वातावरण की महिमा गायी ऋषियों और मनीषियों ने

December 1994

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गुरु अपने शिष्यों के साथ तीर्थ यात्रा पर चले जा रहे थे। एक शिष्य ने कहा-गुरुव! चलते-चलते थकान सी आ गई है। कुछ विश्रान्ति की आवश्यकता अनुभव होती है। कुछ विश्रान्ति की आवश्यकता अनुभव होती है भोजन का भी समय हो गया है। गुरुव ने चारों ओर निगाह दौड़ाई। समीप ही बरसाती नदी के किनारे एक विशाल वृक्ष खड़ा था। फलों से लदा था, छाया भी थी। सबने अपराह्न की संध्या-वंदन कर गुरु के हाथों प्रसाद पाया, थोड़ी देर विश्राम कर थकान मिटाई व फिर “चरैवेति चरैवेति” सिद्धाँत का परिपालन करते हुए आगे बढ़ गए, प्रव्रज्या चलती रही। एक वर्ष गीत गया। संयोग से आगामी वर्ष लौटते हुए उसी स्थान पर रुके। किंतु वहाँ वह वृक्ष नहीं नहीं था। जमीन से उखड़ी जड़ें बता रही थीं कि कभी वहाँ वृक्ष का अस्तित्व था, कल−कल करती नदी भी पास बह रही थी। एक शिष्य ने जिज्ञासापूर्वक पूछ ही लिया कि “भगवन्! यह क्या हुआ। इतना हरा-भरा वृक्ष व देखते-देखते धराशायी हो गया जबकि छोटी-छोटी बेंतों की लताएँ यथावत् खड़ी हैं। ” गुरुदेव ने गंभीरतापूर्वक कहा कि तात्! यह वृक्ष तो विशाल था, सबको छाया व फल भी ता था पर इस बरसाती नदी के उफनते प्रवाह को इसकी खोखली जड़ें झेल नहीं पाईं। उन जड़ों के खोखलेपन के ध्वंसावशेष तो अभी भी तुम देख ही हो। नदी का प्रवाह अभी भले ही शांत नजर आ रहा हो पर वर्षा ऋतु में बाढ़ आई तो कमजोर होने से यह धराशायी हो गया व बह गया। खोखलेपन की ऐसी ही अभिशप्त परिणति होती है। “इसमें नदी के प्रवाह का कोई चमत्कार नहीं, वृक्षों के मूलभूत आधार जड़ों का सूख जाना ही प्रमुख कारण है। ”

शिष्यों ने प्रसंग सुना व मर्म समझा कि यदि जड़े मजबूत न हों अंतरंग का आधार सशक्त न हो तो अस्तित्व अस्थायी ही रहता है। चाहे व्यक्ति का अंतःकरण हो अथवा समाज रूपी भवन का प्रसंग हो-यदि जड़ें कमजोर होंगी, मर्मस्थल रुग्ण होगा, नींव कमजोर होगी तो व्यक्ति समस्याओं रूपी तूफान को झेल नहीं पाएगा, समाज रूपी भवन गिरकर ही रहेगा।

महात्मा जी ने आश्रम की ओर लौटते हुए प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए कहा-”हे शिष्यगण ! मनुष्य को तुम एक प्रकार का भटका हुआ देवता मान सकते हो। उसके अंतराल में पड़े संस्कार जब प्रसुप्त पड़े रह जाते हैं तो वह सामान्य शिश्नोदर-परायण जीवन जीता देखा जाता है। अंतः की संवेदना सूख जाने के कारण निष्ठुर निर्दयी, कृपण स्थिति में नरपशु नरपिशाच की स्थिति में जीता देखा जाता है। यदि वह अंतःकरण की वातावरण के प्रभाव का लाभ उठा ले तो कोई भी प्रतिकूलता उसे हिला नहीं सकती, प्रगति पथ पर बढ़ते चरणों को कोई भी तूफान रोक नहीं सकता। व्यक्ति अपने संस्कारों को जमा कर ही देवमानव-महामानव-ऋषि, देवदूत बनता देखा है। ”

