कृपणता की कीच से उबरकर परमार्थ का अवलंबन

July 1994

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असमर्थ और अविकसित बालक मात्र अपनी ही आवश्यकताओं को जताते और जिस-तिस की सहायता से काम चलाते हैं, किंतु जब वे बड़े होने लगते हैं, विकासक्रम के अनुसार दूसरों का हाथ बँटाने लगते हैं। समझदारी और समर्थता साथ-साथ बढ़ती है। इस बढ़ोत्तरी को क्षुद्रता अपनी ही सीमा में समेट कर रखना चाहती है। ओछेपन का चिंतन यही कहता कि अपनी बढ़ोत्तरी का लाभ अपने तक ही सीमित क्यों न रखा जाय ? दूसरों से किसी प्रकार झटक कर अपनी ही सुविधाओं को क्यों न बढ़ाया जाय? बात जिनके गले उतर जाती है, वे मात्र स्वार्थपरता को ध्यान में रखने और उसी की पूर्ति करने में लगे रहते हैं, किंतु प्रकृति व्यवस्था और अंतरात्मा इस नीति को अपनाने पर चिक्कारती भी है और बदले में उसे महानताजन्य लाभ उठाने से वंचित ही रखती है। उदारता के अभाव में कोई दयनीय और तिरस्कृत स्थिति में रहने के लिए ही विवश रह सकता है।

बच्चा बड़ा होता है और वह परिवार के अभिभावकों के कामों में यथाशक्ति हाथ बँटाने लगता है। इसके लिए उसे कोई , अतिरिक्त वेतन-पुरस्कार नहीं मिलता कोई, दबाव भी नहीं डालता। इतने पर भी वह अपनी प्रसन्नता के लिए, गरिमा उपयोगिता बढ़ाने के लिए गृह-व्यवस्था में किसी न किसी प्रकार भागीदार बनता ही है। इसी आधार पर यह समझा जाता है कि उसकी गरिमा-उपयोगिता किस क्रम से विकसित हो रही है। वह अपने से छोटे-भाई बहनों के प्रति तो सहज उदारता अपनाये रहता है। उन्हें खिलाने-पढ़ाने में यथा संभव मदद भी करता है। न करे और अपनी ही सुविधा की बात सोचता रहे, सहयोग में अरुचि दिखाये तो उसका मूल्य परिवार के सभी सदस्यों की दृष्टि में घट जाता है। उस पर स्नेह सद्भाव नहीं बरसता, जो उदार तत्परता अपनाने पर सहज ही बरस सकता था।

किशोरावस्था को पार करके जब विवाह-बंधन में बँधता है, तो साथ-साथ उसे उदारता, सहकारिता से भरी नीति भी अपनानी पड़ती है। अपनी सुविधाओं में कमी करके भी पत्नी की सुविधा-प्रसन्नता का विशेष रूप से ध्यान रखना पड़ता है। इसके बिना निष्ठुरता के रहते दाँपत्य जीवन भी नीरस रहेगा। बदले में वह प्रतिक्रिया हस्तगत नहीं हो सकेगी जिसके लिए विवाह से पूर्व बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाई गई और सपने सँजोये गये थे। इस संसार में “ इस हाथ दे और उस हाथ ले “ की सुनिश्चित परंपरा है। जो मात्र लेते की ही बात सोचते हैं, वे दूसरों की सद्भावना गंवा बैठते हैं और उतने भर से काम चलाते हैं, जितना कि अपने प्रयत्न से एकत्रित कर लिया गया था। अन्यान्यों का सद्भाव और सहयोग पाने पर ही प्रसन्नता-प्रफुल्लता और प्रगति का सुयोग बनता है। अपनी कमाई अपने लिए ही सीमित रखने वाला विश्व की सुनिश्चित परंपरा का उल्लंघन करता है। इसलिए घाटे पर घाटा सहता चला जाता है। संकीर्ण स्वार्थपरता उलट कर नीरसता और दरिद्रता ही लाद कर चली जाती है। उस स्नेह-सहयोग का अभाव की बना रहता है, जो प्रफुल्लित और प्रगतिशील बनने के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। अनुदारों का दाँपत्य जीवन भी कर्कश ही रहता है।

