है। उन क्षेत्रों में पृथ्वी तवे के समान जलती है, दिशाएँ आग उगलती रहती हैं, सूर्य की प्रचंड किरणें सरस चीजों की सरसता नष्ट करके उन्हें अपनी ज्वाला में भूनती रहती हैं। यह प्रदेश भी अपने ढंग के निराले हैं। ध्रुव देश तथा विषवत् रेखा के समीपवर्ती प्रदेशों में जो असाधारण अंतर है, उसका कारण अग्नि तत्व की न्यूनता और अधिकता है। अस्व में आने वाले तूफान वहाँ वायु तत्व की अधिकता प्रकट करते हैं। आसाम एवं पूर्वी द्वीप समूहों में वर्षा की सघनता जल तत्व की प्रधानता का सूचक है। घने जंगल, दलदल, चित्र-विचित्र पौधे और जीव-जन्तु, खनिज पदार्थ आदि विभिन्नताओं का कारण उन स्थानों को तात्विक न्यूनाधिकता ही है।

सर्वविदित है कि जलवायु का स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। शीत प्रधान योरोपीय लोगों का रंग, रूप, कद, स्वास्थ्य, अफ्रीका निवासियों के रंग, रूप और स्वास्थ्य से सर्वथा भिन्न होता है। पंजाबी, कश्मीरी, बंगाली और मद्रासी लोगों के शरीर एवं स्वास्थ्य की भिन्नता प्रत्यक्ष है। यह जलवायु का अंतर है। किन्हीं स्थानों में मलेरिया, काली खाँसी, पीला बुखार, पेचिश, चर्मरोग, फीलपाँव, कुष्ठ आदि रोगों की बाढ़-सी रहती है और किन्हीं स्थानों का जलवायु ऐसा होता है कि वहाँ जाने पर तपेदिक जैसे कष्टसाध्य और असाध्य रोग भी अच्छे हो जाते हैं। यही बात पशुओं के संबंध में है। हिसार की गाय और निजामाबाद की गाय में जमीन-आसमान जितना अंतर देखा जाता है। यही प्रभाव खाद्य पदार्थों पर पड़ता है।

गेहूं, चावल, दूध, घी, चाय, शाक−भाजी, औषधि, वनस्पति आदि के गुण और स्वाद में प्रादेशिक अंतर के हिसाब से फर्क पड़ता है। प्रादेशिक अंतरों का कारण उन स्थानों में तत्वों की मात्रा की न्यूनता एवं अधिकता ही है।

यह तो स्थान और वातावरण में तत्वों की न्यूनाधिकता से उपजी भिन्नता की चर्चा हुई। ऐसी ही भिन्नता शारीरिक ढाँचे, स्वभाव और स्वास्थ्य में तब पड़ते देखी जाती है, जब शरीर में इनमें से कोई तत्व घट-बढ़ जाता है। ऋतुओं के प्रभाव के कारण स्वास्थ्य में लगने वाले झटकों का अस्तित्व भी इसी बात पर अवलंबित है। किसी को कोई और किसी के लिए एक वस्तु रुचिकर एवं हितकर होती है, तो किसी के लिए कोई दूसरी । यह बातें प्रकट करती हैं कि इन मनुष्यों में तत्वों की मात्रा में भिन्नता है। उष्ण प्रकृति वाला व्यक्ति यदि गरम तासीर वाली चीज खा ले, तो उसकी तबियत गड़बड़ाने लगती है। इसी प्रकार शीत प्रकृति वाला मनुष्य कोई ठंडी तासीर वाला खाद्य खा ले तो उसे सर्दी-जुकाम पकड़ लेता है इससे भी यही सिद्ध होता है कि हर व्यक्ति में स्थान और संरचना-भेद के हिसाब से तत्वों का अनुपात अलग-अलग होता है।

रोगी होना और नीरोग रहना-यह सब तत्वों की स्थिति पर निर्भर है। आहार-विहार की असावधानी के कारण तत्वों का नियत परिमाण घट-बढ़ जाता है, फलस्वरूप बीमारी खड़ी हो जाती है। वायु की मात्रा में अंतर आ जाने से गठिया , लकवा, दर्द, कंप, अकड़न , गुल्म, नाड़ी विक्षेप आदि उत्पात खड़े होते हैं। अग्नि तत्व के विकार से फोड़े, श्वाँस, उपदंश, पीलिया आदि बढ़ते हैं। जल तत्व की गड़बड़ी से जलोद्धर पेचिश, संग्रहणी, बहुमूत्र , प्रमेह, प्रदर , जुकाम, खाँसी जैसे रोग पैदा होते हैं। पृथ्वी तत्व बढ़ जाने से फीलपाँव, तिल्ली, जिगर , रसौली, मेदवृद्धि, मोटापा आदि व्याधियाँ उत्पन्न होती है। आकाश तत्व के असंतुलन से मूर्च्छा, मिर्गी, उन्माद, पागलपन, सनक, अनिद्रा, भ्रम, घबराहट, दुःस्वप्न, गूँगापन, बहरापन, विस्मृति आदि बीमारियों का आक्रमण होता है। दो, तीन या पाँचों तत्वों के मिश्रित विकारों से विकारों की मात्रा के अनुसार एक या अधिक रोग हो सकते हैं।