ऊपर आख्यान में बताई बात सही भी है। किंतु यह सब किया कैसे जाय? बीज यदि जमीन में पड़ा हो उसमें घुन हो तो कितना ही खाद-पानी दिया जाय उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता प्राणवान बीज परिस्थितियाँ अपने अनुकूल पाते ही भूगर्भ की नमी व गर्मी से पोषण पाते ही अंकुरित-पल्लवित-पुष्पित होता व विशाल वृक्ष का आकार धारण करता देखा जाता है। साधारण मानव भी इसी प्रकार अपनी सुसंस्कारिता को पोषण देते हुए तथा संस्कार युक्त वातावरण एवं महामानवों का सान्निध्य-संरक्षण पाकर आगे बढ़ते, असाधारण पुरुषार्थ करते देखे जाते हैं। यदि सब कुछ अनुकूल होते हुए भी व्यक्ति अपने विकास की तत्पर न हो तो इसे उसका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। उससे बड़ा अभागा और कौन हो सकता है जो तपःपूत सुसंस्कारित वातावरण पाकर, महापुरुषों दैवी सान्निध्य व संरक्षण पाकर भी अपनी आत्मिक प्रगति न कर सके।

किसी स्थान विशेष के संस्कार जैसे होते हैं वैसा ही आभामंडल उस स्थान विशेष पर बन जाता है तथा वहाँ विद्यमान लोगों को प्रभावित करता है। भगवान श्रीकृष्ण को जब महाभारत संग्राम के लिए भूमि का चयन करना पड़ा तो सारे बृहत्तर भारत का पर्यवेक्षण करने के बाद के लिए उपयुक्त पाया। विशिष्टता उस स्थान की यह थी कि थोड़ी सी खेती की जमीन के लिए एक भाई ने अपने दूसरे सगे भाई को नृशंसतापूर्वक मार डाला एवं उसे खेत की मेंड़ में दबा दिया। उनने कहा कि जिस स्थान पर संवेदना इतनी मृतप्राय हो जाय कि व्यक्ति निष्ठुरता की चरमसीमा पर पहुँच जाय, पर भाई-भाई के विरुद्ध, सगे, संबंधीगण एक दूसरे के विरुद्ध लड़ सकते हैं। कौरवों-पाण्डवों के लिए वही भूमि उपयुक्त मानी गयी एवं विशाल महाभारत वहीं संपन्न हुआ।

श्रवण कुमार अपनी मातृ-पितृ भक्त सेवा के लिए युगों-युगों तक या किये जाते रहेंगे किंतु जब वे अपने माता-पिता को लेकर मयदानव की क्रिया स्थली हस्तिनापुर के उत्तरी क्षेत्र के समीप से गुजर रहे थे तो वहाँ विद्यमान वातावरण के संस्कारों ने उनके चिंतन को भी प्रभावित कर दिया व उनने अपनी काँवर जमीन पर रखते हुए माता-पिता से स्वयं ही अपनी यात्रा पूरी करने को कहा। प्रज्ञा चक्षु पिता समझ गए कि इस स्थान में ही कोई ऐसी बात है कि उनका आज्ञाकारी बेटा ऐसा कह रहा है। उनने निवेदन किया कि कुछ दूरी तक उन्हें वह और पहुंचा दे, नेत्रहीन होने के कारण वे स्वयं चल नहीं पायेंगे, फिर वह चाहे अकेला उन्हें छोड़ कर चला जाए। थोड़ी ही देर में वह क्षेत्र पीछे निकलते ही श्रवण कुमार को स्वयं पर इतना पश्चाताप हुआ कि आखिर उनसे यह हुआ कैसे?

वस्तुतः स्थान विशेष के संस्कारों की अपनी महत्ता है। इसी कारण तंत्र साधक अपनी शक्ति साधना हेतु मरघटों को चुनते हैं। वहाँ की भूमि में, वातावरण में ऐसी विशिष्टता होती है कि उन्हें आसुरी शक्तियों की पूरी मदद अपनी साधना की सिद्धि में मिलती है।

पानीपत की तीन लड़ाइयां प्रसिद्ध हैं। पहली लड़ाई बाबर व राणासाँगा के बीच, दूसरी बाबर एवं इब्राहिम लोधी के बीच हुई। इन तीनों ने ही दिल्ली के तख्त का तथा भारत के भविष्य का निर्धारण कर यवन साम्राज्य की व आज के भारत के स्वरूप की स्थापना कर दी। पानीपत कुरुक्षेत्र ही स्थित हरियाणा का एक स्थल है, जहाँ के संस्कार कुछ इस प्रकार थे कि योद्धाओं में जबर्दस्त मान काट हुई एवं तीनों ही बार जो वर्षों के अंतराल पर लड़ाइयाँ हुई, उसी स्थान पर संघर्ष हुआ।