आगे बढ़ने पर बच्चे उत्पन्न होते हैं। उनकी सेवा सहायता के लिए पति-पत्नी दोनों को ही अपने शौक-मौज में कटौती करनी पड़ती है। प्रौढ़ता में प्रवेश करते-करते परिवार को सुरभित-सुवासित करने की नई जिम्मेदारियाँ सिर पर आती है। उन्हें पूरी करने के लिए अधिक श्रम करने, अधिक ध्यान देने और अपने लिए मितव्ययिता बरतने की आवश्यकता पड़ती है। यदि कोई कमाऊ व्यक्ति अपनी कमाई आप ही खाता रहने लगे, तो समझना चाहिए कि अपने अधिकारों से वंचित परिवार का हर सदस्य बागी- होने लगेगा ? और (दूर के रिश्तेदार सबसे अच्छे। वे जितने निकटवर्ती होंगे, उतना ही हैरान करेंगे। ) पारिवारिक सहयोग से उत्पन्न उल्लास में भारी कमी पड़ जायेगी। यह सोच कर हर समझदारियों को ध्यान में रखते हुए अपने लिए कम-से कम खर्च करता है। कमाई को परिवार की सुव्यवस्था में ही लगाता रहता है। यह नीतिमत्ता परिवार के हर सदस्य को प्रसन्न रखती है, उनके विकास में सहायता करती है। फलस्वरूप गृह संचालक को उसका श्रेय हाथों हाथ मिलता जाता है। उदारता र्व्यथ नहीं जाती, फलवती होकर बरतने वाले के लिए ऐसे सत्परिणाम सामने लाती है, जिसके फलस्वरूप उसे संतोष सम्मान और प्रशंसा ही उपलब्ध होते रहते हैं। अपने सुविधा-साधनों में जो कटौती करनी पड़ी, उस कमी के लिए उसे अपने या अन्य किसी से शिकायत नहीं करनी पड़ती।

यह समूचा संसार एक परिवार है। यहाँ आदान और प्रदान की समन्वित नीति ही सर्वत्र चरितार्थ होती है। देने वाला ही पाता है। बोने वाला ही काटता है। उदारता बरतने के बदले श्रेय-सम्मान पाने की ही यहाँ परंपरा है। अपना वैभव मात्र अपने लिए सुरक्षित रखने वाले कुछ ही दिन में अनुभव करते हैं कि यह संचय भारभूत बन कर लदा रहा और अनेक प्रकार की विकृतियाँ, विपत्तियाँ और विसंगतियाँ उत्पन्न करता रहा।

पेड़ इसलिए उपजते, बढ़ते और फूलते-फलते हैं कि उनने अपनी उपलब्धियों को जरूरतमंदों के लिए बखेरते रहने की नीति अपनाई होती है। टहनियों पर अनेक पक्षी घोंसले बना कर सुखपूर्वक रहते हैं। पत्ते पकने पर भूमि में गिरते और अपनी जन्मदात्री भूमि की , खाद की आवश्यकता पूरी करते हैं। फूल, सुगंध, शोभा और पराग बखेरते हैं। फलों को जरूरतमंद खाते रहते हैं। इतने पर भी उनके भीतर रहने वाले बीज सुरक्षित रहते हैं और अपनी नई वंशवृद्धि करके मूल सृजनकर्ता के लिए विस्तार ही करते हैं। उस परोपकारी को घाटा कहाँ पड़ता है ?

भेड़ दूसरों को गरम कपड़े देने के लिए बार-बार ऊन कटाती रहती है। इस घाटे को पूरा करते के लिए प्रकृति दौड़ कर आगे आती है और फिर कुछ ही दिन में ऊन को उतना ही बढ़ा देती है, जितनी कि वह काटे जाने से पूर्व थी। भेड़ जीवन भर इस उदारता का परिचय देती रहती है, पर उसे इसके लिए कभी पछताना नहीं पड़ता। गड़रिया उसे प्यार पूर्वक पालता है और उसके लिए सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहता है। इसके ठीक विपरीत रीछ के बाल अधिक लंबे होने पर भी अपने उस वैभव में किसी को भी साझीदार नहीं बनने देता, फलतः उसके बाल जन्म से लेकर मरण पर्यन्त प्रायः उतने ही रहते हैं, जितने कि आरंभ में थे। कृपण, अनुदार और निष्ठुर प्रकृति वाले अपनी-अपनी स्वार्थ-संपदा के बलबूते सुविधाएँ तो तनिक ही अर्जित कर पाते हैं, पर ईर्ष्याजन्य आक्रमणों को आये दिन सहते रहते हैं। अंतः जो अनावश्यक भारभूत था वह किसी न-किसी के द्वारा छीन ही लिया जाता है भले ही वे छीनने वाले कुटुँबी हों या आक्रमणकारी-अनाचारी । जोहड़ों में जमा पानी कुछ ही दिन में सड़ और सूख जाता है, जबकि बहते रहने वाले झरने का प्रवाह सदा अक्षुण्ण रहता है। उदारता के परिपोषण करने के लिए अनेकों जल स्रोत दौड़-दौड़ कर आते हैं और उस प्रवाह में अवरोध उत्पन्न नहीं होने देते।

