शरीर की स्वस्थता लंबे समय तक बनाये रख कर लंबी आयु प्राप्त कर सकना संभव है। क्या? यह प्रश्न इन दिनों विज्ञान जगत में चुनौतीपूर्ण बना हुआ है विज्ञानवेत्ता विविध विधि द्वारा इसी एक गुत्थी को सुलझाने में प्रयत्नशील हैं। हिमालय वासी दीर्घजीवी योगियों का उदाहरण हमारे समक्ष है, पर देखना यह है कि सर्वसाधारण के लिए भी यह संभव है क्या?
वैज्ञानिक इस संदर्भ में पूर्ण आशावादी हैं, पर उनका एक ही असमंजस है कि भौतिकवाद का समर्थन करने वाला विज्ञान क्या कोई ऐसी प्रणाली ढूंढ़ पाने में सफल हो सकेगा, जो सक्रिय जीवन जीते हुए दीर्घायु प्रदान कर सके। निष्क्रिय बन कर लंबी आयु प्राप्त करने का कोई तुक नहीं। यों इस संबंध में विज्ञान का सुनिश्चित दाव है कि इसके माध्यम से मनुष्य को वर्षों जीवित रखा जा सकता है। जीव जगत में इसके कई उदाहरण भी देखने को मिलते हैं। ध्रुवीय भालू प्रतिकूल मौसम आने पर स्वयं को बर्फ से धंसा लेते हैं और महीनों बिना खाये-पिये उस स्थिति में पड़े रहते हैं। परिस्थिति जब अनुकूल बनती है, तो वे अपनी निष्क्रिय त्याग कर बाहर निकल आते हैं। ऐसा ही एक अन्य प्राणी है-”स्लोथ”। पेड़ में निवास करने वाला भालू के आकार का यह जंतु इतना आलसी होता है कि भोजन ढूँढ़ने के कष्ट से बचने के लिए लम्बे समय तक वृक्ष की शाखों पर उलटा टँगा रहता है। अनेक बार यह अवधि इतनी लंबी होती है कि इस पर काई जम जाती है और पूरा शरीर उससे ढक जाता है। उसके इसी स्वभाव के कारण अंग्रेजी साहित्य में ‘स्लोथ’ शब्द आलस्य का पर्याय बन गया हैं। इसी प्रकार के कितने ही ऐसे जंतु हैं, जो निष्क्रिय रहते हुये लंबे समय तक जीवित बने रहते हैं। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने यह दावा प्रस्तुत किया है कि यदि मनुष्य को बर्फ में अति शून्य तापमान पर जमा दिया जाय, तो उसे भी वर्षों जिंदा रखा जा सकता है। लंबी निद्रा के बाद जब भी जगाना अभीष्ट हो, तो तापक्रम बढ़ा देने मात्र से उसके अंग-अवयव सक्रिय हो उठेंगे और व्यक्ति जीवित हो उठेगा। आजकल इस विधि का प्रयोग मानवी अंगों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखने के लिए बहुतायत से किया जा रहा है। मनुष्य को चिरायु बनाने के लिए यदि विज्ञान के पास यही एकमात्र उपाय है, तो फिर इसे निरर्थक ही समझना चाहिए, क्योंकि जीवन का उद्देश्य मात्र वर्ष गिनाना अथवा पूरे करना नहीं है, वरन् उसे समर्थ-सशक्त बनाये रखना भी सहायक नहीं हो सकता, तो फिर उसके द्वारा प्रदत्त दीर्घ जीवन बेकार है।
यों शरीर शास्त्रियों ने आयुष्य के “एजींग” प्रक्रिया रोकने के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण अनुसंधान भी किये हैं और इस तथ्य का पता लगाया है कि असमय ही मरण क्यों आ धमकता है? इस संबंध में जैव रसायनज्ञों का कहना है कि आयु बढ़ने के साथ-साथ शरीर में ऑक्सीजन की खपत कम होती जाती है, जिससे शरीर कोशाएं मरने और अक्षम होने लगती हैं। समय बीतने के साथ-साथ यह क्रिया तेज होती जाती है, जिससे वार्धक्य और अकाल मरण आ उपस्थित होते हैं। इसका कारण बताते हुये वैज्ञानिक कहते हैं कि इसमें प्रमुख भूमिका पिट्यूटरी ग्रंथि के स्राव की है। इन दिनों इसके स्राव में एक विशेष प्रकार के रसायन की अधिकता पायी जाती है, जिसकी मात्रा बढ़ते पर्यावरण-प्रदूषण से उत्पन्न मानसिक विक्षोभ से और अधिक बढ़ जाती है। स्थिति तब और गम्भीर हो जाती है, जब व्यक्ति स्वयं भी मानसिक अस्थिरता की अवस्था से गुजर