धन्य-धन्यः संत समागम

July 1994

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उसका नाम मुलिक थाश्। वह व्याध था। पशु पक्षियों का ही व्याध नहीं, वह मनुष्यों का भी व्याध था। हिंसा एवं लूट-पाट की उसके व्यसन एवं व्यवसाय थे। वह इतना निर्दयी और अकरुण था कि लोग उसका नाम सुनते ही कांपने लगते थे। नित्य प्रति लोगों को लूटना और मारना उसका स्वभावगत पेशा था। इसी के आधार पर उसकी और उसके परिवार की आजीविका चलती थी।

संयोगवश एक दिन उसे कोई शिकार न मिल सका। सवेरे से शाम तक वह शिकार की घात में घूमता रहा। किंतु निराशा के सिवाय उसके हाथ कुछ न लगा। निराशा, भूख और परिवार की चिंता ने उसे इतना व्यग्र कर दिया कि वह बस्ती की ओर चल दिया। वह बस्ती से कुछ दूर स्थित एक मंदिर के समीप पहुंचा और दूर से अनुमान लगा लिया कि इस स्थान पर अर्थ सिद्धि हो सकती है। किंतु उस समय उस मंदिर में अनेक व्यक्ति मौजूद थे, इसलिये अवसर न देखकर वह रात होने तक के लिये वापस चला गया।

उस मंदिर के अधिष्ठाता एक वयोवृद्ध बाबाजी थे, नाम था सत्यजित। वे अपने सद्व्यवहार , संयम निवम, उदारता और ज्ञान के लिए उस जनपद में प्रसिद्ध थे। वे लोगों का दुःख दूर करने और उनकी सहायता करने में सदा तत्पर रहते थे। लोग उन्हें बड़ी श्रद्धा से देखते थे। दूर-दूर से लोग उनका सत्संग करने आते थे, और अन्न वस्त्र, दूध, दही और धन आदि, जो जिसके किए होता था दे जाते थे। किंतु वे पाई हुई सामग्री का अधिकाँश भाग, अतिथियों, गरीबों, यात्रियों आवश्यकताग्रस्त लोगों की सहायता में लगा देते थे। वे बड़े त्यागी और उदार प्रवृत्ति के थे।

संध्या गहरी होने लगी। बाबा ने सत्संग समाप्त करके श्रृंगार आरती की और आगंतुकों को प्रसाद देकर विदा कर दिया। वे सदा ध्यान रखाते थे कि आये हुये लोगों का ज्यादा देर न हो जाये। क्योंकि तब मार्ग में गुलिक के आक्रमण का डर हो जाता था। गुलिक व्याध-व्याघ्र से भी अधिक संघातिक है- यह बात सत्यजित अच्छी तरह जानते थे।

देवता की शयन सेवा के बाद सत्यजित मंदिर बन्द कर के अपने आसन पर बैठकर ध्यान मग्न हो गये। आज वे अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ विशेष अनुभव कर रहे थे। उनका हृदय आज कुछ अधिक आर्द्र होकर भगवान के चरणों में सन्मय हो रहा था। कारण की चिंता से निरपेक्ष वे भजन का आनंद ले रहे थे। तभी बाहर दरवाजे पर थाप लगी। वह एक बार ध्यान देकर फिर भजन में डूब गये। अबकी बार थपथपाहट के साथ एक कर्कश आवाज भी थी। दरवाजा खोलिये। “ कौन है भाई ?” बाबा ने पूछा। “ एक भूखा यात्री।” उत्तर आया। ‘ एक भूखा यात्री। मन ही मन दोहराते हुए पुजारी बाबा ने उठ कर साँकल खेल दी और कहा, “ आ जाइये अंदर आ जाइए “ आप न भी कहते तब भी मैं बाहर न खड़ा रहता “ - कहते हुये कठोर अवयव वाले उस भयानक दस्यु ने हाथ में परशु लिये हुये मंदिर में प्रवेश किया।

“ सत्यजित ने देखा और कहा- गुलिक ! हाँ ! गुलिक ही नहीं गुलिक व्याध। इस प्राँत का व्याघ्र गुलिक “- कहते हुये उसने बाबा की गर्दन पकड़कर गिरा दिया और उनकी छाती पर चढ़कर कमर से कटार निकाल ली किंतु उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पुजारी बाबा भयभीत होने के स्थान पर हँस रहे थे। उनके मुख पर किसी प्रकार की विकृति का कोई चिन्ह नहीं है। उनका मुख एक विलक्षण तेज से चमक रहा है। यह उसके लिये एक सर्वथा नया और आश्चर्यजनक दृश्य था। उसकी उठी हुई कटार नीची हो गई।