सूरज निरंतर भ्रमण करता और असीम परिमाण में ऊर्जा -आभा समस्त सौर-मण्डल के ग्रह-उपग्रहों को निरंतर बाँटता रहता है। उसकी संपदा सृष्टि के आदि से बनी हुई है और अंत तक बनी भी रहेगी। उसे मूर्ख कदाचित् ही कोई कहता होगा। अधिकतर तो कृतज्ञतापूर्वक उसकी अभ्यर्थना ही करते रहते हैं। अँधेरी रात में चन्द्रमा का उदय होना कितना सुखद और सुविधाजनक होता है, इसे सभी जानते हैं। छोटे तारे तक टिमटिमाकर अँधेरे में भटक सकने वाले राहगीरों का मार्गदर्शन करते हैं। उनका अस्तित्व अति कुरूप निशा को भी मणि-मुक्तकों से जगमगाती चादर ओढ़ा देती है। इस अनुदान प्रयोग में निरत रहने वाली किसी भी आभा, घटक की उदारता को कभी किसी ने घाटा देने वाली मूर्खता नहीं कहा। उदारताजन्य सेवा-साधना में कभी किसी ने घाटा उठाना भी नहीं पड़ा। कृपण ही निष्ठुरता अपनाकर लालच के वशीभूत रहता है और अपने को हर किसी की आँख में हेय सिद्ध करते हुए अपनी भूल के लिए सिर धुनते हुए विदा होते हैं। संग्रह सड़ता है इस तथ्य को कोई भी समझदार न भूले और न भूलने दे, तो ही अच्छा है। जिस बीज को गलने, अंकुरित होने और वृक्ष बनने में घाटा दीखता है, वह उस साहस को अपनाये बिना भी कुछ समय छिपते-बचते काट तो सकता है, पर उस प्रकृतिक्रम को कोई क्या करे, जो कृपण को रौंद कर खाद बनाने और कीड़े-मकोड़ों का आहार बनाने के लिए अपनी निर्धारित प्रक्रिया को आदिकाल से विनिर्मित-निर्धारित किये हुए है।

मनुष्य की संरचना इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए की गई है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के उपराँत भी संपदा, क्षमता को अतिरिक्त मात्रा में उपार्जित कर सके। इस बचत वाली परिस्थिति का एक ही उपयोग है कि वह संव्याप्त अभावों और अनाचारों को संतुलित करने में अपने अतिरिक्त उपार्जन को खपाता रहे। इसमें उसका अपना लाभ उससे अधिक है, जितना कि दूसरों का हित साधन करते हुए देखा जाता है। दूसरों के लिए मेंहदी पीसने वाले के हाथ अनायास ही (कुछ लोगों के मनोरंजन का एक ही तरीका है कि उनकी बातों को सुनते रहा जाय। ) रच जाते हैं। इत्र का व्यवसाय करने वालों के कपड़े और कमरे अनायास ही महकते रहते हैं।

मानवी प्रगति का इतिहास जिस प्रगतिशीलता से भरा-पूरा है, वह उसकी बुद्धिमता या प्रयत्नशीलता का ही परिणाम नहीं है। वस्तुतः उसके पीछे बड़ा भाग उदार सहकारिता का है। एक की अनुभवशीलता और उपलब्धियाँ दूसरों को हस्ताँतरित होती रही है और उनसे चक्रवृद्धि ब्याज दर ने बढ़ कर विश्व वैभव की संरचना की है और मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि बन सकने का श्रेय दिया है। सेवा सहकारिता और उदारता का प्रचलन यदि इस संसार से उठ गया होता, तो मनुष्य भी अन्य प्राणियों की तरह वनमानुषों जैसा जीवन यापन कर रहा होता।

