डाकू बना महात्मा

December 1994

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जब अंतःकरण निर्मल हो जाता है तो उसमें स्वयं हृदय स्थित प्रभु का प्रतिबिंब प्रत्यक्ष हो जाता है ! महात्मा आनंदकंद जी ने समझाते हुए कहा - “परमात्मा की प्राप्ति के लिए एकमात्र यही मार्ग है। मलिन अंतः करण प्रभु को प्राप्त करेगा, इसकी आशा व्यर्थ हैं। “

“ तब क्या प्रभु इन बाह्य नेत्रों के सम्मुख नहीं आते? “ जिज्ञासु ने शंका की।

“ऐसा नहीं किंतु बाह्य जगत में हम वही देख पाते हैं जो हमारे भीतर हैं ! “ महात्मा जी ने पुनः स्पष्टीकरण दिया-” अथवा यों समझ लो कि हमारा हृदय जितना निर्मल होता जाता है, हमारे नेत्रों में उतनी ही निर्मल एवं सूक्ष्म दृष्टि आती जाती हैं ! जिसके अंतःकरण में मैल हैं, उसकी दृष्टि में भी मैल रहेगा और मैली दृष्टि से भला उन मायातीत को कैसे देख सकता है? “

अंतःकरण की शुद्धि कैसे हो? स्वाभाविक था कि उपरोक्त समाधान के पश्चात यह प्रश्न उठे।

शास्त्रों में इसके लिए अनेक उपाय बताए गए हैं। अनेक मार्ग हैं। जो जिसका अधिकारी हो, उसे उसी का अवलंबन करना चाहिए। स्पष्ट था कि महात्मा जी बहुत गोल-मोल उत्तर दे रहे थे और वे इस प्रश्न से छुटकारा चाहते थे। “

तब मुझे इस प्रकार पूछना चाहिए कि मैं किस उपाय से अंतःशुद्धि करूं? “ प्रश्नकर्ता अत्यंत घुला-मिला था। वह सदा उनके समीप रहने वालों में था और उसी से निःसंकोच हो गया था।

“ भैया, यह काम गुरु का हैं। उस गुरु का जो मुमुक्षु के अधिकार को परख सके। ” महात्मा जी के स्वर की नम्रता बतला रही थी कि वे अत्यधिक संकुचित हुए हैं। ”गुरु वही हो सकता है जो शास्त्रज्ञ एवं आत्मदर्शी दोनों हो। यह तो तुम जानते ही हो कि शास्त्र ज्ञान के संबद्ध में मैं कोरा हूँ और साधन भी मैंने किए नहीं हैं।

“आप तो टालना चाहते हैं। “ हंसते हुए प्रश्नकर्ता ने फिर पूछा “ अच्छा, आपने स्वतः यह स्थिति कैसे प्राप्त की? “

“यह स्थिति? इस स्थिति से तुम्हारा क्या अभिप्राय है? “ उन्होंने गंभीरता से पूछा-”तुम मेरे इससे पहले के जीवन के संबद्ध में कुछ जानते हो “

प्रश्नकर्ता तो क्या, यहाँ कोई भी नहीं जानता कि वह कौन है कहाँ के हैं, क्या जाति के हैं। बहुत पुरानी बात है जब नर्मदा तीर की इस अमराई में लोगों ने एक हट्टे-कट्टे लंबे कृष्ण वर्ण पुरुष को प्रातः काल इसी वटवृक्ष के नीचे पत्थर की शिला पर बैठे देखा था।

लोग कहते हैं कि उस समय उनको देखकर बहुतों को संदेह हुआ था कि वह चोर या डाकू हैं। कुछ लोगों ने सताया, गालियाँ दी और मारा भी। बड़ा दुःख हुआ उत्पीड़कों को जब हैजे के प्रकोप के समय उस साधु पुरुष ने उनके घर के लोगों की उनकी प्राणपण से सेवा की। बार-बार वे उच्च स्वर से ‘आनंदकंद’ कहा करते थे इसी से उनका नाम आनंदकंद पड़ गया। वैसे अपने संबंध में कुछ पूछे जाने पर वे सदा हँसकर चुप हो जाया करते।

आज तो वे आस-पास के लोगों के लिए आपत्ति में आश्वासन रुग्णावस्था में परिचारक ता थे। उनमें क्रोध कभी देखा नहीं गया। कुटी में संग्रह था, किंतु वह सदा उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहता था। इन सद्गुणों की मूर्ति को लोग साक्षात् देवता मानते थे।

“आप क्या जन्म से ही ऐसे हैं? प्रश्नकर्ता में कुतूहल जाग उठा। प्रश्न के उत्तर में कुछ क्षणों तक मौन रहे। फिर शून्य की ओर देखते हुये उन्होंने पूछा-”तुममें से किसी ने डाकू अभयसिंह को देखा है?