गुलिक ने प्रभावित वाणी में पूछा, “ मौत के मुख में पड़े हुये भी तुम हँस रहे हो। जिस स्थिति में लोग बिना मारे ही मर जाते हैं उस स्थिति में तुम्हारी यह निर्भयता मुझे इसका कारण जानकर ही तुम्हारी हत्या करूंगा।”

बाबा ने हँसते हुए पूछा, “ पहले तुम मुझे यह बताओ कि तुम मेरी हत्या क्यों करना चाहते हो ?” आज सवेरे से मैं और मेरा परिवार भूखा है। मुझे कहीं कोई शिकार नहीं मिला है। इसलिए आपको लूटने का निश्चय किया है। ‘ गुलिक ने अपना मंतव्य बतलाया। बाबा ने कहा, “ इसके लिए मुझे मारने और लूटने की क्या आवश्यकता है। तुम्हें जिस वस्तु की आवश्यकता हो वैसे ही ले जा सकते हो। यह द्वार तो सबके लिए सदा समान रूप से खुला हुआ है। “ बाबा ने अपनी बात कही।

गुलिक ने कहा मैं किसी का दिया हुआ नहीं लेता मैं तो अपने पराक्रम से कमाया हुआ भोजन स्वीकार करता हूँ और बिना कभी किसी की कोई वस्तु नहीं लेता, यह मेरा नियम है। अब जल्दी ही मुझे अपनी इस निर्भय हँसी का रहस्य बतलाइये, जिससे मैं अविलंब अपना काम पूरा करूं।”

“ क्या तुम्हारे माता-पिता, भाई -बन्धु जीवित हैं ? “ बाबा ने पूछा। “ नहीं, वे सब कब के मर चुके हैं। “ गुलिक ने उत्तर दिया। उनके मरने पर तूने या तेरे संबंधियों ने क्या किया ?” बाबा ने फिर पूछा। “ मरने के बाद उन्हें श्मशान ले जाया गया। चिता पर रख कर एक लुकारी से उनका मुँह झुलसाया गया और चिता में आग लगा उन्हें जला दिया गया। अंत में श्राद्ध आदि हुआ और कुटुँब के लोगों को भोज दिया गया। सबने प्रीति पूर्वक पूरी-पकवान और मिठाई खाई और परिवार को पवित्र किया। वस यही सब हुआ और किया गा। “ गुलिक ने पूरी कहानी सुना दी।”

“ सत्यजित ने मुस्कराते हुए कहा कि बस, इसी में मेरी हँसी का रहस्य छिपा हुआ है। इसी प्रकार जब तुम भी मृत्यु के अतिथि बनकर इस संसार से विदा होगे तब तुम्हें भी केवल लुकारी ही मिलेगी और तुम्हारे नाम पर लोग पूरी-पकवान आदि खायेंगे। तब तुम, पता नहीं , इस निस्सार एवं नश्वर जीवन में पाप क्यों कमा रहे हो। तुम्हारी इसी अबोधता को सोच-सोचकर मुझे हँसी आ रही है।” बाबा ने अपनी बात समाप्त कर दी।

“ सत्यजित ने मुस्कराते हुए कहा कि बस, इसी में मेरी हँसी का रहस्य छिपा हुआ है। इसी प्रकार जब तुम भी मृत्यु के अतिथि बनकर इस संसार से विदा होगे तब तुम्हें भी केवल लुकारी ही मिलेगी और तुम्हारे नाम पर लोग पूरी-पकवान आदि खायेंगे। तब तुम, पता नहीं , इस निस्सार एवं नश्वर जीवन में पाप क्यों कमा रहे हो। तुम्हारी इसी अबोधता को सोच-सोचकर मुझे हँसी आ रही है।” बाबा ने अपनी बात समाप्त कर दी।

गुलिक ने अपने सारे अस्त्र-शस्त्र नदी में बहा दिये और उसी दिन से सत्यजित के निर्देशानुसार सदाचरण में रत होकर एक संत का जीवन व्यतीत करने लगा। कुसंयोग से भी हुये एक सच्चे संत के समागम ने गुलिक जैसे दुर्दांत दानव को सच्चा मानव बनाकर अपना प्रभाव प्रमाणित कर दिया। धन्य है संत-समागम !