कहीं दुर्घटना, विपत्ति या संकट की घड़ी आ धमकने पर मानवी सहृदयता उसकी क्षति के लिए दौड़ पड़ती है। अग्नि काण्ड, भूकंप, दुर्भिक्ष, महामारी आदि के संकट उत्पन्न होने पर विकसित लोगों की अंतरात्मा उसके समाधान हेतु व्याकुल हो उठती है और राहत पहुँचाने के लिए अदम्य प्रेरणा उत्पन्न करती है। उससे प्रेरित होकर उदारचेताओं को शक्ति भर सहायता करने के लिए बाधित करती है। अब तक आकस्मिक विपत्तियों का सामना इसी प्रकार मिल−जुल कर अपनाई गई सेवा-साधन के आधार पर ही किया जाता रहा है। भविष्य में यदि कभी मनुष्य को निष्ठुरता ने जकड़ लिया और कृपणता के खूँटे से बाँध दिया, तो समझना चाहिए एक-एक करके सभी को असहाय स्थिति में बेमौत मरना पड़ेगा। तब शायद रोगियों तक की किसी की सेवा-साधना उपलब्ध नहीं होगी। गिरे हुओं और पिछड़े हुओं को यथावत् विपत्ति के दलदल में फँसे हुए दम तोड़ना पड़े। गर्भधारण करने , स्तनपान कराने और बालकों के परिपोषण से भी महिलाएँ इनकार कर दें, क्योंकि इस प्रसंग में उन्हें मात्र कष्ट सहने और शरीर निचोड़ने की हानि ही हानि दृष्टिगोचर होगी। तब शायद कोई युवती पितृगृह का स्वच्छन्द जीवन छोड़कर ससुराल में दूसरे परिवार की सेवा करने के लिए समर्पित होने का प्रस्ताव भी स्वीकार न करे। ऐसी दशा में समाज व्यवस्था का परंपरा क्रम चल भी सकेगा या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता।

आजीविका उपार्जन और सुविधाओं का उपभोग अपनी जगह ठीक हो सकता है, परंतु उनके लाभ शरीर पोषण तक ही सीमित है। समझा जाना चाहिए कि मनुष्य का एक पक्ष आत्मा भी है। उसकी अपनी आवश्यकताएँ और आकाँक्षाएँ भी है, जिनकी पूर्ति धर्म धारणा और सेवा साधना के अतिरिक्त और किसी प्रकार संभव नहीं हो सकती। संतोष, आह्लाद और उल्लास का रसास्वादन करने का अवसर उसी आत्मा को मिल पाता है जो उदार , परमार्थ , परायणता को भी अन्न जल की तरह नित्य प्रयोग में लाये जाने की आवश्यकता अनुभव करती है।

मनुष्य एकाकी आता और जाता है पर उसे समूचा जीवन जन समुदाय के साथ सहकारिता के आधार पर जीना पड़ता है। इसका तारतम्य तभी सही सुनियोजित रहता है जब सेवा स्तर की पहल अपनी ओर से की जाय। बीज के गलने का साहस उभरते देखकर ही पृथ्वी उसे अपनी उर्वरता का लाभ प्रदान करती है। प्रगतिशील के द्वारा पहुंचाये जाने वाले लाभों पर विश्वास करके ही खाद पानी देने वाले अंकुर की सहायता करने दौड़ पड़ते हैं।

यह संसार ऊँचे गुँबज की तरह है इसमें अपनी ही आवाज गूँजती है। इसे दर्पणों का बना महल भी कह सकते हैं जिसमें सब ओर अपनी ही छवि प्रतिबिंबित होती है। जब हम उदार बन कर देने के लिए हाथ बढ़ाते हैं तो प्रतिक्रिया भी ठीक वैसी ही सामने आती है। प्रस्तुत की गई सेवा बदले में अनेक गुनी सद्भावना , सहायता और कृतज्ञता भरी अभ्यर्थना (पुरुष एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता है। पर स्त्रियाँ दोनों कानों से सुनती हैं और मुँह से निकालती है। ) के रूप में अपने पास वापस लौटने का प्रत्यक्ष परिचय देती है।

संसार भर के महामानवों ने उदारचेता और परमार्थ-परायणता अपनाने की अपनी गरिमा का परिचय दिया है। इसके बाद ही सभी दिशाओं से उन्हें श्रेय सम्मान मिला है। उनकी सीमित परंपरा से प्रेरणा पाकर अनेकों ने ऊँचा उठने में सफलता पाई है। इसी के सत्परिणाम उन्हें सिर आँखों पर उठाने के रूप में सामने आये हैं। जिन्हें अजस्र श्रेय सम्मान मिला है उनमें से प्रत्येक को सेवाधर्म अपनाना पड़ता है। भौतिक लाभों की संकीर्णपरता का सीमा बंधन तोड़ कर ऐसा कुछ करना पड़ा है जिसे हर कसौटी पर अनुकरणीय कहा जा सके।


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