रहा हो। इन दोनों का संयुक्त प्रभाव इतना घातक होता है कि व्यक्ति देखते-देखते बूढ़ा हो जाता है और फिर मौत भी अपनी दस्तक देने लगती है। मूर्धन्य जैव रसायनवेत्ता एलन पोलाँक का कहना है कि यदि अंतःस्रावी तंत्र पर नियंत्रण किया जा सके, तो न केवल एण्डोक्राइन रस नियमित नियंत्र बने रहते हैं, वरन् शरीर प्रतिरक्षा तंत्र भी समर्थ-सशक्त बना रहता है। उनके अनुसार वय बढ़ाने की प्रक्रिया में थयमस ग्रंथि का भी महत्वपूर्ण हाथ है। वे कहते हैं कि इन दिनों अचिंत्य चिंतन की बढ़ती मात्रा के कारण इस ग्लैंड पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है, फलतः धीरे-धीरे वह सिकुड़ने लगती है और अंत में अपने वास्तविक आकार का 1/10 वाँ हिस्सा ही रह जाती है। आकार घटने के साथ-साथ उसकी सक्रियता भी कम होने लगती है, जिससे संपूर्ण प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावित होती और कमजोर पड़ जाती है। कमजोर अवयव “बायोलॉजिकल एज” को बढ़ा देते हैं, जब कि यथार्थ में “क्रोनोलाजिकल एज” उतनी होती नहीं। दूसरे शब्दों कहे तो, यही बुढ़ापा है।
इसके अतिरिक्त वार्धक्य के कितने ही अन्य कारण भी विशेषज्ञों ने गिनाये हैं। फ्लोरिडा विश्व विद्यालय के शरीर विज्ञानी लियोनार्ड हेफ्लिक के मतानुसार प्रत्येक शरीर-कोश का अपना एक ‘जेनेटिक क्लाक’ होता है और हर कोशिका का विभाजन अधिकतम 50 बार होता है। बुढ़ापे की दशा में कोशिका-विभाजन के बीच का अंतराल घट जाता है, और जो क्रिया न्यूनतम सौ वर्ष में संपूर्ण होनी चाहिए, वह आधी आयु आते-आते पूरी हो जाती है। इसके उपरान्त कोशिकाओं के विभाजन और नवीनीकरण की गुंजाइश बिलकुल समाप्त हो जाने के कारण देह अक्षम बनाती और ऐसा होते-होते मर जाती है। वे कहते हैं कि यदि कोषा-विभाजन के बीच की अवधि को लम्बा किया जा सके, तो जिस अनुपात में वह अवधि बढ़ेगी, उसी अनुपात को उम्र को बढ़ा पाना हो सकेगा। योगियों में दीर्घायुष्य की जो घटना घटती जाती है, इसके पीछे यही रहस्य है। सर्वसाधारण में जो प्रक्रिया 50 वर्ष में पूरी हो जाती है, उसके पूर्ण होने में योगियों से सैकड़ों वर्ष का समय लग जाता है।
एक अन्य कारण का उल्लेख करते हुये विशेषज्ञ कहते हैं कि मुक्त मूलकों का भी वृद्धावस्था उपस्थित करने में बहुत बड़ा योगदान होता है। इतने पर भी यह निमित्त गौण है।
शरीर वेत्ताओं असामयिक जन्म-मरण के तीन प्रमुख कारण बनते हैं। ये हैं- मस्तिष्क अंतःस्रावी प्रणाली और प्रतिरक्षा तंत्र। इनमें से मस्तिष्क संपूर्ण शरीर तंत्र का केन्द्रीय संस्थान है। इससे काया और उसकी विभिन्न गतिविधियाँ नियंत्रित होती है। एण्डोक्राइन सिस्टम का काम है, जबकि शरीर स्वस्थता की देख-रेख इम्यून सिस्टम (जीवनी शक्ति के लिए उत्तरदायी संस्थान के जिम्मे है। इनमें से किसी के भी असंतुलित होने पर अस्वस्थता और जीर्णता देखते-देखते पैर जमा लेती एवं व्यक्ति को मौत के मुँह में ढकेल देती है। इनसे कुछ अधिक गहराई में उतरने पर ज्ञात होता है कि उपरोक्त संस्थान विस्तृत स्थूल निमित्त मात्र है। सूक्ष्म कारण तो इनके मूल में निवास करने वाले “जीन्स” है, जो सम्पूर्ण शरीर-प्रक्रिया को संचालित करते हैं। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि किसी प्रकार यदि इन्हें नियंत्रित कर लिया जाये, तो काया की समस्त गतिविधियाँ स्वतः नियमित हो जायेगी। पिछले दिनों इस दिशा में अनेक प्रयास हुये हैं “जेनेटिक इंजीनियरिंग” नामक विज्ञान की एक अभिनव शाखा का विकास भी हुआ है, किन्तु इस विज्ञान की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि कायारत प्रत्येक गड़बड़ी को मिटाने के लिए जिससे सम्बन्ध हर एक जिनकी मरम्मत करनी पड़ती है। यदि किसी शरीर में पचास प्रकार की गड़बड़ियाँ हो, तो लगभग उतने ही जीन्स में सुधार की प्रक्रिया सम्पन्न करानी पड़ेगी। व्यवहारिक दृष्टि से यह अत्यन्त दुरूह कार्य है। ऐसी दशा में वैज्ञानिकों को अब यह स्पष्ट भासने लगा है कि जीन्स भी किसी वृद्ध वृक्ष के सूक्ष्म शाखा-पल्लव मात्र। जब कहीं है, वह जड़ जिसके सींचने भर से सम्पूर्ण तरुवर स्वास्थ-समयुक्त होकर लहलहाने लगे। जब वे इसी मूल की तलाश में है।
अध्यात्म विज्ञानी तो बहुत पहले से ही इस बात का प्रतिपादन करते रहे हैं कि शरीर-स्वस्थता के मूल में प्राण-चेतना की भूमिका प्रमुख है। देह जब आकार जराग्रस्त होती हैं, तब इसी का अस्त-व्यस्त प्रवाह कारणभूत होता है। विज्ञजन जानते हैं कि शरीर में 72 हजार सूक्ष्म नाड़ियां हैं। इनमें से 72 प्रमुख हैं। इनमें से भी 10 महत्व की। उक्त नाड़ियों में जब भी प्राण-प्रवाह में व्यक्ति क्रम पैदा होता है, तो रोग-सोको का जन्म होता है। तत्वज्ञ इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि इन नाड़ियों में से अधिकांश का संबंध पैर के पैर के तलुवों और हाथ की हथेलियों से है। शारीरिक श्रम के दौरान इनके बार-बार दबने से नाड़ियों में प्राण का आवागमन अप्रतिहत रूप से जारी रहता है, जिससे स्वास्थ्य भी अक्षुण्ण बना रहता है। पुराने जमाने में लोग इस विज्ञान से परिचित थे, इसलिए परिश्रम करने से जो नहीं चुराते थे और अपना काम स्वयं अपने हाथों से करने में रुचि रखते थे।
आज जबकि सुविधा-संवर्धन की प्रवृत्ति समाज में बढ़ी है, लोग अपना काम दूसरों के द्वारा कराने में रुचि रखते हैं। बढ़ती दौलत के कारण व्यक्ति ”श्रम के बदले पैसा” की नीति अपना कर श्रम खरीदते और स्वयं आराम तलब बनते जाते हैं। इन दिनों यह नीति समाज में अत्यधिक परिमाण में बढ़ी है। लोग इसके कारण अधिकाधिक आरामतलबी की ओर उन्मुख हुए हैं। श्रम का मद्दा घटने से शरीर में जो प्राण-प्रवाह पहले आसानी से होता रहता था, अब उसमें व्यवधान पैदा होने लगा है। अवयवों को उपयुक्त मात्रा में आवश्यक प्राण न मिले, तो उनका दुर्बल होना स्वाभाविक है। आजकल के जर्जर मनुष्य की जर्जर काया का यही प्रधान कारण है।
इसके लिए श्रम की महत्ता समझी जानी चाहिए और प्रत्येक को प्रतिदिन उपयुक्त परिमाण में इतना परिश्रम करना चाहिए, ताकि प्राण-प्रवाह संतुलित बना रहे। इसके अतिरिक्त सात्विक आहार भी इसके प्रवाह कसे संतुलित करने में महत्वपूर्ण योगदान करता है। ” अन्नों वै मनः” कहकर आप्तजनों ने इसी तथ्य को प्रतिपादित किया है। अन्न से मन बनता है। अन्न यदि सात्विक और नीतिपूर्वक उपार्जित हो, तो उससे विनिर्मित होने वाला मन भी उदास और उत्कृष्ट स्तर का होता है। मन यदि श्रेष्ठ हो, तो शरीर के स्वस्थ बनने में भी कोई अड़चन जप, तप, व्रत ध्यान भी प्राण के संचार में सहयोगी साबित होते हैं। प्राण-प्रवाह से संबंधित इन तथ्यों को ध्यान में रखा जाय, तो कोई कारण नहीं कि हम स्वस्थ और दीर्घायु जीवन न जी सके। शरीर शास्त्रियों की खोज अपने स्तर पर सही है, पर वह अपूर्ण है। हम संपूर्ण सत्य को समझें। जड़ की जगह पत्र-पल्लवों को न सींचे। ऐसा यदि हो सका, तो अक्षुण्ण स्वास्थ्य और दीर्घायुष्य निस्संदेह प्राप्त होकर रहेगा, इसमें दो मत नहीं।