इसी प्रकार इन तत्वों की मात्रा कम हो जाय, तो दूसरे प्रकार के उपद्रव खड़े हो जाते हैं। अग्नि तत्व की कमी से शीत, जुकाम, नपुँसकता, गठिया, मंदाग्नि, शिथिलता, जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं। ऐसे ही अन्य तत्वों की कमी हो जाना, बढ़ जाना अथवा विकृत हो जाना रोगों का हेतु बन जाता है। शरीर पंचतत्वों का बना है। यदि सब तत्व अपनी नियत मात्रा यथोचित रूप से रहें, तो बीमारियों का कोई कारण नहीं रहता। जैसे ही इनके उचित अनुपात में अंतर आता है, वैसे ही रोगों का उद्भव होने लगता है। रसोई का स्वादिष्ट और लाभदायक होना इस बात पर निर्भर है कि उसमें पड़ने वाली चीजें नियत मात्रा में हों। चावल,दलिया,दाल,हलुआ,रोटी आदि में यदि अग्नि ज्यादा या कम लगे पानी ज्यादा या कम पड़ जाय-नमक, चीनी,घी आदि की मात्रा बहुत कम या बहुत अधिक हो जाय तो उस भोजन का स्वाद, गुण और रूप बिगड़ जाता है। यही दशा शरीर की है। तत्वों के परिमाण में गड़बड़ी पड़ जाने से खराबी आ जाती है।

इस खराबी से बचने के लिए दैनिक कार्यक्रम इस प्रकार का रखा जाना चाहिए कि सभी तत्व आवश्यक मात्रा में उचित रूप से प्राप्त होते रहें। इस विधा के निष्णातों ने इसके लिए कुछ ऐसे उपाय सुझाये है, जिसके द्वारा तत्वों को उचित परिमाण में प्राप्त करके स्वस्थ रहा जा सकता है।

पृथ्वी तत्व को ग्रहण करने के लिए प्रतिदिन प्रातः काल किसी पार्क, मैदान, उद्यान, खेत अथवा अन्य किसी स्वस्थ स्थान पर नंगे पाँव कम-से-कम आधा घण्टा नित्य टहलना चाहिए। इससे पैरों द्वारा शरीर का संचित विजातीय द्रव्य खिंचकर जमीन में चला जाता है और घास की तरावट से पैर ठंडे होते हैं। यह ठंडक मस्तिष्क तक पहुँच कर उसे शीतल बनाये रखती है। इसके अतिरिक्त ब्रह्ममुहूर्त में पृथ्वी से निकलते वाली स्वास्थ्यकारी भाप को शरीर सोखता रहता है। इसलिए प्रातः काल का भ्रमण अत्यधिक लाभकारी माना गया है। परिभ्रमण के समय यदि यह भावना भी होती रहे कि “ पृथ्वी की जीवनीशक्ति पैरों द्वारा अवशोषित होकर संपूर्ण शरीर में व्याप्त हो रही है और समस्त शरीर का विष खींचकर धरती माता हमें निर्मल और स्वस्थ बनी रही है, “ तो लाभ और भी चमत्कारी मिलता दिखाई पड़ेगा। सप्ताह में एक-दो बार मृतिका-स्नान भी लाभकारी होता है।

नित्य स्वच्छ और ताजे पानी से स्नान करना चाहिए। जिस प्रकार पानी पड़ते ही मुरझाई वनस्पतियाँ हरी हो जाती है, वैसे ही दैनिक स्नान से स्फूर्ति, चैतन्यता और सजीवता शरीर को मिलती है, शरीर शीतल, मन प्रफुल्लित और अंग साफ बने रहते हैं। स्नान का उद्देश्य सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, वरन् जल में घुले आवश्यक तत्वों को सोखना भी है।

प्रातः शौच जाने से पूर्व एक गिलास पानी पी लिया जाय, तो मल साफ होता है। कुल्ला एवं गरारे से मुख और गले की शुद्धि होती है। नाक से पानी खींचने से मस्तिष्क ठंडा रहता है। एनीमा लेने से पेट साफ रहता है।

