काश ! अंतःकरण में महनात अवतरित हो सके

July 1994

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व्यक्ति और समाज में रूपाँतरण की जब घटना घटती है, जो उसके प्रमुख माध्यम होते हैं स्वाध्याय और सत्संग। स्वाध्याय से सत्प्रेरणा मिलती है और सत्संग से सद्भावना पुष्ट होती है। जब ये आचरण में उतरते हैं, तो परिवर्तन सामने आता है एक ऐसा परिवर्तन, जो यदि सतत् प्रवाहमान रहे, तो मानव को महामानव और समाज को स्वर्ग बना देता है।

उदात्तीकरण का यह सामान्य सिद्धाँत हुआ ? सिद्धाँत और प्रक्रिया दो भिन्न बातें हैं। सिद्धाँत संभावना प्रकट करता है और उसे साकार करने की विधि प्रक्रिया है। प्रथम यदि द्वितीय में परिवर्तित न हो सके, तो थ्योरी मालूम होते हुए भी अभीष्ट की उपलब्धि किसी प्रकार संभव न हो सकेगी। पुस्तक और प्रवचन हमें रास्ता दिखाते हैं और संभावना व्यक्त करते हैं कि यदि व्यक्ति को अच्छा वातावरण मिले, तो वह उत्कृष्ट बन सकता है। सिद्धाँत मात्र है। इसे क्रिया रूप में बदले बिना परिवर्तन शक्य नहीं। जहाँ ऐसा दिखाई पड़ता है, वहाँ इसके पीछे उद्दीपन कार्य करता है। क्रिया को प्रतिक्रिया होता है, तो रूपाँतरण घटित होता है, फलस्वरूप व्यक्ति व समाज का अभिनव रूप सामने आता है।

इसी आशय का मंतव्य प्रकट करते हुए जे0 कृष्णामूर्ति कहते हैं कि श्रवण और अध्ययन आनन्ददायक तो होते हैं, पर परिवर्तन में इनकी भूमिका गणितीय सवालों को हल करने वाले सूत्रों जितनी ही होती है। सूत्र केवल संकेत मात्र होते हैं। विद्यार्थी को इनके आधार पर अपनी अकल भिड़ानी पड़ती है, तभी प्रश्न का सही उत्तर मिल पाता है। वैसे ही स्वाध्याय और सान्निध्य परिवर्तन की अनुकूलता तो उपलब्ध कराते हैं, पर इतना ही पर्याप्त नहीं है।

अंतस् की हलचल और उथल-पुथल भी अभीष्ट-आवश्यक है। जहाँ इस प्रकार की क्रियाएँ नहीं होती, वहाँ परिवर्तन की प्रतिक्रिया नहीं होती, वहाँ परिवर्तन की प्रतिक्रिया भी दृष्टिगोचर नहीं होती। एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इसे और स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि जब किसी व्यक्ति से दिन में अनेक बार अनेक लोग यह कहते हैं कि तुम बीमार जैसे लग रहे हो, तो शाम होते-होते वह निश्चित रूप से अस्वस्थ हो जाता है, कारण कि वह वाक्य उसके अंदर उद्दीपन आरम्भ कर देता है। क्रिया चल पड़ती है, तो उसकी परिणति अवस्था के रूप में तुरन्त सामने आती है। वे लिखते हैं कि स्वाध्याय और सत्संग की अच्छी बातें अप्रभावी सिर्फ इसलिए सिद्ध होती हैं कि वे अंतराल की गहराई में उतर कर उस विन्द को छू पाती, जो बदलाव उत्पन्न करती है। यदि इस संदर्भ में अध्येता और श्रोता गम्भीर बने रहें और पढ़े अथवा सुने हुए प्रसंग के प्रति इतनी संवेदन शीलता उत्पन्न कर सकें कि वे अन्दर चल कर सीधे मर्म में आघात करें, तो रूपाँतरण तत्क्षण घटित होना आरम्भ हो जायेगा, पर इन दिनों ऐसा यदा-कदा ही होता देखा जाता है अतः परिवर्तन भी कभी-कभी दृश्यमान होता है।