जीवनी शक्ति संवर्धन के निमित्त एक विलक्षण उपचार प्राण विद्या के अध्येताओं ने प्राणायाम के अनेक विधान खोजे हैं उनमें से कई तो ऐसे हैं जो स्वल्प समय में अपार शक्ति देते हैं पर वे निरापद नहीं होते, लोम विलोम प्राणायाम कुण्डलिनी साधना का ऐसा प्राणायाम है जिनमें हानि की कतई संभावना नहीं।

1 - किसी शाँत एकाँत स्थान में प्रातः काल स्थिर चित होकर बैठ जाइये। पूर्व की ओर मुख, पालथी मारकर सरल पद्मासन से बैठना, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अधखुले, घुटनों पर दोनों हाथ यह प्राण मुद्रा कह लाती है, इसी पर बैठना चाहिए।

2 - बाएँ हाथ को मोड़कर तिरछा कीजिये। उसकी हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी रखिए। दाहिना हाथ ऊपर उठाइए। अंगूठा दाहिने नथुने पर और मध्यमा तथा अनामिका उंगलियाँ बाएँ नथुने पर रखिये।

3 - बाएँ नासिका के छिद्र को मध्यमा ( बीच की ) और अनामिका ( तीसरी नंबर ) की उँगली से बदल कर लीजिये। दाहिने नथुने से धीरे-धीरे साँस खींचना आरंभ कीजिये। साँस फेफड़े तक ही सीमित न रहे, उसे नाभि तक ले जाना चाहिए और धीरे-धीरे इतनी वायु पेट में ले जानी चाहिए जिससे वह पूरी तरह फूल जाय।

4 - ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणों जैसा प्रवाह वायु में सम्मिश्रित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग-प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है।

5 - साँस को कुछ देर भीतर रोकिये। दोनों नासिका छिद्र बंद कर लीजिये और ध्यान कीजिये कि प्राण वायु द्वारा एकत्रित हुआ तेज नाभि चक्र में एकत्रित हो रहा है। नाभि स्थल में चिरकाल से प्रसुप्त पड़ा सूर्य चक्र इस आगत प्रकाशवान प्राण वायु से प्रभावित होकर प्रकाशवान् हो रहा है और उसकी चमक बढ़ती जा रही है।

6 - दाहिने नासिका छिद्र को अंगूठे से बंद कर लीजिये। बाँया खोल दीजिये। साँस को धीरे-धीरे बाँए नथुने से बाहर निकालिये और ध्यान कीजिये कि सूर्य चक्र को सुषुप्त और धुँधला बनाये रहने वाले कल्मष इस छोड़ी हुई साँस के साथ बाहर निकल रहे हैं। इन कल्मषों से मिल जाने के कारण साँस खींचते समय जो शुभ्र वर्ण तेजस्वी प्रकाश भीतर गया था वह अब मलीन हो गया और पीतवर्ण होकर साँस के साथ बाँए नथुने की इड़ा नाडी द्वारा बाहर निकल रहा है।

7 - दोनों नथुने फिर बंद कर लीजिए। फेफड़ों को बिना साँस के खाली रखिए। ध्यान कीजिए कि बाहरी प्राण बाहर रोक दिया गया है। उसका दबाव भीतर प्राण पर बिलकुल भी न रहने से वह हलका हो गया है। नाभिचक्र में जितना प्राण सूर्य पिण्ड की तरह एकत्रित था वह तेज पुँज की तरह ऊपर की ओर अग्रिम शिखाओं की तरह ऊपर उठ रहा है। उसकी लपटें पेट के ऊर्ध्व भाग, फुफ्फुस को बेधती हुई कंठ तक पहुँच रही है। भीतरी अवयवों में सुषुम्ना नाड़ी में से प्रस्फुटित हुआ यह प्राण तेज अंतः प्रदेश को प्रकाशवान बना रहा है।

8 - अंगूठा से दाहिना छिद्र बंद कीजिये और बांये नथुने से साँस खींचते हुए ध्यान कीजिये कि इड़ा नाड़ी द्वारा सूर्य प्रकाश जैसा प्राण तत्व साँस से मिल कर भीतर प्रवेश कर रहा है और वह तेज सुषुम्ना विनिर्मित नाभिस्थल के सूर्य चक्र में प्रवेश कर रहा है। इस तेज संचय से सूर्य चक्र क्रमशः अधिक तेजस्वी बनता चला जा रहा है।

9 - दोनों नासिका छिद्रों को बंद कर लीजिये। साँस को भीतर रोकिये। ध्यान कीजिये कि साँस के साथ एकत्रित किया हुआ तेजस्वी प्राण नाभि स्थित सूर्य चक्र में अपनी तेजस्विता निरंतर बढ़ रही है और वह अपनी लपटें पुनः ऊपर की ओर अग्रिम शिक्षा की तरह ऊर्ध्वगामी बना रही है। इस तेज से सुषुम्ना नाड़ी निरंतर परिपुष्ट हो रही है।

10 - बाँया नथुना बंद कीजिये और दाहिने से साँस धीरे-धीरे बाहर निकालिये। ध्यान कीजिये कि सूर्य चक्र का कल्मष धुएँ की तरह तेजस्वी साँस में मिलकर उसे धुँधला पीला कर रहा है और पीली प्राण वायु पिंगला नाड़ी द्वारा बाहर निकल रही है। भीतरी कषाय कल्मष बाहर निकलने से अंतः करण बहुत हलका हो रहा है।