जहाँ तक भूमि व वातावरण के श्रेष्ठ संस्कारों का प्रश्न है-कई महत्वपूर्ण उदाहरण हमारे सामने हैं। समस्त ऋषियों की तपस्थलियाँ ऐसे स्थानों पर थीं, जहाँ आज तीर्थ-आरण्यक, धाम अथवा देवालय विद्यमान हैं। तीर्थों के साथ जो इतिहास जुड़ा है, वह इसी तथ्य का द्योतक है कि तपःपूत ऋषिगणों ने देवशक्तियों का आह्वान करके उस स्थान विशेष को संस्कारों से अनुप्राणित किया। उसी की महत्ता है कि आज भी उन स्थानों पर जाकर अलौकिक शांति मिलती हैं, दिव्य चेतना की उपस्थिति का आभास होता है।

भारत स्थित चारों धामों की, द्वादश-ज्योतिर्लिंगों की तथा सिद्धपीठों की अपनी महत्ता है कि किंतु हिमालय के उत्तराखण्ड कहे जाने वाले-उसका हृदय माने जाने वाले यमुनोत्री से लेकर नंदादेवी की चोटी तक के स्थान में जो विशिष्टता विद्यमान है-वह भारत ही नहीं विश्व के किसी भी हिमाच्छादित ऊँचे स्थानों पर नहीं है। यह स्थान देखने में भले निर्जीव, पाषाण खण्ड सा प्रतीत होता है जो वर्ष में 6 माह बर्फ से ही ढका रहता है किंतु तात्विक दृष्टि से पर्यवेक्षण करने पर यह एक प्रत्यक्ष देव स्थान है। उसके कण-कण में जीवन, संस्कार चेतना विद्यमान है। श्रीमद्भागवत के बारहवें स्कन्ध (अध्याय, 2, श्लोक 3) तथा दसवें स्कन्ध (अध्याय 87, श्लोक 5-6) में वर्णन है कि हिमालय, दिव्य सिद्धपुरुषों का निवास है। गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने अपने विराट रूप के हिमालय में अवस्थित होने की बात कही है। थियासाफी की जन्मदात्री मैडम ब्लावट्की के अनुसार यहाँ सिद्धपुरुषों की, मार्स्टस की पार्लियामेंट है जो अध्यात्म क्षेत्र के महत्वपूर्ण निर्णय करती रहती है। पालब्रण्डटन, टी. लोबसंग राम्बा एवं “आटोबायोग्राफी ऑफ योगी” ग्रंथ के लेखक स्वामी योगानंद परमहंस ने इस क्षेत्र को विशिष्ट दिव्य अध्यात्म शक्ति से अनुप्राणित माना है। दुर्गम हिमालय, जो शिवलिंग, नंदनवन, स्वर्गारोहिणी, सत्तोपंथ जैसे स्थानों के उत्तर में तिब्बत क्षेत्र से लगा हुआ है, में ऋषि सत्ताओं के सूक्ष्म शरीर रूप में अवस्थित होने की अध्यात्म क्षेत्र में दो सौ वर्ष से भी अधिक वर्षों से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहने वाले स्वामी कृष्णाश्रम जी जिनने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की आधार शिला रखी थी, को भी मालवीय जी ने इस क्षेत्र से आमंत्रित किया था। स्वयं परम पूज्य गुरुदेव सत्ता के प्रतिनिधि गुरु से साक्षात्कार करने चार बार हिमालय यात्रा करने उसी क्षेत्र में गए थे।

ऋषि जमदग्नि, परशुराम की तपस्थली उत्तरकाशी, वरिष्ठ मुनि की क्रियास्थली देवप्रयाग, जहाँ श्रीराम ने वानप्रस्थ काल बिताया शुकदेव जी की तपोभूमि निर्वाणस्थली (केदारनाथ) अपितु जहाँ उन्हें चारों धाम की ज्योतिर्मठ भी यहीं स्थित हैं। श्रीकृष्ण रुक्मिणी ने बद्रीवन जो हिमाच्छादित बद्रिकाश्रम के अंचल में था, में ही तप−साधना की थी। पाण्डवों ने-