इसकी प्रक्रिया दो प्रकार को संपन्न होती है - एक तो संदेश के प्रति इतना आकर्षण उत्पन्न किया जाय कि वह अंतस्तल में धँस कर बदलाव को निष्पन्न कर दें। इसके दूसरे प्रकार में खिंचाव तो होता है, पर उसका चुम्बकत्व उतना प्रबल नहीं होता कि वह अवचेतन में आविर्भूत हो सके। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को चेतन स्तर पर स्वयं प्रयास आरम्भ करना पड़ता है। अपनी वासना और तृष्णाओं को बलपूर्वक दबाना और जो श्रेष्ठ व सुन्दर है, उसे विकसित करना पड़ता है। इतना कर लेने के उपराँत व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है, उसका भीतरी दैत्य मर जाता और उसकी जगह देव पैदा होता है। यही क्रांति है। इसे संपादित कर लेने वाला व्यक्ति महान और समाज गुणवान बन जाता है।

विवेकानन्द ने एक बार अपने व्याख्यान में कहा था - “युवकों ! तुम महान बनना चाहते हो, तो महानता को अपने अंदर घटित होने दो, श्रेष्ठता को अंतःकरण में प्रवेश पाने दो, हृदय कपाट को अनावृत्त रखो, ताकि इस संसार में जो कुछ उदात्त और उच्चस्तरीय है, वह तुम में आत्मसात् हो सके। याद रखो, मात्र शब्दों को श्रवण-तंत्र से होकर गुजार भर लेने से विशेष कुछ न होगा, जो हो, वह इतना ही है कि तुम कष्ट कठिनाई को भूल कर थोड़े समय के लिए शाँति के समुद्र में डूब जाओगे, पर स्वयं शाश्वत शाँति के सागर न बन सकोगे, वह गहराई व गंभीरता पैदा न हो सकेगी जो ये सलिलागार अपने में सँजोये हैं। यह मत भूलों कि आने वाली पीढ़ियों के तुम भाग्य विधाता हो, भविष्य निर्माता हो। उज्ज्वल भविष्य का निर्माण वही कर सकता है, जो आत्म निर्माण कर चुका हो। अतः इस गोष्ठी को अपने में उतर जाने दी-सिर्फ शब्दों से नहीं, वाक्यों से नहीं, वान् भार्वां व क्रियाओं से।”

सचमुच शब्द और संदेश जब तक कार्य रूप में न परिणत हो जायँ, तब तक कर्ता के लिए निरर्थक और निरुद्देश्य हैं। सार्थक वे तभी बनते हैं, जब आचरण में उतरें और दूसरों को अनुकरणीय प्रेरणा दें, अन्यथा बुद्धि विलास मात्र बन कर रह जायेंगे। बौद्धिक संपदा का अपना एक गुण है कि वह बुद्धि क्षेत्र तक ही सीमित होकर रह जाती है। उसका उपयोग इससे आगे और कुछ नहीं हो पाता। वह पढ़ने-सुनने भर की वस्तु बनाती है और उसका बौद्धिक हस्ताँतरण भर होता रहता है। किसी ने कहीं कोई अच्छी बात सुनी या पढ़ी, तो उसे वह अपनी बुद्धि में-मस्तिष्क में कैद कर लता है और दूसरों को सुनाता रहता है। फिर वह क्रिया न बन कर ज्ञान का अध्ययन का - श्रवण का-स्मरण का विषय बन जाती है। इसका ज्यादा से ज्यादा उपयोग यही हो सकता है कि उसे हम वाणी बन लेते हैं, जबकि जीवन बनना चाहिए और अच्छाई यदि जीवन न बनी, तो अच्छी बातें पढ़ने-सुनने का कोई अर्थ और उद्देश्य नहीं रह जाता। इसीलिए मूर्धन्य मनीषी गुजरिएफ कहा करते थे कि उत्तम बातों के प्रति अभिरुचि जगाओ - उत्कंठा बढ़ाओं - उन्हें सुनो और सुनाओ, पर यहीं रुक मत जाओ। इतना पर्याप्त नहीं है। यह आवश्यक तो है, क्योंकि इसके पश्चात् कुछ आर सम्भव है। किन्तु इतना काफी नहीं है। यह मात्र विचार है। इससे आगे का चरण अनुभव है। विचार से अनुभव की ओर यात्रा करके ही जानकारी को जीवन बनाया जा सकता है, उसे जिया जा सकता है। जहाँ जानकारी जीवन बन जाती है, वहीं उसी क्षण श्रेष्ठता घटित होती है और व्यक्ति का रूपांतरण हो जाता है। इन दिनों चूंकि चिंतन से अनुभूति की ओर का प्रयाण व्यक्ति में रुका हुआ, इसलिए प्रत्यक्ष में स्वाध्याय और सत्संग की नियमित दिनचर्या दिखाई पड़ने पर भी उनकी वह परिणति समाने नहीं आती, जो आनी चाहिए।

