अशिष्टता को शिष्टता से जीता

December 1994

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कई दिन के परिश्रम के बाद वे एक साड़ी बुन पाए थे। सोच रहे थे वह बिक जाए तो उदर पोषण की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए, बात महात्मा तिरुवल्लुवर के जीवन की है वे जन्म से जुलाहे थे। लोक सेवी संत होकर भी उन्होंने अपनी आजीविका अपने परिश्रम से ही कमाने का व्रत आजीवन निभाया। इसे वे ईश्वर उपासना का ही एक अंग मानते थे। अपनी वैयक्तिक समस्याओं के लिए उन्होंने कभी पराश्रय नहीं लिया।

संत अपनी धैर्य शीलता और क्षमा के लिए विख्यात थे। गाँव का एक युवक इसे ढोंग कहता था हमेशा उनकी परीक्षा लेने की बात सोचा करता था। दैवयोग से वे साड़ी लेकर बाजार में बेचने बैठे ही थे कि वह युवक वहाँ आ पहुँचा। उसने साड़ी का मोल पूछा तो संत ने विनम्र वाणी में उत्तर दिया सामान और मजदूरी दोनों मिलाकर साड़ी का मोल कुल दो रुपए होता है।

युवक ने साड़ी हाथ में ली और बीच से बराबर-बराबर टुकड़ों में फाड़ दिया और पूछा इन दो टुकड़ों में से अलग-अलग एक के कितने दाम होंगे। संत ने उसी निश्छलता से उत्तर दिया एक-एक रुपया। फाड़े गए दो टुकड़ों में से एक के फिर दो टुकड़े करते हुए युवक ने पूछा अब इन टुकड़ों की कीमत कितनी होगी तो संत ने बिना अप्रसन्न हुए उत्तर दिया आठ आने। तब तक वह युवक उस टुकड़े के भी दो टुकड़े कर चुका था। उसने पूछा-अब इन टुकड़ों के कितने पैसे लोगे तो तिरुवल्लुवर ने उसी धीर गंभीरता के साथ उत्तर दिया-चार आने।

युवक साड़ी के टुकड़े करता गया। वह हर बार सोचता था कि इस बार संत क्रुद्ध होंगे पर उनका हृदय था कि नवनीत। जितनी आँच दी उस युवक ने उतना ही पिघलता और गंभीर होता चला गया। न उन्होंने युवक को वैसा करने से रोका और न ही किसी प्रकार तर्क किया।

युवक ने अब पलट कर पाँसा फेंका। तार-तार हो चुकी साड़ी की गोल-मटोल गेंद की तरह लपेटता हुआ बोला अब इसमें रह ही क्या गया है जो पैसे दिए जाएँ। फिर भी यह लो कहकर वह धन का अभिमान प्रदर्शित करता हुआ दो रुपए निकाल कर देने लगा। तिरुवल्लुवर ने कहा-”बेटा। जब तुमने साड़ी खरीदी ही नहीं तो फिर तुमसे उसका मोल कैसे लूँ?”

युवक का उद्दंड हृदय अब तक पश्चाताप में बदल चुका था उसने विनीत होकर कहा- “महात्मन्। मुझसे भूल हो गई- साड़ी का मूल्य तो मुझे चुकाना ही चाहिए। ”

संत की आँखें डबडबा आई- वे बोले-”वत्स! तुम्हारे दो रुपए चुका देने से इस क्षति की भरपाई तो न हो जाएगी। सोचो! इसकी कपास पैदा करने में किसान ने कितना परिश्रम किया होगा। इसकी धुनने और बुनने में कितने लोगों का समय और श्रम लगा होगा। साड़ी बुनी गई तब मेरे घर वालों ने कितनी कठिनाई उठाई होगी। तुम्हारे दो रुपए चुका देने से क्या इन सबका परिश्रम संतुष्ट हो जाएगा?”

युवक अधीर हो उठा उसकी आँखें से पश्चाताप के आंसू फूट पड़े, वह कहने लगा-ऐसा था तो आप मुझे साड़ी न फाड़ने के लिए बलपूर्वक रोक भी तो सकते थे?

“रोक क्यों नहीं सकता था बेटा। मेरा शरीर तुम्हारे शरीर से कमजोर तो है नहीं पर वैसा करने से क्या तुम मान जात? महापुरुष कह गए हैं क्रोध को अक्रोध से अशिष्टता को शिष्टता से जीतना चाहिए। बलपूर्वक रोकने से तुम्हें शिक्षा देने का यह अवसर मिला वह कहाँ मिलता?”

साड़ी फाड़ने वाले युवक की उद्दंडता पूरी तरह धुल चुकी थी। इतने क्षणों में उसे अनुभव कर लिया था कि जो शिक्षा क्षमा और प्रेम से आती है। वही अंतःकरण में बैठकर चिरकाल तक प्रकाश देती रहती है।


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