प्रयत्न और पुरुषार्थ के बल पर भौतिक उपलब्धियां उपार्जित किये जाने की बात सर्वविदित है पर इस तथ्य को विरले ही जानते हैं कि आस्थाओं एवं मान्यताओं के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव का समन्वय ही व्यक्तित्व बनाता है और व्यक्तित्व का स्तर ही संसार के पदार्थों एवं व्यक्तित्वों के साथ अनुकूल-प्रतिकूल तालमेल बिठाता है। इस तालमेल की प्रतिक्रिया ही उत्थान-पतन, सुख-दुःख के रूप में सम्मुख आती रहती है। वाह्य प्रगति एवं परिस्थितियाँ प्रत्यक्षतः दिखाई पड़ती हैं और उनका कारण भाग्य, पुरुषार्थ, अनुदान आदि बताकर समाधान कर लिया जाता है। जितनी गहराई में उतर कर तथ्य को समझ पाना किसी-किसी के लिए सम्भव हो पाता है कि वाह्य जीवन की समस्त घटनाएं, परिस्थिति, एवं उपलब्धियों व्यक्तित्व की आँतरिक स्थिति के फलस्वरूप ही उत्पन्न होती है।
परिस्थितियाँ एक ही हो सकती हैं किन्तु उन्हें दो व्यक्ति दो प्रकार से सोचकर अपनी प्रतिक्रिया जताते हैं। द्रोणाचार्य द्वारा भेजे जाने पर दुर्योधन को एक स्थान पर सभी दुष्ट-दुराचारी दिखाई पड़े किन्तु उसी स्थान पर गये धर्मराज युधिष्ठिर यह निष्कर्ष ले कर लौटे कि उस स्थान के लोगों में औसत स्तर की सज्जनता मौजूद है, पूर्ण दुर्जन कोई भी नहीं है। इस सृष्टि की समस्त संरचना सत्य और तम्, देव और दैत्य सम्मिश्रण से विनिर्मित हैं। रात और दिन की तरह यहाँ शुभ और अशुभ दोनों का आस्तित्व हैं। अन्धकार और प्रकाश से मिलकर रात्रि और दिन की रचना हुई है। उसी से काल-चक्र घूमता है ताने और बाने के उलटे सीधे धागों से कपड़े बुना जाता है। संसार में वाँछनीय और अवाँछनीय दोनों ही तत्व तो दैनंदिन जीवन की खोज से बच कर अपने व्यक्तित्व को सद्गुणों से सुसज्जित बनाया जा सकता है। संसार के परिवर्तन चक्र को जो विनोद की तरह देखता है, वह सुखी रहता है।
मनुष्य वस्तुतः विचारों का पुंज है उसे दृष्टिकोण के आधार पर ही जीवन का वाह्य स्वरूप बनता व आन्तरिक स्तर का निर्माण होता है आस्थायें-मान्यतायें सही बनती चली जाये तो परिस्थितियोँ कैसी भी हों, मानवीय उत्कर्ष-व्यक्तित्व का विकास हो कर ही रहता है, यह एक सुनिश्चित सत्य है।