नगर के देव मंदिर में उत्सव मनाया जा रहा था। नगर-वासियों ने प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो को भी आमंत्रित किया । मंदिर में जाकर प्लेटो ने एक नया दृश्य देखा । जो भी नगर वासी आता प्रतिमा के सामने एक पशु या पक्षी की बलि जरूर देता। पशु तड़फड़ाता और लोग खुशी से नाचने लगते। किन्तु जीव मात्र की अंतर्व्यथा की अनुभूति रखने वाले प्लेटो से यह दृश्य न देखा गया। वे उठकर चलने लगे। तभी मन्दिर के पुजारी ने उन्हें रोका और कहा कि मान्य अतिथि आज तो आप को भी बलि चढ़ाकर जाना होगा।
प्लेटो शान्ति पूर्वक उठे और थोड़ा सा पानी लेकर मिट्टी गीली की और एक छोटे से जानवर की आकृति बनाकर देव प्रतिमा के सामने रखकर तलवार चलाई और काट दिया तथा चलने लगे। इतने में अंध श्रद्धालु मुँह बिचकाते हुए बोले। वाह ! यह भी कोई बलिदान हुआ।
प्लेटो ने शान्ति से कहा-हाँ निर्जीव देवता के लिए निर्जीव भेंट ही उपयुक्त थी सो चढ़ा दी। प्लेटो के इस जवाब से सभी निरुत्तर हो गये। उसी दिन से वहाँ बलि प्रथा का अंत हो गया।