पानी प्रायः हर घंटे एक-से-दो कप पीना चाहिए, अन्यथा इसकी कमी से कोष्ठबद्धता जैसी शिकायत पैदा हो सकती है। पीते समय पानी को घूँट-घूँट पीना चाहिए, ताकि उसमें आवश्यक लार मिलती रहे, साथ ही यह भावना भी करनी चाहिए कि “ इस अमृत तुल्य जल में जो शीतलता, मधुरता और शक्ति भरी हुई है, वह शरीर के कण-कण में, रोम-रोम में व्याप्त हो रही है “। भावना जितनी प्रबल होगी, फायदा उतना ही अधिक होगा।

अग्नि तत्व को ग्रहण करने के लिए धूप स्नान सबसे बढ़िया माध्यम है। प्रातःकालीन सूर्य के समक्ष प्रतिदिन आधे से लेकर एक घंटे तक नंगे बदन बैठना चाहिए और बारी-बारी से प्रत्येक अंग को सूर्य की ओर करके धूप सेंकना चाहिए। इससे आवश्यक विटामिन और तत्व शरीर के सभी अवयवों को समान रूप से मिलते हैं। सूर्य स्नान करते समय भाव यह होना चाहिए कि “ सूर्य भगवान का तेज हमारे अंग-अवयवों में प्रवेश कर उन्हें स्वस्थ, सतेज और प्रफुल्लित बना रहा है।”

सवेरे शुद्ध वायु में घूमने से इस तत्व की पूर्ति होती रहती है। टहलते समय गहरी साँस नाक से ली और छोड़ी जानी चाहिए, ताकि संपूर्ण फेफड़ों में उसका प्रवेश हो सके। साँस अंदर खींचते समय यह भाव होना चाहिए कि ब्रह्माँड में जो स्वास्थ्यकारी प्राण है, वह साँस के साथ भीतर जा रहा है। फिर उसे यथासंभव रोकना चाहिए। इस समय प्राण के रोम-रोम में समाने और शरीर-मन के स्वस्थ, सुन्दर, ओजस्वी एवं तेजस्वी होने का ध्यान करना चाहिए। साँस छोड़ते समय दोष-दुर्गुणों को निकाल-बाहर करने का भाव होना चाहिए। हवन द्वारा वायुभूत औषधियों को ग्रहण करना भी स्वास्थ्य के लिए हर दृष्टि से उत्तम है।

आकाश तत्व की शक्ति शब्द में निहित है। इस शब्द शक्ति को खींचना ही आकाश तत्व को प्राप्त करना हुआ। इसके लिए एकाँत स्थान में किसी नरम बिछौने पर शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दिया जाता है। फिर नेत्रों को बंद करके नीले आकाश का ध्यान किया जाता है और भाव किया जाता है कि निखिल नील आकाश में फैले सद्विचार , सद्विश्वास, सत्प्रभाव चारों ओर से एकत्रित होकर शरीर में विद्युत कणों की भाँति प्रवेश कर रहे हैं। उनके प्रभाव से अंतःकरण दया, प्रेम, परोपकार, कर्तव्य-परायणता, सेवा सदाचार साहस, उत्साह, प्रसन्नता से ओत-प्रोत हो रहा है। श्रद्धा और तत्परतापूर्वक की गई आकाश तत्व की यह साधना अत्यंत विस्मयकारी सिद्ध होती है। इस अभ्यास के फलस्वरूप अनेक सिद्ध महात्माओं, अवतारों तथा देवताओं की शक्तियाँ साधक पर अपना असर डालती और अंतराल को श्रेष्ठता से भरती रहती है। सद्विचारों से ही शरीर-मन स्वस्थ रहता है, यह एक सुनिश्चित तथ्य है।

जिस कारण से कोई विकार पैदा हुआ हो उस कारण को दूर करने से वह विकार भी दूर हो जाता है। काँटा लग जाने से दर्द भी बंद हो जाता है। मशीन में तेल न होने के कारण वह भारी चल रही हो और आवाज कर रही हो, तो उसके कल-पुर्जों में तेल डाल देने से वह खराबी दूर हो जाती है। यही बात स्वास्थ्य-सुधार के बारे में भी है। जिस तत्व की न्यूनता, अधिकता से वह गड़बड़ी पैदा हो, उसे सुधार देने से सारा संकट टल जाता है। हमारा यह शरीर पंचभौतिक है। इन पाँच तत्वों में असंतुलन से ही तरह-तरह के विकार और व्याधि पैदा होते हैं। असंतुलन को मिटाना ही स्वास्थ्य को लौटाना है।


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