मुक्ति के लिए संसार से पलायन क्यों?

December 1994

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महर्षि अंगिरा ने शिष्य गोपमाल का तिलक किया और कहा-तात्! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे अन्तःकरण में मुक्ति की आकांक्षा अत्यन्त प्रबल है। तो भी तुम जाओ और वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा के अनुसार गृहस्थ धर्म का अनुशीलन करो।

“आपकी आज्ञा शिरोधार्य है गुरुदेव! पर यह संसार तो बंधन है, वहाँ जाकर मुक्ति जैसे जीवन लक्ष्य को भूल गया तो?” भूलेंगे नहीं तात् ! यदि तुमने कर्म के फल में आसक्ति नहीं रक्खी तो गृहस्थ जैसे कठोर उत्तरदायित्व का पालन करते हुये भी तुम उसी लक्ष्य की ओर अपने आप अग्रसर पाओगे जिसके लिए तम गृहस्थ का परित्याग करना चाहते हो गोपमाल ने और अधिक प्रतिवाद नहीं किया। वह अपने घर आ गया श्रावस्ती के एक ग्रामीण की कन्या हेमामालिनी के साथ विवाह कर सुख से जीवन बिताने लगा।

गृहस्थी के कार्य बड़े बेढंगे होते हैं। एक बार धन के अभाव में गोपमाल को अपनी गायें बेचनी पड़ी तब तो पता नहीं चल पाया, पर जब वे गायें बिक कर चली गयीं, तब उसे पता चला कि उन्हें धोखे से कसाई के हाथों बेंच दिया गया। यह जानकर अन्तःकरण क्षुब्ध उठा इस अनजाने में हुये पाप के प्रति उसका अन्तःकरण तीव्रता से छटपटाने लगा।

अब उसने निश्चय किया कि वह गृहस्थी के उत्तरदायित्वों का परित्याग कर देगा। उसने यह बात किसी से बतायी नहीं, तथापि उसके जीवन में आकस्मिक परिवर्तन और तीव्र विकृति देखकर हेमामालिनी ने उसके मन की बात जान ली। उसने निश्चय किया कि यदि गोपमाल गृहस्थ का परित्याग करते हैं तो मैं भी उनके साथ गृह परित्याग कर दूँगी।

रात्रि का निविड़ अन्धकार हाथ का हाथ नहीं सूझता था, गोपमाल चुपचाप उठा और जैसे ही आगे बढ़ने को हुआ कि देखा कि हेमामालिनी सम्मुख खड़ी है। मुझे मत रोको देवी! डसने आहत वाणी ने कहा। ”

“रोकती नहीं आर्य मैं तो स्वयं भी आपके साथ चलने को प्रस्तुत हूँ आत्मकल्याण, क्या पुरुष की ही आवश्यकता है, नारी की नहीं?” हेमामालिनी ने पूछा “किन्तु अंतेवासी जीवन की कठोरता तुम कैसे सहन कर सकोगी। ” गोपमाल ने प्रतिवाद किया।

आप कर सकते हैं, तो मैं भी कर सकती हूँ। याद है पाणिग्रहण के समय मैंने आपको हर कष्ट में साथ रहने का वचन दिया आखिर उसे भी तो पालन करना है। गोपमाल कुछ उत्तर देते उससे पूर्व ही एक आकृति सामने आयी, गोपमाल ने उन्हें पहचाना। यह तो महर्षि खड़े हैं दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। आशीर्वाद देते हुये अंगिरा ने कहा-”तात् तुम! दोनों आत्मकल्याण के इच्छुक हो दोनों तितिक्षाएँ सहन करने के लिए तैयार हो पर जो सामाजिक जीवन की विपरीत परिस्थितियों से नहीं लड़ सकता वह भला एकाँत जीवन के संघर्ष से क्या मुकाबला करेगा तुम्हारे पलायन से भी संसार इसी तरह पाप और अपराध करेगा। फिर क्या यह उचित न होगा कि तुम संसार में ही रहकर लोगों को पाप से बचाने के लिए उन्हें सन्मार्ग पर चलाने का प्रयत्न करो!

“लेकिन गुरुदेव। अनजाने में हुई भूलों का उत्तरदायी कौन होगा?” “ वत्स। यही समझने में तो निष्काम कर्म योग का सारा मर्म छिपा है मनुष्य कर्म करे पर सफलता या विफलता सुख या दुख, मान या अपमान सबमें में अपने आप को स्थिर रखकर फल से प्रभावित न हों तो संसार की बुराइयों का उत्तरदायी भी भगवान को माना जा सकता है। मनुष्य को तो अपने आप को उसका प्रतिनिधि मानकर लोकसेवा का ध्यान रखना चाहिए”

गेपमाल को मानो सिद्धि मिल गयी उस दिन उसने कर्म से विरक्ति का परित्याग कर दिया और लोक कल्याण को अपना लक्ष्य मानकर जीवन यापन करने लगा।


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