संकीर्णता भरे पक्षपात का नाम ही राग-द्वेश है। सुविस्तृत क्षेत्र में अपनापन फैला देने पर सभी अपने लगने लगते हैं। -पं. श्रीरामशर्मा आचार्य -स्वर्गारोहण इसी उत्तराखंड के के हिमाच्छादित शिखरों पर किया था। व्यास गुफा भी बद्रिकाश्रम से आगे वसोधरा निर्झर के समीप स्थित है जहाँ व्यास जी ने महाभारत व आर्ष का सृजन किया था। शिवजी की क्रीड़ास्थली कैलाश मानसरोवर इसी क्षेत्र में अवस्थित है गंगा धारण करने वाले कैलाशपति महाकालेश्वर ने स्वर्ग से अवतरित गंगा को जटाओं में धारण कर गोमुख के माध्यम से सारी पृथ्वी को अभिसिंचित करने का जो निर्देश दिया था, उस पौराणिक आख्यान की संगति भी शिवलिंग के समीप स्थित स्वर्ग गंगा, गंगोत्री ग्लेशियर, गोमुख व गंगोत्री से बैठती है। भगीरथ ने यहीं इस प्रयोजन के लिए तप किया था। वास्तविक कैलाश, मानसरोवर, शिवलिंग पर्वत शिखर, नीलकंठ शिखर तथा वहीं स्थित विशाल झील के रूप में हैं, यह भौगोलिक वेत्ता भी अब मान चुके हैं। अष्ट वसुओं ने जिस स्थान को भी अलकापुरी (अलकनंदा का उद्गम स्थल) पास है। इससे धरती स्वर्ग के इसी क्षेत्र में होने की विवेचना भी तथ्य सम्मत प्रतीत होती है।

पाँच प्रयोगों, पंच सरोवरों गुप्तकाशी-उत्तरकाशी तथा गंगा व यमुना जैसी उत्तराँचल को अभिसिंचित करने वाली विशाल नदियों का उद्गम केन्द्र यहीं होने से इस स्थान का अध्यात्म साधना की दृष्टि से विशेष महत्व है। दिव्य वनौषधियों से युक्त नंदनवन, हरकीदून तथा प्रायः सोलह से अधिक फूलों की घाटियाँ इस स्थान को वस्तुतः स्वर्ग की उपमा प्रदान करती हैं। यही देवताओं, ऋषियों, तपस्वियों का क्रीड़ा प्राँगण रहा है। आर्ष साहित्य में जो भी कुछ लिखा है वह एक प्रकार से हिमालय की ही आत्मा को अभिव्यक्ति है। इस क्षेत्र विशेष की महत्ता के कारण ही अध्यात्म वेत्ताओं ने इसे सर्वोपरि महत्व सदा से ही दिया है। इसी क्षेत्र को जाने वाली द्वापर हिमालय की छाया व गंगा की गोद में ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की तपस्थली में शांतिकुंज की स्थापना भी इस भूमि के सुसंस्कारों को दृष्टिगत रख कर ही की गयी है। न केवल स्थापना हुई है अपितु सन् 1926 से सतत् जल रहे अखण्ड दीपक की स्थापना, कुमारिकाओं द्वारा अखण्ड गायत्री जप, नित्य यज्ञ एवं करोड़ों गायत्री महामंत्र की युगसंधि महापुरश्चरण साधना द्वारा इस क्षेत्र को संस्कारित कर इसे गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित भी किया गया है। इस कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर उपासना करने वाले के प्रसुप्त संस्कार स्वयं जाग उठते हैं, दैवीसत्ता का मार्गदर्शन उसे मिलता है तथा लौकिक एवं अन्यान्य समस्याएँ स्वतः सुलझ जाती हैं। यदि शांतिकुंज को दिव्यशक्ति धारा का गोमुख कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण भी यहीं हुआ है एवं उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष भी महाकाल द्वारा यहीं से किया गया है।