देखा तो यहाँ एक तरुण ने कहा-किन्तु” बचपन में मैं उसका नाम बहुत सुना करता था। इधर बीस वर्ष से उसकी कोई बात सुनने में नहीं आयी। ” तरुण को यह प्रश्न असंगत लगा था। वह जानता था कि महात्मा जी व्यर्थ चर्चा चलाता है तो वे उद्विग्न हो उठते हैं और प्रसंग बदल दिया करते हैं। इसी से वह शंकित हो उठा कि उस भयंकर डाकू ने कहीं फिर किसी को सताया या सताने की धमकी तो नहीं दी।

वटवृक्ष की सघन छाया में, मूल के चारों ओर बनी विस्तृत वेदिका पर प्रवीची में चटाइयों पर आज पर्याप्त लोग बैठे थे। मध्य में मृगचर्म डाले महात्मा आनंदकंद आसीन थे। उनकी कमर में मृगचर्म लिपटा था। श्मश्रु एवं जटाओं के केश कृष्ण-स्वेत मिश्रित थे। अब भी उनका शरीर सुगठित था। तथा सुपुष्ट मांसपेशियां चमक रही थीं। उनकी मुद्रा शांत एवं गम्भीर थी। उनकी तेजपूर्ण दृष्टि के सम्मुख नेत्र सीधे नहीं हो सकते थे। वहाँ जाकर मन स्वाभाविक शांत हो जाया करता था।

आस-पास के गाँवों के श्रद्धालु भक्तों को कानों-कान समाचर मिल चुका था कि महात्मा जी अपना पूर्ववत सुनाएंगे। अतः पर्याप्त व्यक्ति वहाँ आ जुटे थे। नहीं तो दो-चार व्यक्ति से अधिक कभी भी वहाँ दिखाई नहीं पड़ते थे। अपने दैनिक जीवन भार से मानव का बोझिल कंधा इतना कहाँ अवकाश देता है कि वह दो घड़ी एकाँत शांत का आनन्द लें। ‘

“हाँ। अब इधर बहुत वर्षों से वह डाकू अपनी क्रूरता से परित्राण पा गया है। ” उन्होंने अपने सामने बैठे तरुण से कहा जिसने प्रश्न पूछा था। “वह बड़ा भयंकर डाकू था। उसके सहचर तक उससे डरा करते थे। उसे दया करना तो आया नहीं था न उसने ब्राह्मण माने और न बाल-वृद्ध। पता नहीं कितनी महिलाओं को उसने लूटा होगा। हत्या उसके लिये एक क्रीड़ा थी। वैसे तो तुम सब भी वन पशुओं की हत्या की क्रीड़ा करते ही हो। वह इस शिकार में मनुष्यों तक बढ़ गया था। ”

“तब क्या आप उसे जानते हैं?” प्रश्नकर्ता के मन कौतूहल हुआ। श्रोताओं में काना-फूसी होने लगी। लोगों ने अनुमान किया अवश्य महात्मा जी के उपदेश और प्रयत्न से उसने डकैती छोड़ी होगी। लोग वर्षों से देखते आ रहे थे कि गाँव में कोई किसी का कुछ अपराध कर देता तो महात्मा जी स्वतः उसे क्षमा कराने पहुँच जाते। बिगड़े युवकों को वे चुटकी बजाते सीधे कर लेते थे। यही आज का प्रश्नकर्ता चोरी में इसने जेल काटी है। और शराब के बिना उससे रहा न जाता था। पक्का जुआरी था आज वह भगत बन बैठा था।

“मैं कह चुका हूँ कि अब उसने अपने सब कुकृत्य छोड़ दिये हैं और सभ्य सुसभ्य सुसंस्कारी बनने के प्रयत्न में है। ” महात्मा जी ने कहा वह भला क्या सभ्य बनेगा। तरुण तनिक वह कहाँ रहता है? उसे यह पता था कि महात्मा जी यह बात नहीं बतायेंगे।

“यदि वह तुम्हारे सम्मुख आ जाये तो तुम क्या करोगे?” कुछ मुस्कराते हुये उन्होंने पूछा।

“हम इतने लोग हैं”-तरुण ने कहा “वह हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकेगा। हम उसे पकड़ लेंगे और पुलिस में दे देंगे”।

“उसने बिगाड़ना तो छोड़ ही दिया है” उसने पूछा-”तब भी तुम उसे पुलिस में दोगे? उसके लिये अब भी दस हजार का पुरस्कार सरकार देने को प्रस्तुत है। ”

“पुरस्कार के लिये नहीं!” तरुण जानता था कि वह लोभ से निर्लिप्त नहीं रह सका। ” “न्याय के साथ यह व्यवहार करना ही चाहिए।

“न्याय?” वह जोर से हँस पड़े-” तुमने जो कुछ किया है इसी जन्म में और अनेकों जन्मों में जो किया होगा, यदि सर्वेश उसका न्याय करने लगे? अपने लिये तो उसे दयामय कहकर क्षमा चाहते हो और दूसरों के साथ न्याय करोगे?”