दुनिया में अच्छी बातों और विचारों का अभाव हो, सो बात नहीं। अभाव है, तो मात्र ग्रहणशील हृदय का। संग्राहक मन यदि व्यक्ति के पास हो, तो बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ी और आत्मसात की जा सकती है, किंतु जहाँ हृदयंगम की क्षमता ही न हो, वहाँ लाख प्रवचन सुनने और पारायण करने की प्रवृत्ति मनोरंजन जितना उथला प्रयोजन ही पूरा करती है। ऐसी दशा में साधारण जन अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए अनेक प्रकार के बहाने गढ़ता है तर्क यह देता है कि प्रभावशाली व्यक्तित्व के अभाव में ही सर्वसाधारण पर उसका असर नहीं पड़ सका। यह सच है कि उत्कृष्ट व्यक्तित्व का अपना पृथक प्रभाव होता है, पर अवास्तविक यह भी नहीं है कि प्रभावकारी वह वहीं साबित होता है, जहाँ मनस्विता होती है। अमनस्विता युक्त समुदाय तो उन्हें इसलिए घेरे रहता है कि वे सुन्दर-सुन्दर बातें बताते हैं, मन को शाँति पहुँचाते हैं, किंतु जहाँ बदलाव का प्रश्न आता है, चिकने घड़े बन जाते हैं। इस प्रकार लंबे समय का उनका पठन-श्रवण बेकार चला जाता है। नित्य पढ़ना और उसे भुला देना, नित्य सुनना और निकाल देना-प्रायः यही उनका स्वाभाविक क्रम होता है। इससे स्पष्ट है कि ग्रहण करने की अभीप्सा की अनुपस्थिति और ग्राह्य के प्रति अपेक्षा भाव ही वे कारण हैं, जो अच्छे उपदेश को व्यवहार में नहीं उतरने देते। इस तरह उपदेशक के अचुबंकीय व्यक्तित्व संबंधी सापेक्ष निरस्त हो जाता है। जब पशु-पक्षियों से शिक्षा ग्रहण कर दत्तात्रेय अनुपलब्ध की उपलब्धि कर सकते हैं, तो मनुष्य द्वारा बतलायी गई उत्तम बात को धारण करने में किसी को क्योँ आपत्ति होनी चाहिए ? यह समझ से परे हैं।

विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि यदि लोहा को सोना और सीसा का चाँदी बनाना हो, तो एक ही कार्य करना पड़ेगा, उनकी परमाणु संख्या को परिवर्तित करना पड़ेगा। किसी प्रकार लोहे और सीसे को क्रमशः सोने और चाँदी वाली परमाणु संख्या प्रदान की जा सके, तो उनका रूपाँतरण संभव है पर यह सब कैसे किया जाय ? इसकी प्रक्रिया उनके हाथ अभी नहीं लगी है। उन्होंने मात्र अभी सिद्धाँत दिया है, किन्तु केवल सिद्धाँत से बदलाव संभव नहीं। इसके लिए प्रक्रिया का होना निताँत आवश्यक है। व्यक्तित्व निर्माण में पुस्तक और प्रवचन की ऐसी ही भूमिका है। वे मार्गदर्शन मात्र करते हैं, उनके आधार पर पुरुषार्थ स्वयं करना पड़ता है। यह प्रक्रिया है। प्रक्रिया यदि चल पड़ें, साधारण से असाधारण बन जाना सुनिश्चित है। फिर समाज के स्वर्ग बनते देर न लगेगी।


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