अन्याय स्थलों का उदाहरण देखने पर हम पाते हैं कि स्वयं महर्षि अरविंद ने जब क्राँतिकारी व समाज निर्माण के निमित्त महामानवों को मार्गदर्शन देने के बाद तप साधना करने का निर्णय लिया तो अगस्त्य मुनि की तपस्थली वेदपुरी का ही चयन किया। यह स्थान वही हैं जहाँ आज पांडिचेरी अवस्थित है जिस स्थान पर श्री अरविंद ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में व बाद में श्री माँ ने साधना की। वहीं पर अगस्त्य ऋषि की कभी कुटिया थी, ऐसा अध्यात्मवेत्ताओं का मत है इस स्थान का प्रभामंडल इतना अद्भुत दैवी एवं चमत्कारी था कि स्वयं राक्षस राज रावण उस स्थान पर आने की आजीवन हिम्मत न कर सका। उसके स्पष्ट निर्देश अपने अनुचरों के लिए थे कि उस आश्रम से दूर ही रहें नहीं तो वे उसके प्रभाव से अपना अस्तित्व तक खो बैठेंगे। इसी स्थान पर मुनि अगस्त्य ने श्री राम को माँ सीता की खोज के लिए जाते हुये दिव्यास्त्र प्रदान किये थे।

दक्षिण भारत में ही अरुणाचलम् नामक स्थान है जो महर्षि रमण की तपस्थली कहा है। यह शैव साधकों की तपोभूमि आदिकाल से रही है। इसी संस्कारित स्थान को जो पहाड़ियों से घिरा है, महर्षि रमण ने अपनी मौन साधना के लिए चुना व प्राण-शक्ति को घनीभूत कर इतना प्रचंड ऊर्जा संपन्न बना दिया कि वहाँ जाने वाला हर व्यक्ति स्वयं में परिवर्तन अनुभव करता था। कहा जाता है कि ऋषि आश्रमों में प्राचीनकाल में सिंह व गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे। यह उक्ति और कहीं सत्य हो न हों, पर महर्षि रमण के आश्रम में हिंसक जीव भी पालतू पशुओं की तरह महर्षि व उनके पास अपने वाले दर्शनार्थियों के पास घूमते रहते थे। किसी को भी किसी ने कोई क्षति पहुँचाई हो, इसका एक भी उदाहरण देखने को नहीं मिला। 19 वीं सदी में जन्मे महर्षि रमण एवं श्री अरविंद सहित श्रीरामकृष्ण की तप−साधना, जो महाकाल व हिमालय की ऋषि सत्ता द्वारा प्रेरित थी, को ही वह श्रेय दिया जाता रहा है कि स्वतंत्रता संग्राम के लिए समुचित वातावरण इसी कारण बना व एक साथ अनेकों महामानव इस समय विशेष में जन्मे। शैव साधकों की उस तपस्थली के दिव्य संस्कार ही थे कि महर्षि मौन रहते थे फिर भी किसी आगन्तुक को ऐसा आभास न होता था कि उसके मन की बात को पढ़कर उसे समाधान, भावी जीवन संबंधी परामर्श उनकी चेहरे की मुसकान व नेत्रों की भावभंगिमा से न मिला हो। कोई साधक किसी भूमि विशेष में पड़े प्रसुप्त बीजाँकुरों को अपनी प्रखरता से जगाकर किस प्रकार उस स्थान को एक सिद्धपीठ बना सकता है, अरुणाचलम् इसका जीता जागता उदाहरण है।

इसी शृंखला में उज्जयिनी (आज का उज्जैन) का नाम भी आता है। यह 51 शक्तिपीठों में से एक है, द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक महाकालेष्वर की स्थापना यहाँ हुई है। अनेकों शक्ति साधक इसी भूमि पर साधना कर सिद्धि को प्राप्त हुए। राजा भर्तृहरि अपनी तप−साधना द्वारा शिप्रा नदी के तट पर स्थित इसी स्थान पर योगीराज बने। सूत-शैनक परंपरा में कुँभ के मेलों के लिए चुने गए चार दिव्य संस्कारित स्थानों में एक नाम उज्जैन का भी है जहाँ हर बारह वर्ष में एक बार सिंहस्थ का आयोजन आदिकाल से होता आ रहा है। इसमें सारे भारत वर्ष की हस्तियाँ एकत्र होकर अध्यात्म जगत से विभिन्न लौकिक एवं आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान निकाला करती थीं। हरिद्वार, प्रयाग, नासिक के साथ उज्जयिनी का नाम पवित्र स्थानों के रूप में इसी कारण लिया जाता है। संभवतः इस भूमि के संस्कार ही थे कि महर्षि साँदीपनि ने श्रीकृष्ण, बलराम, सुदामा, आदि को विद्या विस्तार का शिक्षण देने के लिए इसे ही चुना। युगों−युगों के लिए यह एक पवित्र स्थान बन गया।