तरुण ने लज्जा से मस्तक झुका लिया वह सहसा कह उठे-”अभय सिंह तुम्हारे सामने बैठा है मैं ही अभय सिंह हूँ मैं तुम्हारे न्याय को सिर झुका कर ले लूँगा। आओ, मैं स्वयं चलता हूँ थाने पर! सचमुच वे उठकर खड़े हो गये। लोग भौंचक्के से रह गये। उनकी समझ में ही नहीं आया कि उन्हें क्या करना चाहिए।

थोड़ ही समय के अन्तराल में पुलिस इंस्पेक्टर के सामने खड़े थे सभी के हृदय होता है और न भी हो तो क्या? एक ऐसी भी शक्ति है जो हृदयहीन प्रकृति के नियमों पर भी शासन करती है। जिसके संकेत पर जड़, पाषाण, शिला भी द्रवित, श्रवित एवं पुलकित हो जाने में समर्थ होती है।

प्लिस इंस्पेक्टर ने स्पष्ट कह दिया कि, आप चाहे कोई भी हों अभय सिंह नहीं हो सकते और यदि हों भी तो मैं आपको गिरफ्तार करने की शक्ति अपने में नहीं पाता। ”

जिनके दर्शनों को इंस्पेक्टर ही नहीं, बड़े साहब भी कई बार आ चुके हैं और उन लोगों ने भी सन्देह नहीं किया है, उसे वह कैसे गिरफ्तार कर लें? ऐसे समाचार छिपे नहीं रहते पर इसके लिये फटकार के बदले उसे ऊपर बधाई ही मिली। इसे उस अज्ञात शक्ति की प्रेरणा ही मानना होगा।

एक दिन अभय सिंह ने बड़े कोल्हटकर (समीप के सबसे बड़े रईस) को सूचना दी कि तुम्हारे यहाँ कल रात्रि हम सदल बल पधार रहें हैं स्वागत की सामग्री के रूप में दस सहस्र मिले। महात्माजी लौट आये थे उसी वट वृक्ष के नीचे उस दिन से कहीं अधिक लोगों के बीच वे अपना पूर्ववृत्त सुना रहे थे।

भीरु कोल्हटकर अभय सिंह जानता था कि वह पुलिस बुलाने का साहस नहीं करेगा। ”महात्मा जी

का स्वर भरा जा रहा था केवल चार-पाँच साथियों के वह रात्रि को अँधेरा होते ही आठ बजे के लगभग वहाँ जाता था। ”

तनिक रुक कर वे कहने लगे-”उस दिन वहाँ बड़ी भीड़ थी। महाराज पधारे थे और उनके अभंगों से जनता धर्म चैतन्य हो चुकी थी। ” महात्मा जी ने नेत्र पोंछे, भीड़ से बाहर वह श्रद्धामय जिसे अभयसिंह कायर समझता था, उसे मिला और उसने डाकू के हाथों में एक थैली देते हुए कहा-” अभयसिंह कीर्तन में बाधा पड़ इससे पूर्व ही तुम्हें चले जाना चाहिए। ” किंतु वह मधुर ध्वनि उस अपवित्र कानों में भी जा चुकी थी। “मैं भी कीर्तन सुनूँगा। ” अभयसिंह ने थैली नहीं, पर उसे संत के चरणों में चढ़ाने की बात सोच ली। उस मूर्ख को पता नहीं कि बात सोच ली। उस मूर्ख को पता नहीं कि वे चरण त्रिभुवन की लक्ष्मी को ठुकराकर मंच पर आये हैं।

वह विह्वल हो रोते थे। “फिर क्या हुआ सो बहुत नहीं कहना है। ” रात्रि ढलने पर भीड़ छटने तक डाकू पीछे खड़ा रहा और भीड़ हटते ही वह उन चरणों तक पहुँचा। उसने उनकी रज मस्तक पर लगायी और एक क्षण में वह कुछ का कुछ हो गया। दूसरे दिन तो सायंकाल यह आनंदकंद इस वट के नीचे आ चुका था।

लोग आश्चर्य में थे-”एक दिन कुछ घंटों में इतना बड़ा परिवर्तन!” उधर महात्मा के नेत्र झर रहे थे और वे कह रहे थे प्रभो फिर दर्शन न होंगे।

किसी ने पीछे से दौड़ते हुये आकर कहा “श्री नामदेव महाराज आ रहे हैं। महात्मा चौंक कर खड़े हो गए। दूर से किसी बड़ी भीड़ की कंठ ध्वनि करतालों की झंकार के मध्य गूँजती आ रही थी रुक्माई विट्ठल!”


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