11 - दोनों नासिका छिद्रों को पुनः बंद कीजिए और उपरोक्त नं0 6 की तरह फेफड़ों को साँस से बिलकुल खाली रखिए। नाभिचक्र से कंठ तक सुषुम्ना का प्रकाश पुँज ऊपर उठता देखिए। भीतर अवयवों में एक दिव्य ज्योति जगमगाती अनुभव कीजिए।

यह एक लोम विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम हुआ। साँस के साथ खींचा हुआ प्राण नाभि में स्थित सूर्य चक्र को जाग्रत करता है। उसके आलस्य और अंधकार को बेधता है और वह सूर्य चक्र अपनी परिधि को वेधन करता हुआ सुषुम्ना मार्ग से उदर, छाती और कंठ तक अपना तेज फेंकता है। इन कारणों से इसे सूर्य वेधन कहते हैं। लोम कहते हैं सीधे को, विलोम कहते हैं उलटे को। एक बार सीधा, एक बार उल्टा। फिर उल्टा फिर सीधा। फिर उल्टा फिर सीधा । फिर उल्टा फिर सीधा। बाँए से खींचना , दाँये से निकालना। दाहिने से खींचना बाँये से निकालना। यह उल्टा सीधा च रहने से इसे लोम-विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम कहा जाता है। साँस खींचने को पूरक रोकने को अंतःकुम्भक, निकालने को रेचक और बाहर साँस रोकने को वाह्यकुम्भक कहते हैं। बांये स्वर में चंद्र धारा एवं इड़ा नाड़ी और दाहिने स्वर में सूर्यधारा एवं पिंगला नाड़ी अवस्थित हैं। दोनों के मिलने के स्थान पर जो प्रकाश पुँज एवं तड़ित प्राण उत्पन्न होता है उसे सुषुम्ना कहते हैं। यह परिभाषा भी हमें स्मरण रखनी चाहिए। एक बार उलटा, एक बार सीधा। एक बार दाँए से खींचना बाँए से निकालना, एक बार बाँए से खींचकर दाँए से निकालना, यह दोनों क्रियायें मिलने से एक पूर्ण लोम-विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम बनता है। आरंभ में इन्हें तीन की संख्या से करना चाहिए। फिर हर महीने एक बढ़ाते हुए सात महीनों में इन्हें दस तक पहुँचा देना चाहिए। साँस को छोड़ने निकालने की क्रिया जितनी धीमी रखी जा सके उतनी ही अच्छी है। ध्यान रखिये कि भावना जितनी ही गहरी होगी उतना ही अधिक सत्परिणाम उत्पन्न होगा।

गायत्री का देवता सविता है। सविता सूर्य का एक जाज्वल्य मान रूप है। प्रथम कक्षा के साधकों को प्रतिमा के आधार पर ध्यान करना पड़ता है पर उसमें भी सूर्य मण्डल के मध्य में अवस्थित माता की प्रतिमा होती है। इससे ऊंची कक्षा में सूर्य के समान गोलाकार प्रकाशपुँज ही गायत्री माता का स्वरूप रह जाता है और उसी का ध्यान करते हैं। यह ध्यान करने योग्य प्रकाश पर्याप्त मात्रा में अपने अंतः प्रदेश में संव्याप्त होता है तो यह प्रकाश पुँज का ध्यान ठीक प्रकार से जमता है। इस उद्देश्य की पूर्ति इस सूर्य प्राणायाम से होती है। अपने भीतर बाहर सब कुछ प्रकाशवान दीखता है। तमोगुण रूपी अंधकार तिरोहित होने लगता है और यदा कदा आध्यात्मिक चेतनाएँ विभिन्न रंग रूप के ज्योति स्फुल्लिंगों के रूप में साधकों को परिलक्षित होती रहती है। प्रकाश दर्शन की अनुभूतियाँ आशा और उल्लास की प्रतीक मानी जाती है।

प्राण तत्व की एक उपयुक्त मात्रा इस प्राणायाम से साधकों को उपलब्ध होती है। यह मात्रा थोड़ी होते हुए भी अपनी शारीरिक , मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति में बहुत सहायक होती है। प्राण को निग्रहित करने से मनुष्य मन चाही आयु प्राप्त कर सकता है। भीष्म की तरह शरशय्या पर पड़े हुए भी छः महीनों तक मृत्यु को टाल सकता है। इच्छानुसार जब चाहे समाधि लेकर प्राण-त्याग कर सकता है। साधारण जीवन में वह एक शक्ति पुँज बिजली घर के समान सिद्ध होता है जिसकी प्रेरणा से उसका निज का जीवन ही नहीं, संबंधित वातावरण भी सुदूर देशों तक प्रभावित होता है प्राण की महत्ता असाधारण है और वैसी ही प्राणायाम की भी।


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