प्रयागराज, जहाँ हर छह वर्ष में एक बार अर्धकुँभ एवं 12 वर्ष में पूर्ण कुँभ आयोजित होता है, तीर्थ राज कहलाता है। यहाँ त्रिवेणी संगम है जहाँ गंगा, यमुना, सरस्वती का मिलन होता है। महर्षि भरद्वाज का गुरुकुल यहीं पर था जहाँ पूरी धरित्री पर विद्या-विस्तार हेतु सतत् दस हजार शिक्षार्थी अध्ययनरत रहते थे। इस स्थान विशेष के संस्कार इतने दिव्य हैं कि यहीं से जन्मे महापुरुषों ने स्वतंत्रता के पूर्व एवं बाद में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई हैं।

नासिक भी वह स्थान है जहाँ कुँभ का मेला गोदावरी के तट पर हर बार संपन्न होता है, पंचवटी भी यहीं स्थित है जहाँ श्रीराम ने वनवास का अधिकांश समय अपनी सहधर्मिणी एवं अनुज के साथ काटा था। महर्षि गौतम की यह तपस्थली रही है तथा महाप्रभु की बल्लभाचार्य की 84 बैठकों में से एक है। यह वही स्थान है जहाँ समर्थ गुरु रामदास ने तपकर अपनी व्यायामशालाओं के स्थापित करने के कार्य शुभारंभ का संकल्प लिया था। चौथा स्थान कुँभ के मेले के आयोजन का वह है जहाँ शांतिकुंज अवस्थित है-हरिद्वार।

उपरोक्त उदाहरण स्थान विशेष की महत्ता समझाने के लिए दिये गये। शांतिकुंज की अपनी विशिष्ट महत्ता विशेष वातावरण के कारण है यहाँ प्रखर प्रज्ञा रूपी महाप्राज्ञ गुरुदेव के तप की गर्मी विद्यमान है तो सजल श्रद्धा रूपी मातृशक्ति प्रातः स्मरणीय वंदनीया माता जी के स्नेह की नमी भी है। गर्मी व नमी पाकर ही बीज अंकुरित, विकसित, पल्लवित, होता है। ऐसे स्थान में की गयी थोड़ी सी साधना भी अगणित पुण्य फलदायी होती है। सारी ऋषि सत्ताओं की संग्रहित-शक्ति जहाँ हो, वहाँ किया गया तप सिद्धिदायक ही होता है गायत्री महाशक्ति की साधना, इक्कीसवीं सदी रूपी सतयुग के अवतरण हेतु युगसंधि महापुरश्चरण यहाँ पर न्यूनतम वर्ष में बार तो आकर संपन्न किया ही जाना चाहिए ताकि संस्कारित वातावरण का लाभ परिजनों में विद्यमान देवत्व के बीज को मिल सके, वे सुपात्र बन सकें। यह वह त्रिवेणी संगम है ‘जहाँ काक होहिं पिक बकऊँ मराला’ की उक्ति सार्थक होती है।

शांतिकुंज सविता शक्ति का सघनीभूत ऊर्जा केन्द्र है महर्षि तपस्थली में एक नूतन सृष्टि के सृजन के रूप में आज के युग के विश्वामित्र ने इस दिव्य भूमि के संस्कारों को पहचाना, जगाया, अनुप्राणित किया व विनिर्मित किया है अजस में करोड़ों सृजन शिल्पियों को नवयुग की आधारशिला रखने हेतु तपाया, विनिर्मित किया जाना है। शांतिकुंज दिव्य शक्तिधारा की गंगोत्री है-गोमुख है। दुर्गम हिमालय से ऋषि सत्ता की तप चेतन यहाँ एकीकृत हो सघन रूप में प्रकट होती है। गंगा, गायत्री एवं गुरुसत्ता की अद्भुत त्रिवेणी है-गायत्री तीर्थ का यह कल्पवृक्ष।


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