रूस के प्रख्यात विचारक और वैज्ञानिक निकोलाई अमरोसोव ने अपने एक निबन्ध में लिखा है कि -- “ मनुष्य को सुखी होना सिखाया जा सकता है। यह कोई जटिल या असाध्य प्रक्रिया नहीं है, न ही किसी का साथ दे और किसी का साथ न दे। बल्कि इस प्रक्रिया को नियंत्रित किया जा सकता है और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मनुष्य स्वयं ही इस पर नियंत्रण रख सकता है। ”
प्रायः हम लोगों को विभिन्न दिशाओं में, विभिन्न लक्ष्यों की और दौड़ते हुए से देखते हैं। प्रश्न हो सकता है अनवरत चलते रहने वाले धर्म या निरंतर बनी रहने वाली इस विकलता का क्या कारण है। यदि उन प्रयत्नों का लक्ष्य जीवन अच्छा और निर्वाह की व्यवस्था भर जुटाना है तो कहा जा सकता है कि वह तो बहुत ही सहजता और सरलतापूर्वक जुटायी जा सकती है। मनुष्येत्तर अन्य जीव जंतु बड़ी सुविधापूर्वक अपने लिये भोजन, आवास की व्यवस्था बना देते हैं। उन्हें न किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए व्याकुलता होती है और न अपनी निर्वाह आवश्यकताओं को छोड़कर अन्य किन्हीं विषयों में रहते हैं अथवा नहीं, यह तो नहीं अनिवार्य, सामान्य और विलासितापूर्ण आवश्यकतायें भी बड़ी सरलता से पूरी होती रहती है, फिर भी उसे दुःखी अवसादग्रस्त देख जा सकता है।
यह बात उन लोगों के लिये कही जा रही है, जो सामान्यतः समझते हैं कि समृद्ध और साधन संपन्न होने से सभी प्रकार के दुखों और अभावों से छुटकारा पाया जा सकता है। वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। दुःख एक आँतरिक अभावात्मक धारणा है। वह अंतस् से संबंधित एक रिक्त अनुभूति है। उस रिक्तता को बाहरी उपादानों से नहीं भरा जा सकता। यही कारण है कि जो लोग संपन्न, समृद्ध और हृष्ट-पुष्ट देखे जाते हैं वे भी दुःख और पीड़ाओं से ग्रस्त रहते हैं, फिर प्रश्न उठता है कि जब साधन, संपन्नता और वाह्य वैभव विभूतियाँ सुख नहीं हैं तो सुख आखिर है-क्या? निकोलाई असोसोव ने कहा है-”सुख व्यक्ति के मानसिक चैन का एक एक कमोबेश स्तर है, जिससे वह कुल मिलाकर जीवन से संतुष्ट रहता है। ”
संतुष्टि-एक भावनात्मक अनुभूति है, जो उपलब्ध को पर्याप्त मानने से जन्मती है ओर अभीष्ट को प्राप्त करने के लिये प्रचुर सामर्थ्य और पर्याप्त साहस प्रदान करती है। सुख का अर्थ है उपलब्ध में संतुष्ट रहने, अनुपलब्ध के लिये आकुल-व्याकुल न होने की स्थिति। इस स्थिति में रहते हुए ही कोई व्यक्ति अपने अभीष्ट को प्राप्त करने के लिये भी सफलतापूर्वक आगे बढ़ता रह सकता है, अन्यथा असंतोष, अतृप्ति और आतुरता जैसी निषेधात्मक प्रवृत्तियाँ मनुष्य के मानसिक संतुलन को डगमगा देती हैं और उसकी शक्तियों को भी छिन्न-भिन्न कर देती है।
अतएव सुखी किस प्रकार रहा जाय? यह जानने के लिये अपनी भावनाओं को किस प्रकार प्रशिक्षित किया जाय? इस पर अधिक ध्यान दिया जाय। कहा जा चुका है कि और उपलब्धि को अर्जित करने या स्थिर रखने के लिये भावनाओं का संतुलन, परिष्कार, परिमार्जन ही अधिक सफल और कारगर तरीका है। बचपन, शैशव, और किशोरावस्था में तो व्यक्ति विवेक बुद्धि की दृष्टि से इतना परिपक्व नहीं होता कि वह अपनी भावनाओं को स्वयं शिक्षित कर सके। स्वयं शिक्षण करने की स्थिति कर सके। स्वयं शिक्षण करने की स्थिति तब आती है, जब मनुष्य अपने बचपन व किशोरावस्था से आगे बढ़कर युवावस्था में प्रवेश करता है और समाज के संपर्क में आता है। उस स्थिति में मनुष्य पर समाज से संपर्क का भी निरंतर प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार प्रशिक्षण की इस कला को सीख लेने एवं उसे अभीष्ट स्तर तक विकसित कर लेने मात्र से व्यक्ति सुख की अनुभूति प्रतिकूल और विपन्न परिस्थितियों में भी करता रह सकता है।